जब-जब इस धरा पर धर्म की हानि हुई तो हर बार ऋषि-ज्ञानियों ने गुरु रूप में अवतरित हो कर पुनः इस सम्बन्ध को और ऊंचाइयों पर स्थापित किया और धर्म की पुर्नस्थापन की। भारतवर्ष का इतिहास साक्षी है कि कभी गुरु ने विश्वामित्र बन कर अपने शिष्य राम को ज्ञान दिया तो कभी सांदीपन बन कर कृष्ण को। द्रोणाचार्य बन कर अर्जुन को शस्त्र विद्या में पारंगत किया। अंगुलिमाल को ज्ञान के माध्यम से गोतम बुद्ध ने आनन्द जैसे शिष्य को चेतना युक्त बनाया। नारद ने डाकू रूप से वाल्मिकी को श्रेष्ठ रचनाकार बना दिया। जब यह भारतवर्ष अशांतता से पीडित हो गया तो बुद्ध रुपी गुरु ने शांति का संदेश दिया और जब लोग अकर्मण्य होकर इस देश को एक भिक्षुक के गढ़ के रुप में बदलने को आतुर थे तो शंकराचार्य बन कर लोगों की सुप्त आत्मा को जगाया और आर्य संस्कृति को पुनः स्थापित किया। यह गुरु ज्ञान रूप में इतना विशाल है कि स्वयं भगवान को भी उनकी शरण में जाना पडा।
इन्हीं महान ऋषियों ने अपने ज्ञान को आने वाली पीढियों को ज्ञान चेतना और चिंतन से सरोबार करने के लिए वेद-पुराण, उपनिषद्, मीमांसा आदि की रचनाएं की। हर किसी ने अपना ज्ञान अपने ढंग से प्रतिपादित किया, जिससे लोगों के बीच यह हक ज्ञान जन-जन तक पहुंच सके और व्यक्ति भी संत-संन्यासी स्वरूप जीवन निर्माण कर जीवन को देव रूपीमय गुरुमय बना सकें। इन पावन ऋषियों ने एक ऐसी प्रथा का निर्माण किया जिससे भारतवर्ष सम्पूर्ण विश्व का सिरमौर बना रह सकें। अपने इसी ज्ञान को जीवित जाग्रत ग्रंथ का रुप देने के लिए जो पंथ इन महान ऋषियों ने शुरु किया था वही तो पावन सम्बन्ध गुरु-शिष्य का सम्बन्ध था और इसे शिष्य पूर्णता महोत्सव के रूप में सार्थक करने की चेतना का गा है? प्रादुर्भाव किया।
कुछ ऐसा ही तो सद्गुरुदेव का भी जीवन रहा है। ई जब इस देश के लोग साधु-सन्यासियों और पूजा अर्चना से विमुख होने लगे, तब उन्होंने ज्ञान के माध्यम से गुरुतत्व का ही पुनः उत्थान किया। अकर्मणीय नास्तिकों को यह बात पुनः समझा दी कि संन्यास भाव का क्या मर्म हैं। साथ ही साथ जहां गृहस्थी अपने जीवन से परेशान थे, उन्हें भगवान पर तो दूर, खुद पर ही विश्वास नहीं रह गया था, तो उन गृहस्थों को एक नई चेतना दे कर मंत्र-तंत्र को पुनः समाज में सम्मानीय बनाया। उनका यह योगदान तो इसी बात से पता चलता है कि कल तक जो लोग मंत्र-तंत्र को ढोंग मानते थे, आज वही साधनाओं और मंत्र जप के माध्यम से भाग ले रहे हैं और अपने जीवन को हर दृष्टि से सुखभय और आनन्द से युक्त करने की चेतना प्राप्त कर रहे हैं।
हर जन्म में माता-पिता अलग मिल सकते हैं, भाई-बहन अलग मिल सकते हैं, रिश्ते-नाते मित्र हर जीवन में अलग-अलग मिलते हैं। गुरु एक शाश्वत शक्ति हें, पर गुरु हर जन्म में एक ही रहेगे। चाहे हम जितने भी जन्म ले लें। गुरु तो एक समुद्र के समान ही होता हे जो सदा अपनी बाहें फेलाए हुए नदी का इंतजार करता रहता है कि कब मुझ में नदी आकर समाहित हो जाए, अपना अस्तित्व खो कर वह सामान्य नदी स्वरूप शिष्य समुद्र बन जाए। गुरु भी अपने ज्ञान के सागर को शिष्य में एकाकार कर उसे अपने ही समकक्ष बना देते हैं। यह वह महान क्रिया है जो ह कोई और गुरु के अलावा सम्पन्न नहीं कर सकता।
राम के जाने के बाद उस युग में किसी को दूसरे राम नहीं मिले, दूसरे कृष्ण नहीं मिले, दूसरे बुद्ध, शंकराचार्य नहीं मिले। पर क्या यह हमारा सौभाग्य नहीं कि हमें सद्गुरुदेव ने परम पूज्य केलाश गुरुदेव के रूप में हमें निरन्तर ज्ञान बुद्धि, धन और चेतना से सरोबार करने जैसे व्यक्तित्व प्रदान किया, उनका प्रेम, उनकी सामीप्यता प्रदान की। क्या यह हमारा फर्ज नहीं कि हम सभी शिष्य इस गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर उनके चरणों में पहुंच कर अपना प्रेम, श्रद्धा और भाव उनके चरणों में अर्पित करें। आप सभी शिष्य भी उस नदी के ही समान हैं जो अपने अस्तित्व को समाप्त कर उस महान गुरु रुपी समुद्र में एकाकार होने के लिए आखिर व्याकुल हैं। यह अद्वितीय समुद्र भी आपको अपने आप में एकाकार करने के लिए उतना ही व्याकुल है।
आपको तो बस इस बार आना ही हे इस गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर ओर स्वयं का अस्तित्व मिटा कर विशाल -विशाल समुद्र बन कर ही जाना है इस बार! गुरु पूर्णमा न तो अवतरण दिवस है और न ही निर्वाण दिवस! यह तो एक शाश्वत दिवस हे जिस दिन एक शिष्य अपने आराध्य गुरुदेव के श्री चरणों में पहुंचता हे जिससे वह सांसारिक जीवन में अपने शाश्वतता को किस तरह ये स्थापित करना हें। वह ज्ञान प्राप्त करता हैं। और ब्रज बन कर उसके जीवन में आयी सभी दुखों-व्यथाओं, परेशानियों और प्रतिकूल परिस्थितियाँ सभी को उनके श्री चरणों में समर्पित कर देता है। उसके मन में बस यही भावना होती है, “गोविन्दं त्वदियं वस्तु, तुभ्यं समर्पयामि ‘। हे मेरे आराधय गुरुदेव, मैं जेसा भी हूं और जो भी मुझे इस संसार में प्राप्त हो रहा हे, वर आपकी कृपा से ही प्राप्त हो रहा हे ओर में वह सब आपको ही समर्पित कर रहा हूं
निर्णय आपका ही है क्योंकि गुरुदेव ने तो आप सभी शिष्यों से मिलने की अपनी तीव्र इच्छा आप सभी का आवाहन कर प्रकट कर दी है। क्योंकि आप गुरु के मानस पुत्र पुत्रियां हैं। समुद्र रूपी गुरु तो बाहें फेलाए खड़ा ही है आपके इंतजार में, क्योंकि उसे पूरा विश्वास हे कि जितनी मिलने की पीड़ा गुरु के हृदय में है, उतनी ही पीड़ा उस नदी रूपी शिष्य की भी है अपने आपको शीघ्रतिशीघ्र उस समुद्र में विसर्जन करने की, उसमें एकाकार होने की!
ऐसे दिव्य साधनात्मक समारोह में शिष्याभिषेक दीक्षा, सहस्त्रार चक्र जागरण दीक्षा, शिव तत्व चेतन्य सौभाग्य दीक्षा और रावण कृत स्वर्ण खप्पर धन लक्ष्मी दीक्षा प्रदान की जाएगी।
आप सभी को यह प्रेम भरा निमंत्रण है गुरुदेव की ओर से और आप सभी को गुरु पूर्णिमा शिविर में 20-21- 22 जुलाई को रायपुर ( छतीसगढ़ ) शिविर में आना ही है……. अरूण – अंकुश
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