हम संसार के जितने भी दृश्य आँखों से देखते हैं और जिस वाणी को कानों से सुनते हैं, जब उनसे मन जुड़ जाता है, तभी हमारे हृदय में अच्छे या बुरे संस्कार पड़ते हैं। मन के संस्कारों से ही प्रियता, अप्रियता, रूचि, अरूचि जन्म लेती है। मन का स्वभाव एवं आदतें भी संस्कारों से बनती हैं। आकर्षण भी तभी होता है, जब मनुष्य किसी के रूप, रंग या विचारों से प्रभावित होता है। जिस वस्तु के प्रति रूचि एवं आकर्षण होता है, उससे ही इन्द्रियों के साथ कर्म में मन जुड़ता है। ईश्वर की भक्ति और बंदगी करते समय हमारा शरीर तो उपस्थित रहता है, किन्तु मन को फल प्राप्त करना है वह तो वहां होता ही नहीं। अतः फल कैसे मिले?
मन से अच्छा या बुरा सोचना पुण्य एवं पाप माने जाते हैं, ये ईश्वर की पकड़ में आते हैं कानून की पकड़ में नहीं आते। शरीर से किये हुए बुरे कर्म अपराध कहलाते हैं जो दण्डनीय होते हैं, किन्तु यदि कोई व्यक्ति बुरा सोचता है, मन में गन्दे विचार रखता है, परन्तु कानून के भय से शरीर से अपराध नहीं करता, कानून की नजरों में वह भले ही शरीफ हो, किन्तु परमात्मा की नजरों में वह पापी है। इसलिये अंतः करण को निर्मल बनाना चाहिये, मन को शुद्ध रखना चाहिये। मनुष्य सांसारिक पदार्थों को प्राप्त करने में तो जागा हुआ है, किन्तु ईश्वर की प्राप्ति के प्रति सोया हुआ है, सोये हुए मनुष्य का जागे हुए ईश्वर के साथ सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता, इसलिये नाम जप एवं ईश्वर प्राप्ति के अन्य साधन मनुष्य के मन को अज्ञान की नींद में जगाने के लिये किये जाते हैं, ज्ञानरूपी प्रकाश में ही जागने से ईश्वर प्राप्ति होती है। प्रभु के नाम-सुमिरन में वह शक्ति हैं, जो जन्म-जन्मान्तरों से अन्तः करण पर पड़ी हुई पारूपी मैल को धोकर शुद्ध कर देती है।
हमारा स्थूल शरीर बार-बार मरता है, बार-बार जन्म लेता हैं किन्तु शरीर के साथ सूक्ष्म शरीर में रहने वाले मन की मौत नहीं होती। मन में रहने वाली काम, लोभ और अंहकार रूपी वासनाएं ही मनुष्य के जन्म लेने का कारण बनती है। हम ईश्वर भक्ति, नाम-जप आदि कर्म मन की वासनाओं को मारने के लिये ही करते हैं। अगर तन के साथ ही मन की मौत हो जाती तो फिर कल्याण होने में देर कहां? मिट्टी, जल और वायु के संयोग से अन्न बनता है।
अन्न से शरीर की रस, रक्त, मांस आदि सात धातुएं और पूरा शरीर बनता है। उसके बाद बचपन, जवानी, बुढ़ापे की अवस्थाओं में यात्रा करता हुआ जीव जिस मिट्टी से बना था, उसी में जा मिलता हैं। क्या यही इस प्राप्त शरीर का उपयोग हैं? अगर नहीं तो फिर अनन्त यात्रा क्रम को कौन रोक सकता हैं? उत्तर है- इस यात्रा के क्रम को मन की मौत ही रोक सकती है। एक बार जो आपने विचार कर लिया, उस पर पक्के रहो। बहुत मार्मिक बात है।
बातहिं से दशरथ मरे अरू बातहिं राम फिरे बन जाई।
बातहिं से हरिचन्द्र सहे दुःख बातहिं राज्य लियो मुनिराई।
रे मन बात विचार सदा कछु बात की गात में राख सचाई।
बात ठिकाने नहीं जिनके तिन बाप ठिकाने न जानइ भाई।।
जो पहले एक बात कहे, फिर दूसरी बात कहे, उसके बाप का ठिकाना नहीं है कि कितने बाप हैं। अतः जो बात कहो, उस पर दृढ़ रहो। चाहे तो कहो मत और कहो तो दृढ़ रहो। बात को लेकर ही दशरथ मर गये और राम वन में चले गये। दशरथ राम से कह सकते थे कि वनवास में नहीं जाना है। बात ही तो थी और क्या था? जब बात कह दी कि वनवास में जाना है तो जाना ही है। दुःख पाओ चाहे सुख पाओ, अच्छा हो चाहे गन्दा हो, भला हो चाहे बुरा हो, लोग ठीक कहें, चाहे गलत कहे, बात कह दी तो कह दी! यह मनुष्यता है। पहले एक बात करे, फिर पीछे दूसरी बात करे, वह आदमी परमात्मा की प्राप्ति नहीं कर सकता। अपनी बात में पक्का न रहने में बड़ा भारी नुकसान है। कितना नुकसान होता है, इसे आप समझते नहीं हो। अगर विचार बन गया तो बन ही गया। हरदम पक्के रहो। पक्के न रह सको तो कहो मत! कह दिया तो कह दिया, अब ठीक हो चाहे बेठीक हो, जो होगा देखा जायगा।
अर्जुन ने भगवान् से कह दिया कि कल सूर्यास्त से पहले जयद्रथ का वध न कर दूं तो अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा। भगवान कृष्ण को विचार हुआ कि बिना किसी की सलाह लिये अर्जुन ने यह केसे कह दिया। पर अर्जुन ने जो कहां, उसे पूरा करके दिखाया। भीष्म पितामाह ने भी कह दिया कि विवाह नहीं करूंगा तो उम्र भर विवाह किया ही नहीं! आपने महाभारत में पढ़ा ही होगा। अगर कह दिया तो कह दिया, अब चाहे जो हो जाय! पहले ही सावधानी से बोलना चाहिये। पहले कह दिया, फिर छोड़ दिया, फिर कह दिया, फिर छोड़ दिया-इस प्रकार बार-बार अपनी बात छोड़ते-पकड़ते रहने से स्वभाव खराब हो जाता है इसीलिये अपनी बात पर पक्के रहो, कच्चे मत रहो। अपनी सकंल्प शक्ति को बढाओं।
जो बार-बार बात कह देता है, फिर छोड़ देता है, वह कुछ प्राप्ति नही कर सकता। उसकी आदत खराब हो गयी होती है। इसलिये अपनी बात पर डटे रहो। एक बार तो मरना ही पड़ेगा। सदा जी तो सकते नहीं। अतः बात कह दी तो कह दी। अब चाहे सूर्य पूर्व की बजाय पश्चिम से निकले, पर प्रतिज्ञा नहीं छोड़नी चाहिए। ऐसा करने से वचनों में बड़ी शक्ति आती है।
शिक्षा और संस्कारों का गहरा सम्बन्ध होता है। मनुष्य जब पैदा होता है पूर्व जन्मों के अनुसार उसके मन मे कई प्रकार के संस्कार विद्यमान रहते हैं। अच्छी शिक्षा मिलने पर उसका मन शुद्ध हो जाता है। यदि ऐसा न हो तो उसका चित्त और मलिन हो जाता है, अतः यह जरूरी है कि बच्चे की उचित शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए।
विचारों का मानना है कि जो कुछ अच्छा या बुरा माता-पिता करते हैं, उसका प्रभाव बालक के मन-मस्तिष्क पर पड़ता है। बड़ी सावधानी से शिशु को शिक्षा देनी चाहिए। ताकि बड़ा होकर वह आज्ञाकारी और चरित्रवान बने। अच्छा हो यदि छोटे बच्चों के सामने हम ऐसा व्यवहार न करें, जिसके फलस्वरूप उनके मन में बुरे संस्कार उत्पन्न न हों। संस्कारों का प्रभाव बहुत प्रबल होता है। यदि ध्यान न दिया जाय तो एक ही कुसंस्कार हमारे पतन का कारण बन सकता है। आज संसार में इतनी घृणा, ईर्ष्या और हिंसा क्यों हैं? इसका मूल कारण संस्कार हैं, इसीलिये हमारे मनिषियों ने संस्कारों के प्रति सचेत रहने को कहा है। मनुष्य हर वक्त देखे कि वह क्या सोच रहा है? जैसी हमारी सोच होगी, वैसा ही काम हम करेंगे और हमारे कर्मों से ही हमारा भाग्य बनेगा। हमें प्रयत्न करना है कि हमारे संस्कार अच्छे हों, ताकि हमारा भविष्य उज्ज्वल हो।
महापुरूष अपने माता-पिता और गुरु की कृपा से ही सफल हुए हैं। अच्छे संस्कारों के कारण ही वे उन्नति के शिखर पर पहुंचे और हमारे पथ-प्रदर्शक बने। हमें उनके विचारों को अपना कर आगे बढ़ना है। उनका जीवन ही हमारा मार्गदर्शन कर सकता है। हमारे मन का अन्धकार उनकी ज्ञान रूपी ज्योति से दूर हो सकता है।
छत्रपति शिवाजी
हिन्दू पद पादशाही की स्थापना करने वाले गौ-ब्राह्मण-प्रतिपालक छत्रपति शिवाजी शाहजी भोंसले और वीर माता जीजाबाई की संतान थे। शाह जी भोंसले बीजापुर के नवाब के अधीन जागीरदार थे। यह बात जीजाबाई के मनोनुकूल नहीं थी। वे स्वयं का एक हिन्दू-राज्य चाहती थीं, जिसमें हिन्दू धर्म के संस्कारों का विस्तार हो सकें। क्योंकि नवाब के अधीन ऐसा सम्भव नहीं था। इसके लिये जीजाबाई ने महाराष्ट्र की अधिष्ठात्री देवी शिवा भवानी की आराधना की, जिसके फलस्वरूप उन्हें शिवाजी जैसा पुत्र प्राप्त हुआ।
माता जीजाबाई बालक शिवा को बचपन से ही रामायण और महाभारत की कहानियाँ तथा महापुरूषों चरित्र सुनाया करती थीं, वे उन्हें हिन्दू धर्म पर आये संकट और उसके समाधान की शिक्षा दिया करती थीं। मां द्वारा दी हुई ये शिक्षाएं ही शिवाजी में संस्कार के रूप में विकसित हुईं। उनका प्रभाव यह हुआ कि बचपन में ही शिवाजी ने गाय को पकड़कर ले जाते हुए कसाई का हाथ काटकर मानो मुगल साम्राज्य को चुनौती ही दे दी थी। आगे चलकर इन्हीं शिवाजी महाराज ने मुगल सम्राट औरंगजेब को चने चबवा दिये। उसके अफजल खाँ और शाइस्ता खाँ-जैसे सेनापति इनके खड्ग की भेंट चढ़ गये। माता जीजाबाई की इच्छा के अनुरूप इन्होंने महाराष्ट्र में हिन्दू साम्राज्य की स्थापना की। शिवाजी माता जीजाबाई का बहुत आदर करते थे और युद्ध में पकड़ी गयी ‘गौहरबान्’ नामक महिला को उन्होंने ‘मां’ कहकर सम्बोधित किया और आदर-सम्मान के साथ उसके परिवारजनों के पास भिजवा दिया। ऐसा केवल हिन्दू संस्कारों में ही सम्भव हो पाता है।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,