जो में तुम्हें ज्ञान, चेतना दे रहा हूं वह कोई पन्नों पर या पुस्तकों में संजो के रखने की चीज नहीं। मैं तुम्हें वह चेतना दे रहा हूं जिससे तुम्हारे दिव्य चक्षु जागृत हो सकें तथा तुम उन समस्त शक्तियों को अनुभव कर सको जिनको हमने देवी-देवता कहा है।
2- और यह तभी संभव है जब तुम निरन्तर गुरु के सम्पर्क में रहों तभी वह चेतना का प्रवाह बराबर गतिशील रह सकता है और गुरु सम्पर्क में रहना एक बहुत महत्वपूर्ण क्रिया है क्योंकि जब एक सूखी खेजड़ी की लकड़ी भी एक चंदन के सम्पर्क में आ जाती है तो वह साधरण लकड़ी भी अपने आप में सुगंधमय हो जाती है।
3- गुरु चेतना का पुंज है, एक चेतना का स्त्रोत है, एक चेतना का सागर है। जब आप उसे निरंतर सम्पर्क में रहते है तो धीरे-धीरे वही चेतना आपमें भी व्याप्त होने लग जाती है। उससे जुड़कर आपका भी जीवन सुगंधित तरंगित और दिव्य हो जाता है।
4- गुरु से जुड़ने का अर्थ कोई गुरु केा पकड़ना नहीं। जुड़ने का अर्थ है उसके हृदय से अपने हृदय के तारों को जोड़ देना, अपने आत्मा को लीन कर देना, अपने मस्तिष्क और विचारो को पूर्णतः उस पर केन्द्रित कर देना। ऐसा कर देना कि फि़र आपमें और गुरु मं कोई दूरी ही न रहे, कोई भेद ही न रहे।
5- गुरु के प्राणों से जुड़ने की आवश्यकता है क्योंकि गुरु का शरीर नहीं उनके प्राण ही उस चेतना के स्त्रोत है। जब यह जुड़ाव होता है तो फि़र स्वयं आंखों से प्रेमाश्रु छलक पड़ते है। फि़र स्वयं गुरु का नाम स्मरण करने लगते है, फि़र स्वयं हृदय की धड़कन में गुरु का नाम उच्चारण होता प्रतीत होता है।
6- यह प्रक्रिया इतनी कठिन नहीं है और यो कहे तो इतनी सरल भी नहीं है। इसमें बस आवश्यकता है कि व्यक्ति अपने अहं को पूर्ण रूप से मिटा दें। केवल कहने भर मास से अहं नहीं मिटता। अहं मिटता है जब व्यक्ति स्वीकार कर लेता है कि जो कुछ उसके जीवन में घटित हो रहा है वह गुरु की इच्छा से हो रहा है।
7- ऐसी स्थिति आने पर व्यक्ति स्वयं को गुरु से अलग नहीं अनुभव करता। प्रतिक्षण वह गुरु चरणों में लीन रहता हुआ, भौतिक जीवन को भी जीता हुआ, आध्यात्मिकता से उच्चतम लक्ष्य की ओर बढ़ता रहता है।
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