एक बार ऐसे ही अपनी मस्ती में झूमते हुए कबीर राहों से गुजर रहे थे कि उन्हें सामने एक औरत चक्की में गेहूं पीसती हुई दिखाई पड़ी। उसको देखते ही कबीर एकदम से ठिठक गए और उनके मुंह से अनायास ही ये शब्द निकल पडे़ –
‘चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय।
दो पाटों के बीच में साबुत बचा न कोय ।।’
उनके मुंह से शब्द निकलते ही वे फूट-फूट कर रो पड़े। पूरा जन समुदाय उन्हें देख कर विस्मय में पड़ गया। उन्हें समझ ही नहीं आया कि भला कबीर की आंखों से आसूं की धारा क्यों बहने लगी और वो भी इतनी जोर-जोर से। लोग कबीर से पूछें भी तो कबीर क्या बताएं? उन्हें तो यह पता ही था कि उनकी भावना को ये भीड़ समझ भी नहीं सकती थी। अगर वह कहते भी तो अधिक से अधिक लोग उनका मजाक ही उड़ा सकते थे, इससे ज्यादा वो भला कबीर की सहायता भी क्या कर पाते। उस धरातल की बातें सब की समझ में आ भी कहां सकती थी। ठीक ही तो कहते है कि,
‘जाके पैर न होय बिवाई,
सो का जाने पीर पराई’
लोगों ने आपस में कानाफूसी की और कुछ समय बाद ही अपने कार्य में व्यस्त हो गये। लेकिन कवि कबीर तो अभी भी पीड़ा में ही थे। जिस तरह चातक पक्षी जमीन पर गिरे जल को नहीं पीता, उसकी प्यास तो बारिश का पानी ही बुझाता है, जिस तरह पपीहा चांद को देख कर ही तृप्ति महसूस करता है, ठीक उसी तरह ही कबीर भी कुछ ऐसे के लिये ही तड़प रहे थे जो उनके मन को शांति पहुंचा सके, उनकी प्यास बुझा सके, उनके मन को तृप्त कर सके। पर उस जन-समुदाय में ऐसा तो कोई था ही नहीं जो उनके व्याकुल मन की स्थिति को समझ सके और उन्हें शांति पहुंचा सके।
सौभाग्य से उसी समय वहां से एक ज्ञानी साधु निपट निरंजन गुजर रहे थे। कबीर को रोता देख कर वो उनके पास आए और प्रेम से पूछा, ‘क्या बात है, तुम इस प्रकार फूट- फूटकर क्यों रो रहे हो’? कबीर के कानों में ये शब्द जैसे अमृत वचन जैसे थे। उसने तुरन्त सिर उठा कर देखा तो एक दिव्य व्यक्ति सामने खड़े थे। उनको देखते ही कबीर को लगा कि जैसे कोई ज्ञान का साक्षात स्वरूप उनके सामने खड़ा था और उसने अपने मन की स्थिति व्यक्त की।
कबीर की बातें सुनकर निपट निरंजन बोले, ‘तुम व्यर्थ ही चिन्ता कर रहे हो। यदि तुम ध्यान से देखो तो तुम पाओगे कि केवल वो दाने ही पिसते हैं जो दोनों कपाटों के बीच में चले जाते हैं। वो दाने जो बीच के डंडे के पास रहते हैं उन्हें कुछ भी नहीं होता। ठीक तुम्हें भी कुछ नहीं होगा क्योंकि तुम हरि नाम के उस डंडे के पास हो जिसके पास रहने पर इस संसार रुपी चक्की में लोग नहीं पिसते।’ उनकी बात सुनकर कबीर को बहुत राहत पहुंची और वो अपने घर की ओर लौट पडे़ और प्रभु भक्ति में लीन हो गए।
एक दिन ऐसे ही चिन्तन में बैठे हुए कवि कबीर के मन में आया कि उन्होंने तो कोई गुरु बनाया ही नहीं, तो फिर यह संसार सागर कैसे पार लगेगा? ऐसा सोचकर उनका मन अत्यन्त व्याकुल हो गया। उन्होंने मन ही मन सोचा कि, ‘गुरु के बिना तो यह जीवन ठीक वैसा है जैसे शरीर प्राण के बिना, घर संतान के बिना, नारी सुहाग के बिना और वृक्ष फल के बिना। फिर यह जीवन, यह दुर्लभ मानव जीवन, जो न जाने कितनी मुश्किलों से, कितने जन्मों के बाद मिला है, वह गुरु को बिना प्राप्त किये व्यर्थ ही चला जाएगा’। हाय रे किस्मत! क्या ऐसा ही जीवन जीना मेरे भाग्य में है। ऐसा सोच कर उन्होंने यह निर्णय किया अब वह ज्ञानी गुरु को प्राप्त कर ही दम लेंगे।
उस काल में स्वामी रामानन्द की ख्याति चारों ओर फैली हुई थी। कवि कबीर ने यह निश्चय किया कि वह अब स्वामी रामानन्द को अपने गुरु के रूप में प्राप्त कर ही दम लेगे। अब तो कबीर का एक ही लक्ष्य रह गया था कि वो किस प्रकार अपने गुरु के चरणों की धूल को प्राप्त करें। भाग्य ने कबीर का साथ दिया और एक दिन उन्हें एकान्त में पाकर कबीर उनके पास पहुंचे और उनके चरणों में स्वयं को न्यौछावर कर दिया और कहा कि वह उनकी शरण में आया है और उस पर अपनी कृपा करें।
कबीर की वाणी सुनकर स्वामी रामानन्द ने अनसुना कर अपनी कुटिया में चले गए और चुपचाप अंदर बैठ गए। अपने गुरु की इस प्रक्रिया को देखकर कवि कबीर जरा भी विचलित न हुए। भला जिस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कबीर ने इतनी प्रतीक्षा की थी, उसे वो ऐसे कैसे जाने देते ? विनीत भाव में कबीर ने बाहर से ही याचना की, ‘प्रभु मैं आपकी शरण में आया हूं, मुझ पर अपनी कृपा करें।’ स्वामी रामानन्द भी भला ऐसे ही शिष्यता प्रदान करने वाले थोडे़ ही थे! गुरु ने परीक्षा लेने की सोची। उन्होंने कहा, ‘तुम एक मुस्लिम हो और मैं तुम्हें दीक्षा प्रदान नहीं कर सकता।’ गुरु की बातें सुनकर कवि कबीर समझ गए कि गुरु परखना चाहते हैं। उन्होंने गुरु के सामने प्रणिपात करते हुए कहा कि जब मैं तन, मन और वचन से आपका हो गया हूं तो फिर मैं रहा ही कहा और जब मैं ही नहीं तो मेरा कोई धर्म ही कहां रहा, मैं तो बस आपकी शरण में हूं और आपका ही हूं। ऐसा कह कर कबीर अपने घर लौट गए और गुरु की उस खुमारी में खो से गए।
जिस तरह एक प्रेमी मन अपनी प्रेमिका से एक बार मिल कर नहीं भरता, कुछ ऐसी ही स्थिति कबीर की भी होती जा रही थी। गुरु के सामने जाना धृष्टता थी, पर न जाता तो महापाप। जो भी हो, चाहे अनन्त काल तक नरक की आग में जलना पड़े, गुरु के बिना ऐसे जीने से भी क्या फायदा? ऐसा सोच कर कबीर ने निर्णय लिया कि वह गुरु से गुरु-मंत्र प्राप्त कर के ही रहेगे।
स्वामी रामानन्द नित्य प्रातः वेला में गंगा स्नान के लिए जाते थे। एक दिन प्रातः ही कबीर उस मार्ग में एक गढ़ा खोद कर उसमें लेट गए। जिस प्रकार एक कमल प्रातः होने का बेसब्री से इंतजार करता है कि कब सूर्योदय हो और वह विकसित होकर अपने सौन्दर्य से इस जग को शोभायमान करे, ठीक उसी प्रकार कबीर अपने गुरु का इंतजार करने लगे। जब स्वामी रामानन्द उस मार्ग से निकले तो उनका पैर कबीर पर जा लगा। स्पर्श होते ही उनके मुख से ‘राम-राम’ शब्द निकल पड़े। कबीर के लिए तो ये क्षण जैसे पूर्ण भाग्योदय का ही था, उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि उसके जन्मों के पुण्य फलप्रद हो गए हो, जैसे अकाल में घनघोर बरसात हुई हो, यह क्षण तो अपने आप में वचनो में बांधे ही नहीं जा सकते।
कबीर के मुख से प्रेम के वचन फूट पड़े, नतमस्तक होकर बोल उठे, ‘आपके चरणों के स्पर्श से मैं अपने सभी पापों से मुक्त हो गया हूं, आपकी वाणी सुनकर मेरी आत्मा तक कृतज्ञ हो गई है। मैं जन्म-मरण के इस चक्र से मुक्त हो पाया हूं। मेरा रोम-रोम आपका है और मैं आपकी शरण में हूं’। ऐसा कह कर कबीर अपने गुरु के सामने ही नृत्यमय हो गए और उन्हें कुछ भी आभास ही नहीं रहा। उनको ऐसा देख कर स्वामी रामानन्द अपने आप में आनन्दमय हो उठे और स्नान करने के लिए गंगा की ओर चले गए। स्वामी रामानन्द के मन में भी एक हिलोर उठ रही थी, इतना प्रेम करने वाला उन्हें पहली बार मिला था। मन ही मन सोचा, ‘इस घडे़ को आग में पकाने की जरूरत है ताकि यह आगे चल कर शीतल जल दे सके, इस सोने को आग में पकाने की आवश्यकता है ताकि यह कुंदन बन सके’।
अब कबीर पर तो एक अलग ही खुमारी छा गई थी। वो अपनी ही मस्ती में रहने लगे थे और उन्हें तो ऐसा ही प्रतीत होता जैसे गुरु उसी में आ बसे हैं। आंखों में हर पल आंसू ही छलकते रहते थे और उनमें उनके गुरु की छवि रहती थी। ये आंखें भी झपकाना अब एक तरह की सजा ही थी। एक पल भी उस छवि से वो खुद को दूर नहीं रखना चाहते थे। एक दिन कबीर अपनी ही मस्ती में घूम रहे थे, जब वहीं से स्वामी रामानन्द निकले। स्वामी रामानन्द ने आखिर कसौटी पर कबीर को परखे की ठान ली!
स्वामी रामानन्द ने बीच बाजार में गरजते हुए कबीर से पूछा, ‘तू खुद को मेरा शिष्य बताता है! बता मैंने कब तुझे दीक्षा प्रदान की और भला तेरी इस बात का कोई साक्षी भी है?’ ऐसा कह कर स्वामी रामानन्द ने कबीर के सिर पर अपना खड़ऊं दे मारा। मारते ही कबीर का सिर फूट गया और उसके सिर से खून की धारा बह निकली। सभी मुड़कर देखने को बाध्य हो गये, स्वामी रामानन्द का यह रूप तो आज तक किसी ने देखा ही न था और उधर कबीर थे जो अब भी उसी प्रकार आनन्द मग्न हो नाच रहे थे, जैसे गुरु ने खड़ऊं से नहीं, फूल फेंक कर मारा हो।
कबीर अपने सिर को झुका कर बोले, ‘हे प्रभु! जब आपने मुझे दीक्षा प्रदान की थी तो उस समय तो कोई और इतना सौभाग्यशाली था ही नहीं जो आपके अमृत वचनों को सुन पाए। पर मैंने जल, धरती, अग्नि, आकाश, देवता और पूरे ब्रह्माण्ड को साक्षी माना था। पर आज आपने अपने खड़ऊं से मेरे सिर पर स्पर्श कर यह जता दिया कि मैं आपका ही हूं और अब ये सब भी इस बात के साक्षी हैं कि मैं आपका शिष्य हूं और आप मेरे ही हैं। मेरा यह जीवन आपके चरणों में ही समर्पित है।’
कबीर के इन वचनों को सुन कर स्वामी रामानन्द का हृदय आनन्दित हो उठा। श्रेष्ठ शिष्य पाकर स्वामी रामानन्द भी पुलकित हो उठे थे। कबीर को अपने गले से लगा कर स्वामी रामानन्द बोले, ‘तुम मेरी परीक्षा में सफल हुए। मैं तुम्हें ‘राम-कृष्ण’ मंत्र दे रहा हूं जिसका तुम्हें नित्य जाप करना है।’ ऐसा कह कर स्वामी रामानन्द अपने मार्ग पर चल पडे़ और कबीर गुरु को पूर्णता से प्राप्त कर अपने आप को सौभाग्यशाली अनुभव कर रहे थे। अब कबीर को किसी की परवाह भी नहीं थी, समर्थ गुरु को प्राप्त कर भला अब जीवन में और क्या पाना शेष रह गया था। उस बाजार में उपस्थित सभी इस अविस्मरणीय घटना के साक्षीभूत तो बनें, पर गुरु-शिष्य के मिलन की उस आत्मीयता को उनमें से न जाने कितने समझ सकें, उनमें से न जाने कितने थे जो कबीर को भाव विह्वल होता देख पाए और कितने उन भावुक आंखों में छलछलाये आंसुओं को देख पाए, जिन्हें कबीर खोना नहीं चाहते थे ——- आखिर उन छलछलाई आंखों में किसी ऐसे व्यक्तित्व का बिम्ब जो था, जिसे अपनी आंखों में समाये रखना ही तो कबीर के जीवन का लक्ष्य मात्र रह गया था।
यह कबीर का समर्पण, प्रेम और गुरु भक्ति ही थी जो प्रेमवश गुरु ने उन्हें उस श्रेष्ठ स्थिति पर पहुंचा दिया कि उनके मुख से ये शब्द उच्चरित हो सकेः
गुरु गोविन्द दोऊ खडे़, का के लागु पाय,
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय।।
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