उन्होंने कहा कि जीवन का प्रत्येक क्षण सार्थकता एवं जीवंतता लिए होता है, प्रत्येक क्षण उपयोगी होता है, एक क्षण जो बीत जाता है वह फिर वापस नहीं आता। आज आपके साथ गुरु हैं तो आवश्यक नहीं कि वापस ये क्षण आ सकें कि आप उनके पास हों या उनसे दीक्षा प्राप्त कर सकें, या वह ज्ञान प्राप्त कर सकें जिसके द्वारा पाप समाप्त होकर पुण्य का उदय होता है। तो वैसा ही क्षण वापस आ नहीं सकता। एक बार एक मनुष्य की रचना हो गई, तो उसी आकृति के दूसरे मनुष्य की रचना नहीं हो सकती। एक पिता के चार पुत्र हैं तो चारों का रूप, आकृति, स्वभाव, संस्कार अलग-अलग होते हैं चाहे जुड़वा भाई भी हों।
इसलिए एक क्षण विशेष में किया गया कार्य ही जीवन को पूर्णता दे सकता है और जीवन की अपूर्णता इसलिए होती है क्योंकि हमारा मन अपने आप में आंदोलित या डांवाडोल होता है, निर्णय नहीं कर पाता। परन्तु बिना समुद्र में छलांग लगाए, बिना जोखिम उठाए सागररूपी, जीवन को पार नहीं किया जा सकता। जो जीवन में चैलेंज लेता है, जो अपने आप में एक बलिदानी हो जाता है, वही जीवन में कुछ प्राप्त कर सकता है। जो घर जारे आपन—- जो पहले अपना घर जलाता है, अपने अंदर के विकार जला देता है, अपने विचार से लोभ, लालच, स्वार्थ, मोह समाप्त कर देता है, उसके लिए ही क्षण का महत्व है। जीवन में तो लोभ-लालच पैदा होगा ही, परन्तु एक क्षण हो गुरु के साथ तो ये मिट सकते हैं। फिर मिटे या नहीं कोई आवश्यक नहीं है, क्योंकि फिर वैसा क्षण आए या नहीं आए। कोई जरूरी नहीं है कि वही नक्षत्र, वही तिथि, वही मुहुर्त वापस स्थापित हो ही। भगवान शिव ने कहा है कि मैं क्षण-क्षण परिवर्तित हूं और जो परिवर्तित है वह जीवित है, वही अद्वितीय है, श्रेष्ठ है, पूर्ण है।
जीवन में गृहस्थ जीवन भी बहुत आवश्यक है, मैं यह स्वीकार करता हूं, मगर मैं इस बात को भी स्वीकार करता हूं कि संन्यास जीवन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति गृहस्थ में रहते हुए भी संन्यासी जीवन जिये-वह उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। घर बार छोड़ने को संन्यास नहीं कहते और बस घर में रहने वाले को गृहस्थ नहीं कहते। पत्नी साथ होने से ही गृहस्थ नहीं हो जाते, बेटे पैदा होने से भी गृहस्थ नहीं हो जाते। भगवान कृष्ण को पूर्ण योगीराज कहा गया जो कि गोपियों से प्रेम करते थे, जो 16,000 रानियों के पति थे। वे योगीराज कहलाए। इसलिए ये शब्द मन से उधृत हैं, विचारों से उधृत हैं, आपके विचार एकक्षण विशेष में कमजोर हो गए तो आप चूक गए। उस क्षण को गंवा बैठे, वह क्षण फिर वापस नहीं आ सकता। यह जो हृदय बार-बार परिवर्तन होता है, यह जो बार-बार मन में तर्क-विर्तक, संदेह, भ्रम पैदा होता है तो इसको कैसे दूर करें, कैसे ये दूर हो?
क्योंकि हर बार और हर क्षण ये तर्क वितर्क पैदा होते ही रहते हैं। अच्छे से अच्छे योगी के भी और आपके भी। यह सही है या नहीं, यह कार्य करना उचित है या नहीं और जो इस प्रकार के विचार या संदेह रखता है वह एक पशु जीवन व्यतीत करता है और मर जाता है। जो जीवन में दृढ़ निश्चय कर लेता है कि मुझे इस रास्ते पर बढ़ना है और सब छोड़ देना है, सब कुछ हाथ में रखते हुए भी मुझे अपने कार्य को सम्पन्न करना है, अपनी परस्नैलिटी को उच्चता प्रदान करनी है। वह व्यक्ति अद्वितीयता प्राप्त करता ही है, निःसंदेह करता है। आपकी परस्नैलिटी, आपका व्यक्तित्व और आपकी धारणा, आपका चिंतन, आपका कार्य, केवल आपका महत्वपूर्ण होगा। आपके पिता के द्वारा आपका नाम याद किया जाए कि किशनलाल का पुत्र है तब ऐसा पुत्र मरने के काबिल होता है और जो बेटे के नाम से पहचाना जाता है वह अधम होता है।
जो अपने कार्यों से, अपने व्यक्तित्व से लोक में विख्यात होता है, वही सर्वत्र विजयी होता है, इसलिए अपना व्यक्तित्व निखारना आवश्यक है और हमारे जीवन मे सैंकड़ों उदाहरण हैं, हजारों उदाहरण हैं। राम का उदाहरण है कि अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए जंगलों में इसलिए गए कि उच्च कोटि की साधनाएं सम्पन्न कर सकें, उस रावण को मारकर संसार में विख्यात हो सकें। कृष्ण ने कहा और कोई रास्ता है ही नहीं और अपने पूरे जीवन में उन मां बाप से केवल 22 दिन मिले, वासुदेव और देवकी को, जिन्होंने उनको जन्म दिया। अधिकतर समय उनका गोकुल में बीता, नंद और यशोदा के साथ। मथुरा आए तो केवल 22 दिन रहे, 22 दिन में भी 2 या 4 बार मिले होंगे। उन्होंने कहा इनकी वजह से मेरा नाम नहीं हो पाएगा। मुझे अगर कुछ बनना है तो कुछ ऐसा करूं कि अद्वितीय बन सकूं, ऐसा कुछ करूं जो लोगों ने नहीं किया। प्रेम करना हेय समझा तो उन्होंने प्रेम करके दिखाया, जो कुछ करना है करे, समाज मैं राधा को लेकर घूमंगा, जो समाज को करना है करे। एक विद्रोह की भावना थी उनमें। उन्होंने कहा कि अगर मथुरा मेरे लिए ठीक नहीं है, मेरे व्यक्तित्व को निखारने में सही नहीं है तो मैं द्वारका में अपना राज्य स्थापित करूंगा और मैं वहां का उच्च कोटि का राजा बनूंगा। और महाभारत युद्ध में सैंकड़ों हजारों मर जाएंगे मगर मैं अपने व्यक्तित्व को सर्वोच्चता प्रदान करूंगा। यही काम बुद्ध ने किया, एक राजकुमार होकर के घर बार छोड़ करके बुद्धत्व को प्राप्त कर लिया और बुद्ध का नाम हमें आज भी याद है। उनके बेटों का या बाप का नाम हमें याद नहीं है। महावीर ने भी यही किया। गांधी ने भी निश्चय कर लिया कि अपना व्यक्तित्व निखारना है और अपना व्यक्तित्व निखारने के लिए न कस्तूरबा की तरफ देखा, न चारों बेटों की तरफ देखा। चारों बेटे अपने आप में कुमार्गी से दिखे। एक ने मुसलमान धर्म ग्रहण कर लिया, एक बिल्कुल गांधी जी जहां खाना खाते थे, वहां सामने बैठ कर मांस और मदिरा लेता था।
मगर गांधी जी ने ध्यान दिया ही नहीं। उन्होंने कहा कि पुत्र अपनी जगह है, मेरा उनके प्रति कर्तव्य था वह मैंने पूरा कर दिया। अब उनके लिए मुझे जीवन बरबाद नहीं करना है। अपना व्यक्तित्व निखारना है। त्रेता युग के उदाहरण से लगाकर के आज के उदाहरण में मैं आपको यह बता रहा था कि आपका व्यक्तित्व आपका है। आपकी पत्नी का या आपके बाप का और आपकी मां का या भाई का व्यक्तित्व आपके काम नहीं आएगा और इन लोगों ने जो निश्चय किया कि व्यक्तित्व निखारना है, तो उन्होंने सब न्यौछावर कर दिया और उनका अद्वितीय व्यक्तित्व बन गया। गांधी जी भी वकील थे, आराम से रोटियां खा सकते थे, वकालत कर सकते थे, उनको कौन रोक रहा था, जवाहर लाल नेरूह भी मोतीलाल के बेटे थे और उस समय भी कम से कम 20 हजार रूपये मोतीलाल एक मुकदमे को लड़ने के लेते थे। तब भी उनका पुत्र जेल गया, लाठियां खाईं। उसने कहा कि मुझे अपना व्यक्तित्व निखारना है, बाकी सब कुछ बेकार है। न मेरी बेटी काम आएगी न पिता काम आएंगे। मुझे अपने व्यक्तित्व को सर्वोच्चता प्रदान करनी है और पुष्पदंत भी यही कह रहा है, भगवान शिव भी यही कह रहे हैं कि यदि आपको अपना व्यक्तित्व निखारना है, तो भ्रम को छोड़ना पड़ेगा, संदेह को छोड़ना पड़ेगा और संदेह केवल दीक्षा के माध्यम से समाप्त हो सकते है और कोई रास्ता नहीं है, अंदर कोई मशीन भी नहीं है। दीक्षा का अर्थ है अंदर उन विचारों को पैदा करना जिनसे आपका व्यक्तित्व निखर सके, आपमें एक धारणा शक्ति मजबूत हो सके। यदि दीक्षा के विषय में मैं बार-बार कहता हूं तो अवश्य कुछ तथ्य है। सिंह गमन सत पुरुष चन, कदली फले एक बार—————
उच्चकोटि का व्यक्ति एक बार भी कहता है तो सामने वाला श्रेष्ठ व्यक्ति उसे हृदय से उतार देता है वहीं मूर्ख व्यक्ति को दस हजार बार कहें तो भी नहीं उतार सकता और अगर चेतनावान व्यक्ति है तो एक बार ठोकर भी बहुत है। या तो आपके जीवन के जितने भी साल बचे है, बीस, पच्चीस, तीस, तो या तो आप उन 20-25 सालों में अपने व्यक्तित्व को 10-12 टुकड़ों में बांट करके कि इसका बाप हूं, इसका पति हूं, यह मेरा नौकर है, यह मेरा घर है। इस प्रकार 20 टुकड़ों में बंट कर मर जाइए, चिता पर लेट जाइए। या फिर वो अपनी जगह पर हैं, आप अपनी जगह पर हैं। वो अपना काम करते रहें-कपूत होंगे तो कपूत होंगे, मांस खा रहा है तो मांस खा रहा है, शादी कर ली तो कर ली। गांधी जी अपने लड़को को कहां तक समझाते और समझाने से होता भी क्या? उनका तो निश्चय बस एक था। उस करोड़पति बाप के बेटे नेहरू के घर में अभाव क्या था, उनके पेरिस से कपड़े धुल कर आते थे, क्या कमी थी? क्यों लाठियां खाईं, क्यों अंग्रेजों का अत्याचार सहन किया? क्योंकि एक व्यक्तित्व को निखारने की चाह थी और इसलिए आज जवाहर लाल का नाम हमारे सामने है और अगले 500 साल तक रहेगा।
शास्त्र भी यही कह रहा है कि इस मामले में हमे केवल एक निश्चय कर लेना है कि यह सब कुछ तो चलता रहेगा, उसके लिए आप दुखी मत होइए, बुखार आ गया तो परेशान मत होइए, खोपड़ी पकड़ कर मत बैठिए। बेटे अगर नहीं पढ़ रहे हैं तो नही पढ़ रहें, आपके कहने से तो फर्स्ट क्लास आएंगे नहीं। आप उसे मार रहे हैं, उसके पीछे घूम रहें हैं और अपने व्यक्तित्व के टुकडे-टुकडे कर रहे हैं, जिन्दगी, आधी से ज्यादा ऐसे बिता दी आपने और बाकी आधी भी ऐसे ही बिताएंगे। मेरे कहने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। इसलिए नहीं पड़ेगा क्योंकि एक बार माचिस नहीं लगती है तो दूसरी बार फिर घिसते हैं, चौथी बार घिसते हैं, तो पांचवी बार माचिस लगेगी ही लगेगी। एक बार दीक्षा से नहीं होगा तो दूसरी, तीसरी, चौथी या पांचवी बार दृढ़ संकल्प आएगा कि मुझे इतना ऊंचा जीवन को उठा देना है। गुरु ने कहा तुम्हें सूर्य बनना है, तो बैठे-बैठे तो सूर्य बनेंगे नहीं। आप बनेंगे अपने व्यक्तित्व की वजह से और इसके लिए व्यक्तित्व को टुकड़े-टुकड़े होने से बचाना पड़ेगा। पत्नी आएगी तो बैठ जाएगी, बेटे कहना मानेंगे तो मानेंगे, मैं काहे को चिंता करूं। मेरा कर्त्तव्य था कि गृहस्थी होना चाहिए, पत्नी होनी चाहिए, पुत्र होने चाहिए। वंश चलेगा तो चलेगा, नहीं चलेगा तो चिंता किस बात की?
कबीर का कौन-सा वंश चल रहा है, मीरा का कौन सा वंश है? वंश आवश्यक नहीं है। मुझे अपना व्यक्तित्व निखारना है, अपना ज्ञान पैदा करना है, मेरे मरने के 2000 साल बाद भी मेरा नाम आकाश में इन्द्रधनुष के रंगों से लिखा होना चाहिए, यह जीवन में जरूरी है। मेरे गुरु ने भी यही मुझे कहा था। उन्होंने कहा था कि तुम एक काम करो, तुम्हें केवल अपना व्यक्तित्व निखारना है और उसके लिए तुम्हें बहुत परिश्रम करना पड़ेगा, हिमालय के चप्पे-चप्पे को छानना पडे़गा, भूखा मरना पडे़गा, तकलीफ देखनी पडे़गी और तुमको जरूर तकलीफ आए, कठिनाइयां आएं, बहुत संघर्ष आएं तभी तुम निखर सकोंगे। मगर साथ-साथ एक काम और करो, धोती के किनारे पर एक गांठ लगाओ, हर बार धोती बदलो तो यह गांठ लगाए रखना, गांठ हाथ में आएगी तो याद आएगा कि मुझे अपना व्यक्तित्व निखारना है, नहीं तो तुम भूल जाओगे। और जब तक मैं संन्यासी रहा गांठ बांधे रहा, गुरु जी ने कहा था यह काम करना है, इस रास्ते को भी देख लेना है, हिमालय को भी देख लेना है, सिद्धाश्रम को भी देख लेना है।
आप में कहीं कोई कमी नहीं है, कृष्ण के भी दो हाथ थे और आपके भी दो हाथ हैं, कृष्ण में और राम में और आप में कोई अंतर है ही नहीं। आइंस्टाइन का माइंड और आपका माइंड बराबर है, नेहरू जी का माइंड कोई आपसे चौगुना नहीं था और गांधी जी तो केवल 52 किलो के थे। एक धक्का दें, तो चार फुट दूर गिरें और बिना लाठी के चल नहीं पाते थे। परन्तु व्यक्तित्व अपने आपमें अद्वितीय था। उनमें एक चिंतन था, कि मुझे अपनी परस्नैलिटी बनानी है मुझे सूर्य बनना है और इसके लिए गांधी जी ने कर्मयोग की क्रिया की, कुण्डलिनी जागरण की दीक्षा ली और सहस्त्रार भेदन के लिए बराबर प्रयत्न करते रहे कि कोई गुरु मिले मुझे जो सहस्त्रार भेदन करे। उनकी जीवनी पढें आप! क्यों ऐसा था? क्योंकि इसी प्रकार सर्वोच्चता प्राप्त हो सकती है और यों तो जो काम करता है उसे गालियां मिलती ही हैं और लोग गालियां दें हम सुनेंगे, आनन्द आए कि दो नई गालियां और सुनी। भगवान ने दो कान दिए ही इसलिए हैं कि इधर से गाली आए और उधर से निकले, बीच में रखिए ही नहीं आप।
आप न उत्तेजित होइए और न बात करिए। आप बराबर एक ही चिंतन, एक ही लक्ष्य रखिए कि व्यक्तित्व कैसे निखारें। चातक बिल्कुल एक ही तरफ देखता रहता है कि कब पानी की बूंद आए और मुंह में गिरे। और पुष्पदंत ने भी कहा है कि जो भी महत्वपूर्ण क्षण है उसका मुझे प्रयोग कर लेना है और नहीं करेंगे तो जीवन में और बहुत क्षण तो आएंगे पर वह क्षण नहीं आएंगे। कोई जरूरी नहीं कि आगे के क्षणों में गुरु साथ हों या दीक्षा दें। और मैंने कहा कि अगर एक बार दीक्षा लेने से आ जाती है, निश्चितता तो बहुत है, नहीं आए तो दूसरी बार लें तीसरी बार लें। कोई जरूरी नहीं कि एक बार दीक्षा लेते ही आप एकदम से सनातन धर्म में पूर्णता प्राप्त कर लें। दत्तात्रेय ने 24 बार दीक्षा ली। राम ने दो बार दीक्षा ली, वशिष्ठ से अलग ली, विश्वामित्र से अलग ली। कृष्ण ने सांदीपन से दीक्षा ली और आठ गुरुओं से और ली। एक ही गुरु से 108 बार दीक्षा ली। प्रश्न दीक्षा का नहीं है, प्रश्न है कि कब ऐसा चिंतन आता है, दृढ़ निश्चितता आती है। शिव महिम्न स्तोत्र का भाव ही यह है कि हम दृढ़ निश्चय करें। यों तो आप निश्चय करें तो कल भूल जाएंगे, भूल इसलिए जाएंगे कि आपके हृदय में वह आग पैदा नहीं हो रही है। वह ज्वाला पैदा हो और निश्चय कर लें। कर्त्तव्य तो चलेंगे ही, उनसे बंधे नहीं, मेरी डयूटी पुत्र को केवल रोटी देना है और अपने लक्ष्य की ओर चलते रहना है। कोई हलवा पकाकर खिलाने से बेटा आपका पैर पकड़ने वाला होगा ऐसा नहीं है। वह तो कपूत हो जाएगा, जितना लाड़ करेंगे उतनी ही गड़बड़ हो जाएगी।
पत्नी को कहें-क्या तकलीफ है? वह कहेगी-सर दर्द है। आप कहें ठीक है सिर दर्द है तो सो जा, मैं अपना काम करता हूं। फिर सिर दर्द होगा ही नहीं, उसकी जिंदगी में वापस। मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं कि आप कर्त्तव्य से भाग जाइए, मैं ऐसा भी नहीं कह रहा हूं कि आप गृहस्थ से भाग जाइए। घर में रहते हुए संन्यासी रहिए, न किसी के प्रति मोह, ना किसी के प्रति आसक्ति, न किसी के प्रति क्रोध, न किसी के प्रति घृणा। भगवान शिव के समान हम बनें और शिव बनें ऐसा जीवन में जरूरी है। शिव जैसा व्यक्ति तो है ही नहीं, ब्रह्म के बाद सब देवता बने और उन्होंने अपनी परस्नैलिटी निखारी, सभी ने। शिव ने अपनी परस्नैलिटी अलग ढंग से बनाई, ब्रह्मा ने अलग ढंग से बनाई। शिव ने पहले सती से शादी की, उनकी मृत्यु हो गई दक्ष के यज्ञ में तो पार्वती से शादी की। वे कुछ कमाए नहीं, नौकरी करें नहीं शिव, व्यापार उनके बस की बात नहीं, बस श्मशान में बैठे रहें। घर गृहस्थी वहां और बैठे हैं श्मशान में। मैं आपकी तुलना कर रहा हूं उनसे। मकान उनके रहने के लिए नहीं। पार्वती कहें कमा के लाओ कुछ, मैं दो बच्चे हैं एक गणपति है, गजानन है, लम्बोदर है, जितना खिलाएं कम है क्योंकि पेट बहुत बड़ा है उनका। कितनी रोटियां उनको खिलाऊं। दूसरा कार्तिकेय आपने पैदा किया जिसके छह मुंह। एक मुंह भरना ही बहुत भारी है, छह-छह मुंह भरने पड़ते हैं।
शिव कहते हैं- बस अपन श्मशान में बैठे हैं, खिलाना हो तो खिलाओ, नहीं खिलाना हो तो मत खिलाओ। हम तो बैठे हैं श्मशान में बिल्कुल निश्चिंत। और जितना लड़ाई झगड़ा आपके घर में नहीं है उतना शिव के घर में है। पार्वती का वाहन शेर है और शिव का वाहन बैल है। शेर और बैल का झगड़ा हो तो वो उधर बैल पकड़े उधर वो शेर को पकड़े। फिर गणपति का वाहन है चूहा और इनके पास सांप। सांप चूहे को खाए, वो चूहे को बचाए। और कार्तिकेय का वाहन है मोर और इनके गले में है सर्प जिसको मोर तुरन्त खा जाता है। शिव न कमाएं, न रोटियां खिला सके, दो बच्चे पैदा किए तो महान जो चालीस चालीस खा लें, घर में लड़ाई झगड़े अलग, उसके बाद भी———– शमशान्यां वासां भवतुं। शिव कहते हैं-मैं तो श्मशान में बैठा हूं, तेरी मर्जी हो तो मिल लेना। घर की तू जाने, तेरे लड़के जाने, मुझे कोई चिंता नहीं है। उन्होंने अपनी परस्नैलिटी निखारी और भगवान शिव कहलाए और आप बेकार टैंशन भुगतते रहते हैं कि पत्नी को सिर दर्द है, लड़का कहना नहीं मानता। आप उन्हें रहने दें, अपने व्यक्तित्व को देखिए, आप हैं तो जिन्दगी है। इसलिए पुष्पदंत ने भगवान शिव से प्रार्थना की मुझे आप एक बार नहीं तब तक दीक्षा देते रहिए जब तक मेरे मन के अर्नगल विचार समाप्त नहीं हो जाएं, अन्दर ज्वाला पैदा हो जाए कि मैं ऐसे स्तोत्र की रचना करूं कि आने वाली पीढि़यां मेरे व्यक्तित्व को याद रख सकें। और इस प्रकार की अद्वितीयता को प्राप्त कर उन्होंने शिव महिम्न स्तोत्र के 40 श्लोक लिखे जिसके एक-एक श्लोक पर एक-एक ग्रन्थ लिखा जा सकता है और इस प्रकार उन्होंने अपने व्यक्तित्व को निखारा।
आप अपने युग में मार्गदर्शन करना चाहें तो तब कर पाएंगे जब आपका एक व्यक्तित्व बनेगा। कुटिलता से आप नहीं कर पाएंगे, छल और झूठ से नहीं कर पाएंगे, व्याभिचार से नहीं कर पाएंगे, आपमें सत्यता, ईमानदारी और शरीर में फौलाद होना चाहिए। और यह दीक्षा से ही हो सकता है। दीक्षा का अर्थ है-गुरु का शिष्य के अन्दर स्थापन होना। तभी उसके व्यक्तित्व का निखार हो सकता है और इस अद्वितीयता को प्राप्त करने के लिए उम्र बाधक नहीं है। सौ साल आप जिएं तो भी समय कम है और बीस साल जिएं तब भी कुछ कर गुजरने को बहुत है। अभिमन्यु सोलह साल की उम्र में मर गया और अर्जुन 80 साल की उम्र में मरा। दोनों विजयी हुए पर अभिमन्यु जैसी गति अर्जुन नहीं प्राप्त कर पाया, अभिमन्यु जैसा साहस वह नहीं कर पाया। अभिमन्यु श्रेष्ठ बना क्योंकि वह जूझा, उसने संघर्ष किया, वह बैठा नहीं। और गीता में कुछ है ही नहीं। एक लाइन में गीता को कहे तो गीता का मतलब है, हे अर्जुन! तू उठ और काम कर, बाकी मैं अपने आप संभाल लूंगा। तू खड़ा हो जा पैरों पर।
मैं भी आपको गीता समझा रहा हूं कि आप खड़े हो जाओ एक बार, गुरु तुम्हारे पीछे खड़ा है। संकल्प करना है तो इसी क्षण आपको संकल्प करना पड़ेगा। दृढ़ निश्चय करना पड़ेगा कि मुझे यह करना ही है। आपमें, नेहरू में, आइंस्टाइन में, लिंकन में, ईसा मसीह में और ब्रह्मा, विष्णु, महेश में, कोई अंतर नहीं है। अंतर है तो दृढ़ संकल्प शक्ति का अंतर है। चुनौती आएं और मैं कहता हूं पांच हजार आएं, हम चुनौतियां का सामना करेंगे। बस पड़े रहे, रोटी खाई ऑफिस गए अफसर की झिड़की सुनी, आकर पत्नी को सुना दी, रोटी खाई और सो गुए। दूसरे दिन भी यही काम। इसमें चुनौती है ही क्या, इस जीवन में आपने किया भी क्या? इसलिए भगवान शिव की तरह बने, जिनके गुणों का वर्णन ही नहीं किया जा सकता, इतनी अद्वितीयता है उनके व्यक्तित्व में।
ऐसे आप में गुण हों, दृढ़ निश्चितता हो, गुरु के शब्दों से आप अपने मन को घिसे और आप अद्वितीय बने दीक्षाओं के माध्यम से, साधनाओं के माध्यम से यही मेरी कामना है। और कोई रास्ता है ही नहीं, आने वाली पीढि़यों के लिए उच्चता, श्रेष्ठता का कोई रास्ता होगा ही नहीं। गुरुरूपी व्यक्तित्व का ही रास्ता रहेगा उनके पास। वहीं आपके पास शक्ति का रास्ता होगा, सत्य का रास्ता होगा, दीक्षा और साधना का रास्ता होगा, दूसरे के मन को परिवर्तित करने का रास्ता होगा, वशीकरण का, सम्मोहन का रास्ता होगा, चैतन्यता और ज्ञान का रास्ता होगा।
एक बार पार्वती ने कहा कि आने वाले युग में लोग बहुत परेशान और दुखी होंगे। एक कारण होगा कि वह अर्थ प्रधान युग होगा, धन प्रधान युग होगा और आज से सौ डेढ़ सौ साल पहले चरित्र पर बहुत ध्यान दिया जाता था कि जिसके पास चरित्र है वह सब कुछ है। जिसके पास, विद्या है वह सब कुछ है और इन सौ सालों ने यह धारणा बदल गई और यह समझा जाने लगा कि जिसके पास धन है वह सब कुछ है। यह भी सही है।
जीवन के सारे अंग अपने आप में पूर्ण होने चाहिए। संन्यासी को भी भोजन करना जरूरी होता है, भगवान शिव ने भी शादी की तो पार्वती जैसी लक्ष्मी से शादी की, भगवान विष्णु ने भी शादी की तो सागर मंथन के बाद मोहिनी रूपी लक्ष्मी से शादी की, और वे वैभवशाली बने। भगवान शिव श्मशान में रहते हुए भी कुबेरपति बने। इसलिए युग के अनुसार धन, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ आदमी के जीवन के बताए हैं कि चारों होने जरूरी हैं। धर्म यानि कि अन्दर एक धारणा शक्ति होनी चाहिए, धर्म का अर्थ यह नहीं कि हिन्दू या मुसलमान या गाय को घास डालना। धर्म का मतलब है जो गुरु कहे उसे धारण कर लें। धारयति स धर्म जो गुरु कहें उसके अनुसार करे। और गुरु कोई धोखा दे, छल करे, अपने स्वार्थ के लिए कुछ करे तो आप उसकी आज्ञा मत मानिये, वह गुरु हो ही नहीं सकता।
गुरु लालची तजो, तजो चेला अलसेला।
पिता अधर्मी तजो, तजो नालायक बेटा।।
अगर पिता अधर्मी है तो उसे भी छोड़ देना चाहिए, पुत्र नालायक हो तो उसे भी छोड़ देना चाहिए, गुरु लालची हो या शिष्य आलसी हो तो छोड़ देना चाहिए। धर्म का अर्थ यह है। और उसके बाद दूसरा पुरुषार्थ अर्थ बता दिया। अर्थ का मतलब है धन, वाहन, घर, सुख सुविधाएं। ऐसा न हो कि लोग आपको कहें कि आप तो गुरु से मिलकर आए हैं और आप खुद भूखे मर रहे हैं कि आपके पास रहने को मकान भी नहीं है। हो सकता है आपके पास मकान नहीं है मगर आप शुरुआत करेंगे तो मकान बन जाएगा। कहीं न कहीं तो शुरु करना पड़ेगा। काम का अर्थ है शादी करना, पुत्र, संतान पैदा करना और अपने जीवन में पूर्ण गृहस्थ का पालन करना। मगर गृहस्थ का अर्थ है गृहस्थ में रहते हुए पूर्ण संन्यासी रहना कि जो हो रहा है हो रहा है। आप दुखी मत होइए। कर्तव्य जरूरी है मगर चिंता मत करिये। मैं स्वयं आपके सामने उदाहरण हूं।
और मोक्ष का अर्थ है मुक्ति अर्थात् सभी समस्याओं से मुक्त हो जाएं, न कोई तनाव, न आवश्यकता, न अनिवार्यता। भोजन मिल गया तो मिल गया, नहीं मिला तो ठीक उसे मोक्ष कहते हैं। और जीवन में ये चारों अंग आवश्यक है। धर्म तब होगा जब आप रोग मुक्त होंगे। आप रोगी होकर धर्म का पालन नहीं कर सकते, मंत्र जप नहीं कर सकते, दीक्षा नहीं ले सकते और जीवन का आनन्द नहीं ले सकते। जीवन एक आनन्द की चीज है। अगर मृत्यु श्रृंगार की चीज है, मृत्यु तो ऐसी है जैसे आदमी का श्रृंगार किया जाता है, जीवन ऐसा हो तो आनन्ददायक हो। अगर भगवान ने सकल पदार्थ बनाए तो ऐसा हो कि हम उनका प्रयोग करें। इतने पेड़ बनाए, खाने के लिए फल बनाए। घूमने के लिए स्थान बनाए, वस्त्र बनाए तो हम उनका आनन्द लें। ऐसा गुरु भी क्या काम का कि शिष्य गरीब हो, दुखी हो, लोग उंगलियां उठाएं। ऐसा तो गुरु भी बेकार है, उस गुरु पर भी लांछन लगेगा।
आप आनन्द ले, धन कमाएं, मगर आप लक्ष्मी के दास मत बनिये, लक्ष्मी पति बनिये। आप मगर हो जाते हैं लक्ष्मी के दास कि लक्ष्मी मिली और तिजोरी में बंद कर दी। अब उसके बाद लक्ष्मी आपका चेहरा देखे नहीं आप उसका चेहरा देखें नहीं। बस इकट्ठे करते रहें, आप मर जाएंगे और बेटे उसको उड़ा देंगे। आप धन का प्रयोग करें, आनन्द लें। जो आया खर्च कर दिया, रवाना होते समय कहें ले बेटा सवा रूपया, मौज कर। कमाओं तुम और मौज करे बेटे, करना ही नहीं ऐसा। आप खुद खाइए, पीजिए, अपने परिवार को घुमाने ले जाइए, पर अगर संचय करके रख दिए कि मरने के बाद बेटों को दो-दो लाख रूपये दिए, तुम्हारे क्या काम आएं? और इकट्ठा करने में आनन्द ही नहीं है। आज 15 लाख रूपये है तो कल 16 लाख होंगे। वहीं रोटी वही सब्जी बस मन में इतना होगा कि एक लाख बढ़ गए। ऐसा धन नहीं चाहिए।
दोनों हाथ से उड़ाइए। जो आए उसे आप उड़ाएं, खत्म करें, मगर सही तरीके से होना चाहिए। होटलों में डांस करने से, डिस्को करने से कुछ लाभ नहीं। मैं यह नहीं कहता आप होटल में मत जाइए, डिस्को मत करिये, मगर एक संन्यासी की तरह जाइए, पैंट पहने हुए भी संन्यासी हो, कोई संन्यासी का ठेका नहीं है कि लंगोट लपेटे हुए ही संन्यासी हो। मैं यह परिभाषा भी बदल रहा हूं। केवल लंगोट लगाने वाले को संन्यासी नहीं कहते। अब संन्यासी बनने का मेरा योग है ही नहीं मगर संन्यासी बना तो पैंट टाई पहन कर संन्यासी बनूंगा। लोग कहेंगे तो कहेंगे। मैं खुद चाहता हूं कि आपको एक बार टाई पैंट पहन कर दीक्षा दूं। देखता हूं आपकी आंखों में कितना विकार आता है, देख लेना चाहता हूं। आप तटस्थ रहें, आपकी आंख में एक शालीनता हो, आंख में एक गंदगी न हो यह आवश्यक है। पार्वती ने कहा कि आने वाले पीढि़यों में रोग होगा। हर व्यक्ति को कोई न कोई रोग होगा चाहे मानसिक हो, चाहे शारीरिक हो, चाहे तनाव हो, चाहे मन में क्रोध हो। और यह कहा कि लोग अर्थाभाव से पीडि़त होंगे।
पच्चास रूपये किलो अन्न होगा तो लोग पीडि़त होंगे ही होंगे। सैकड़ों टैक्स लेने वाले होंगे तो अर्थाभाव होगा ही होगा। बहुत अच्छे एक अधिकारी हैं क्लेक्टर, वो घर में सोफा रखते हैं, नया सोफा खरीदते हैं, उस पर पेबंद लगाते हैं फिर बैठते हैं उस पर। मैंने पूछा-नया सोफा लाए उस पर यह पैबंद। उसने कहा-आप समझते नहीं है, कई लोग आते हैं गुरु जी, देखते हैं, कल मेरे ऊपर इंक्वायरी हो जाएगी गुरुजी इसलिए पेबंदी लगाया है। लाया नया हूं, पर ऐसा कर दिया है। अब वह पैसा क्या काम का उनका। आप बस निश्चिंत रहें कोई आएगा तो देखा जाएगा। सोफे पर बैठे हैं, लिख लें सोफा है मेरे पास, कही से गुरुजी ने मुझे भेंट दिया था, गुरुजी से पूछो जाकर। कोई आएगा तो मैं जवाब दे दूंगा। व्यक्ति दो तरीके से दुखी होगा? मगर भगवान शिव उनके लिए फिर क्या किया जाएगा। आने वाली पीढि़यां बहुत दुखी होंगी। और आप देख लें आज ऐसा ही हो रहा है आज की विचारधारा में और आज से कुछ वर्ष पहले कि विचारधारा में जमीन आसमान का अंतर है। आपके बच्चे समझाने पर भी समझते ही नहीं, दोनों में एक गैप है। उनकी धारणा अलग है आपकी धारणा अलग है। दोनों में एडजेस्टमेंट हो ही नहीं सकता, संभव ही नहीं है। फिर आप फालतु दुखी हों कि नहीं बेटा ऐसा करना चाहिए तो उससे कुछ नहीं होगा।
जो कर्त्तव्य है गृहस्थ का उसका पालन करिए, समझाइए, मगर आप उसमें इनवाल्व मत होइए और इसके लिए शिव भगवान ने कहा, इसके समाधान के लिए केवल शिवरात्रि पर्व पर ही मैं स्वयं गुरु में स्थापित हो कर दूर करूंगा, पार्वती तुम चिंता मत करो। और शिवरात्रि के दिन गुरु स्वयं शिवमय होकर के दीक्षा प्रदान करता है और यह मैं शास्त्र वचन कह रहा हूं कोई व्यक्तिगत बात नहीं कह रहा। क्योंकि शास्त्र में कहा है- गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरु देवो महेश्वरः और यह आज से दस हजार साल पहले का श्लोक है, कल का श्लोक तो है नहीं।
यः गुरु सः शिवः प्रोक्त:
यः शिवः सः गुरु स्मृतः
स याति नरकाम गति
जो शिव है वही गुरु है, जो गुरु है वही शिव है। इन दोनों में जो भेद समझता है वह नरक यानि दुख, पीड़ा में जाता है। और जब गुरु से दीक्षा प्राप्त होगी तो स्वयं ही जीवन के सब विकार समाप्त होंगे ही। धनाभाव, रोग, चिंता सब समाप्त होंगे। जैसा मैंने कहा पहले कि आपका स्वयं का व्यक्तित्व बनना चाहिए। और मैंने कहा कि आप क्या हैं, यह जरूरी है चाहे पुरूष है चाहे स्त्री हैं और व्यक्तित्व का अर्थ है तेजयुक्त हों, ओजस्वी हों। यह छोटी बात नहीं होगी, ये सब चीजें मिल नहीं सकती आपको। युनिर्वसिटी में नहीं पढ़ाई जाती। आपको यह विद्यालय में नहीं बताया जाता कि आपका व्यक्तित्व बनाना चाहिए। व्यक्तित्व बनेगा तो आप उच्चता तक पहुंच पाएंगे। और मैंने उदाहरण दिया। सतयुग से लगाकर आज तक का कि जिस आदमी ने अपने व्यक्तित्व के निर्माण का चिंतन किया वही व्यक्ति हमें आज स्मरण है। राम, उनके पिता दशरथ, दशरथ के पिता अज से आगे? चौथी पीढ़ी क्या है पता ही नहीं, उनका नाम ही याद नहीं क्योंकि उन्होंने खुद के व्यक्तित्व का निर्माण किया ही नहीं और जो व्यक्तित्व का निर्माण करेगा वह तो विद्रोही बनेगा ही।
मेरे शब्द आप तक पहुंचने के लिए माइक की या किसी और साधना की जरूरत नहीं है। आप तक बात पहुंचने के लिए मेरे हृदय के तार झंझनाने चाहिए और उस संगीत को आप अपने हृदय के माध्यम से सुन सकें, अपने प्राणों के माध्यम से अनुभव कर सकें और अपने जीवन में उस उत्साह को, नृत्य को, उस तन्मयता को, जीवन की पूर्णता को प्राप्त कर सकें, जो कि जीवन का एक आनन्दायक क्षण है। आपमें भी विद्रोह पैदा हो, आप दीक्षा ले सकें, साधनाएं कर सकें, ऐसा ही मैं आशीर्वाद देता हूं। शिव रात्रि का पर्व है और इस शिवरात्रि के पर्व पर मैं आपसे कहना चाहूंगा कि समाज का जहर पीना अत्यंत दुःख दायक होता है क्योंकि समाज निरन्तर अपने व्यंग्य बाणों से, अपनी कटुत्तियों से और अपने जले कटे शब्दों से आदमी को और साधक को जहर देता ही रहता है और जहर की स्वाभाविक परिमणति मृत्यु है। परन्तु कुछ विशिष्ट साधक ऐसे होते हैं, जो उस जहर को अपने कंठ में उतार कर रख लेते हैं और वह जहर भी अपने आप में अमृतमय बन जाता है।
यदि समाज में जहर नहीं हो तो अमृत का आनन्द भी अनुभव नहीं हो सकेगा। अमृत का आनन्द तभी अनुभव हो सकता है जब हम जहर को अनुभव कर सकें। छाया का अनुभव तब होगा जब हम धूप को अनुभव कर सकें। जब धूम में गर्मी में तपते हुए हम चलते हैं और छाया मिलती है तो एहसास होता है कि धूप क्या चीज है, छाया क्या चीज है। सड़ी गली व्यवस्थाओं में समाज अपने छोटे-छोटे कटघरों में कैद हो गया है, उनके पास कोई नवीन ध्यान, कोई नवीन चिंतन, कोई नवीन धारणा नहीं है। उनके पास या तो गीता की पोथी है, या पुराण है, या वेद शास्त्र हैं बस और उनको समेटते हुए वह एक जगह रूक गया है। नवीनतम प्रवाह उनके पास नहीं हैं और जो नदी बहती नहीं है या रूक जाती है, उसका पानी गंदला हो जाता है, सड़ जाता है, उसमें निर्मलता नहीं रह पाती। समाज का जहर केवल तुम ही नहीं पी रहे हो। समाज का जहर मैंने तुमसे सौ गुना ज्यादा पिया है। पिया है और अनुभव किया है और अनुभव करने के बाद भी जीवित हूं। और समाज जब मुझे जरूरत से ज्यादा जहर दे देता है तो मैं इस बात का एहसास करने लग जाता हूं कि मेरे शब्दों में कुछ और पैनापन आया है, कुछ और धारदार शब्द बने हैं जो इन पर सीधा हमला कर रहे हैं, जो उनको झकझोर रहे हैं। और जब झकझोरा जाता है आदमी को तो वह गाली देता है, तब वह जली कटी सुनाता है, तब बीच में बाधा बनकर खड़ा हो जाता है। उन बाधाओं के बीच साधक नहीं रूक सकता। आपके रूकने के लिए वह कोई स्थान नहीं है क्योंकि इस समाज ने तो सैकड़ों लोगों को रोका है।
सन्यस्त जीवन में इसी मंच पर जब मैं साधना की बारीकियों को और वेद मंत्रों को स्पष्ट कर रहा था, मैं उद्बोधन कर रहा था कि मंत्र अपने आप में घोषमय हैं और अगर मंत्र हैं तो उनका प्रभाव होना चाहिए। यदि हम सूर्य का आवाह्न एक आसन पर करें तो यह कपड़ा जलना चाहिए, सूर्य की आंच महसूस होनी चाहिए। और यदि मंत्र गलत हैं तो सूर्य यहां उपस्थिति नहीं है और अगर सूर्य उपस्थित नहीं हुआ तो फिर आपके मंत्र गलत हैं। और यदि हम नवग्रह को स्थापित करते हैं तो जहां सूर्य का आवाहन कर उसे बिठाते हैं तो अगर वहां ऊंगली झुलसती नहीं तो फिर सूर्य उपस्थिति नहीं है और अगर उपस्थित नहीं है तो मंत्र में कहीं न कहीं गलती है या मंत्र में त्रुटि है या बोलने वाले में त्रुटि है।
आनन्द रूप चिंत्यं महितं वदेयं।
नृर्त्योन्वतायं परमं स्वरूपं
ज्ञानार्थ चिंत्यमपरंमहितान् विहंस
शिवत्व रूपं परमं पदेयं।
भुर्तहरि ने इस श्लोक के माध्यम से अपना चिंतन स्पष्ट किया है कि मेरे भाग्य में तो विधाता ने बाधाएं, परेशानियां, अड़चनों की लकीरें ही लिखी हैं। मेरे जीवन में अभाव और समस्याओं की लकीरे ही लिखी हैं जिनको मैं निरन्तर पढ़ता जा रहा हूं, मगर जीवन का सौभाग्य होगा कि कोई ऐसा दिन आए जिन क्षणों में मैं पूर्ण तन्मय होकर अपनी देह को पूर्ण रूप से भुलाकर अपने गुरु के चरणों में पूर्ण रूप से समर्पित होता हुआ, उस आनन्द को नृत्य के साथ प्राप्त कर सकूं, जहां पर सारे बंधन समाप्त हो जाते हैं, जहां पर सारे व्यामोह समाप्त हो जाते हैं, जहां पर एक आनन्द का प्रवाह, एक मस्ती का प्रवाह बहता है। जब मेरे सामने गुरु उपस्थिति हों, मैं उनकी वाणी को निरन्तर सुनता हुआ उस अमृत का निरन्तर पान करता रहूं और साधना की उस स्थिति तक पहुंचू जिसे अखण्ड समाधि कहा है और जब वह क्षण मेरे जीवन में आएगा, मेरे जीवन को एक जगमगाहट, एक रोशनी, एक प्रकाश देगा।
और मैं भी भतृहरि के शब्दों के साथ आपको आशीर्वाद देता हूं कि आपके जीवन में वह क्षण तुरन्त आए जिससे जीवन प्रकाशवान हो सके, जगमगाहट से भर सके और सम्पूर्णता का बोधक हो सके।
परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी महाराज
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