संसार में जब वैदिक कर्मो का, धर्म का तथा संतुलन व्यवस्था का लोप हुआ, तब भगवान विष्णु ने जगद्गुरू श्री दत्तात्रेय के अवतार ने इनका पुनः स्थापन किया। भगवान दत्तात्रेय ने यज्ञ जीवन को जाग्रत किया। संसार में जब सभी वेद नष्ट हो गए। सद्कर्मो व यज्ञ आदि का लोप आरम्भ हो गया, चारो वर्ण (ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शुद्र) एक में मिल गए और सर्वत्र वर्णसंकरता फैल गई। साथ ही जब धर्म शिथिल पड़ने लगा, अधर्म बढ़ने लगा, सत्य दब गया, मनुष्य जाति क्षीण होने लगी, ऐसे समय में महात्मा दत्तात्रेय ने यज्ञ व कर्म अनुष्ठान की विधि सहित समस्त वेदों का पुनर्रूद्धार किया। इसके साथ ही महर्षि दत्तात्रेय ने दोबारा चारों वर्णो को पृथक-पृथक अपनी मर्यादा में स्थापित किया।
भगवान विष्णु के अतवार प्रभु श्रीराम, श्री कृष्ण, बुद्ध अवतार गृहस्थाश्रमी है, लेकिन भगवान दत्तात्रेय अवधूत अवस्था में सर्वत्र विचरण करने वाले वैराग्य है। भगवान दत्तात्रेय शीघ्र प्रसन्न होकर साधको की मनोकामनाओं की पूर्ति करते है। त्रिमुखी श्री दत्तात्रेय भगवान के पूजन साधना के साथ उनके चरण पादुकाओं की पूजा का भी विशेष महत्त्व है।
भगवान दत्तात्रेय यदि प्रसन्न हो जाते है तो साधक को बुद्धि, ज्ञान, चेतना, बल, ऐश्वर्य से सरोबार कर देते है। इनकी अविचलित साधना करने से सभी प्रकार की तांत्रिक सिद्धियों की शीघ्रता से प्राप्ति हो सकती है। गंगा तट पर दत्त पादुका पूजन होता है, माना गया है वहां स्वयं भगवान दत्तात्रेय गंगा स्नान के लिये भी आते है।
श्रीमद् भागवत के अनुसार पुत्र प्राप्ति की अभिलाषा से ब्रह्मा जी के मानसपुत्र महर्षि अत्रि द्वारा व्रत करने पर ‘दत्तो मयाहमिति यद् भगवान स दतः’’ मैने अपने आपको तुम्हें दे दिया-ऐसा कहने से भगवान विष्णु ही अत्रि के पुत्र रूप में अवतरित हुए और दत्त कहलाये। अत्रिपुत्र होने से ये आत्रेय कहलाते है। दत्त और आत्रेय के संयोग से इनका दत्तात्रेय नाम प्रसिद्ध हो गया। इनकी माता का नाम अनुसूया है, उनका पतिव्रता धर्म संसार में प्रसिद्ध है। पुराणों में कथा आती है, ब्राह्माणी, रूद्राणी और लक्ष्मी को अपने पतिव्रत धर्म पर गर्व हो गया। भगवान को अपने भक्त का अभिमान सहन नहीं होता तब उन्होंने अद्भूत लीला करने की सोची।
भक्त वत्सल भगवान ने देवर्षि नारद के मन में प्रेरणा उत्पन्न की। नारद घूमते-घूमते देवलोक पहुँचे और तीनों देवियों के पास बारी-बारी जाकर कहा- अत्रिपत्नी अनुसूया के समक्ष आपका सतीत्व नगण्य है। तीनों देवियों ने अपने स्वामियों-विष्णु, महेश और ब्रह्मा से देवर्षि नारद की यह बात बताई और उनसे अनुसूया के पातिव्रत्य की परीक्षा करने को कहा।
देवताओं ने बहुत समझाया परंतु उन देवियों के हठ के सामने उनकी एक न चली। अंततः साधुवेश बनाकर वे तीनो देव अत्रिमुनि के आश्रम में पहुँचे। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। अतिथियों को आया देख देवी अनुसूया ने उन्हें प्रणाम कर अर्घ्य , कंदमूलादि अर्पित किए किंतु वे बोले -हम लोग तब तक आतिथ्य स्वीकार नहीं करेंगे, जब तक आप हमें अपने गोद में बिठाकर भोजन नहीं कराती।
यह बात सुनकर प्रथम तो देवी अनुसूया अवाक् रह गई किंतु आतिथ्य धर्म की महिमा का लोप न जाए, इस दृष्टि से उन्होंने नारायण का ध्यान किया। अपने पतिदेव का स्मरण किया और इसे भगवान की लीला समझकर वे बोली-यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो यह तीनों साधु छह-छह मास के शिशु हो जाएं। इतना कहना ही था कि तीनों देव छह मास के शिशु हो रूदन करने लगे।
तब माता ने उन्हें गोद में लेकर दुग्ध पान कराया फिर पालने में झुलाने लगी। ऐसे ही कुछ समय व्यतीत हो गया। इधर देवलोक में जब तीनों देव वापस न आए तो तीनों देवियां अत्यंत व्याकुल हो गई। फलतः नारद आए और उन्होंने संपूर्ण हाल कह सुनाया। तीनों देवियां अनुसूया के पास आई और उन्होंने उनसे क्षमा मांगी।
देवी अनुसूया ने अपने पातिव्रत्य से तीनों देवों को पूर्वरूप में कर दिया। इस प्रकार प्रसन्न होकर तीनों देवों ने अनुसूया से वर मांगने को कहा तो देवी बोलीं-आप तीनों देव मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हो। तथास्तु-कहकर तीनों देव और देवियां अपने लोक को चले गये।
कालांतर में यही तीनों देव अनुसूया के गर्भ से प्रकट हुए। ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेय श्रीविष्णु भगवान के ही अवतार है और इन्हीं के आविर्भाव की तिथि दत्तात्रेय जयंती कहलाती है।
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