फ़ाल्गुन पूर्णिमा वह दिन है जिस दिन वर्तमान युग में होली पर्व सम्पन्न किया जाता है। इसका वर्णन विवेचन तो हमारे वैदिक साहित्य में भी आया है। ऋषियों ने तंत्र के इस अद्भुत कल्प को समझा और भगवान शिव से लेकर गुरु गोरखनाथ आदि ने इसे विशेष साधना पर्व कहा है। संसार में ऐसा कोई अभागा साधु-संन्यासी ही होगा जो होली पर विशेष साधना सम्पन्न नहीं करता हो। आइये देखें वैदिक काल में यह विशेष मुहूर्त किस प्रकार से चला आ रहा है। वैदिक साहित्य और भारतीय संस्कृति वेदों पर आधारित हैं तथा वेदों का विवेचन उपनिषद् के माध्यम से किया गया है। इन में भी सबसे प्रमुख ईशावस्योपनिषद् है और इसके प्रथम श्लोक में ही जगत की व्याख्या में लिखा है कि-
ऊँ ईशा वास्यमिद्ँ सर्व यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीया मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।
अर्थात् इस पृथ्वी पर जो जगत है वह ईश्वर के द्वारा बसाया हुआ है और इस जगत का त्याग पूर्वक भोग करना चाहिए। किसी दूसरे के धन की आकांक्षा न करते हुए स्वयं अर्जित धन से ही जीवन में, संसार में फैले हुए भोगों का आनन्द लेना चाहिए।
इस मंत्र से यह स्पष्ट है कि यह संसार धर्म और धर्म के साथ ही अर्थ प्राप्ति कर काम अर्थात् भोग के लिये बना है और जो व्यक्ति सीधा मोक्ष की ओर प्रवृत्त होता है उसे जीवन में किसी भी प्रकार के आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
भारतीय संस्कृति में विभिन्न व्रत, पर्व, त्यौहार इत्यादि की रचनाएं जीवन के चार पक्षों को ध्यान में रखते हुए ही की गई हैं। मकर संक्रान्ति का अलग महत्व है, तो होली, दीपावली, शिवरात्रि, नवरात्रि, गुरुपूर्णिमा, श्राद्ध प्रत्येक पर्व का जीवन के किसी न किसी पक्ष से सम्बन्ध है। हमारे यहां होली पर्व कि मान्यता दीपावली पर्व के समान ही महत्वपूर्ण मानी गई है और सामान्य रूप से यह मान लिया जाता है कि होली रंगों का त्यौहार है। एक दूसरे पर रंग फेंकना, उत्पात करना इत्यादि इस पर्व के साथ जोड़ दिया गया है।
मूलतः होली पर्व का महत्व अत्यन्त ही विशेष है और इसका वर्णन महर्षि जैमीनी के पूर्व मीमांसा सूत्र में तथा कत्थक ग्रहसूत्र में आया है। होली का पूर्ण नाम होलिका होलिकोत्सव है जो कि समाज के सभी वर्गों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। वास्तव में होली के दिन, जिस दिन पूर्णिमा होती है, उस दिन विवाहित स्त्रियों द्वारा अपने परिवार की सुख-शान्ति के लिये पूर्ण चन्द्र ‘‘ऋक’’ की पूजा सम्पन्न की जाती है।
किसी भी चन्द्र मास की गिनती के दो प्रकार हैं। पूर्णिमा और अमावस्या। पूर्णिमा पूर्ण चन्द्र के साथ प्रारम्भ होती है और अमावस्या से नया चन्द्रमा धीरे-धीरे अपनी कला बढ़ाता हुआ पूर्णिमा की ओर अग्रसर होता है। ‘जैमिनी सूत्र’ के अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा वर्ष का अन्तिम दिन है और इसके पश्चात् वसन्त ऋतु प्रारम्भ होती है। इस प्रकार होली का यह पूर्ण चन्द्र पूर्णिमा आनन्द पर्व कहा जाता है। इसीलिये पुराणों में इसे ‘वसन्त महोत्सव’ और ‘ काम महोत्सव’ की उपमा दी गई है। होली के सम्बन्ध में हिरण्यकश्यप की कथा से तो सभी परिचित हैं। किस प्रकार हिरण्यकश्यप ने तपस्या कर ब्रह्मा से वरदान प्राप्त किया था और जब संसार में अत्याचार अत्यधिक बढ़ गया तो भगवान को नृसिंह अवतार ले कर हिरण्यकश्यप का अंत करना पड़ा और भक्त प्रह्लाद ने राक्षस वंश में जन्म लेते हुए भी संसार में धर्म की कीर्ति फैलाई थी।
होली पर्व के साथ यह आख्यान भी जुड़ा है कि इस दिन हिरण्यकश्यप की बहन होलिका भक्त प्रह्लाद को मारने के उद्देश्य से उसे अग्नि में ले कर बैठी लेकिन भगवत् कृपा से वह स्वयं भस्म हो गई लेकिन भक्त प्रह्लाद का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकी। भक्त प्रह्लाद ने भक्ति के कारण भगवान से वरदान प्राप्त था, वे सुरक्षित रहे तथा होलिका का ही दहन हो गया। अर्थात् संसार में भक्ति, श्रद्धा और विश्वास विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी जीवित रहते हैं तथा दुराचार, पाप इत्यादि को पूर्ण रूप से नष्ट होना ही पड़ता है।
इसी के साथ एक सुन्दर कथा आती है कि ढूंढी नामक एक राक्षसी भगवान राम के पूर्वज पृथु (रघु) के राज्य में बालकों को अत्यधिक तंग करती थी और उन्हें बीमार इत्यादि बना देती थी। उसे भगवान शिव से तंत्र विद्या का वरदान था जिसके कारण से वह अदृश्य रहती थी। लेकिन भगवान शिव ने यह भी कहा था कि जहां बालकों का शोर, चंचलता इत्यादि होगी वहां तुम नहीं रह सकोगी। इसी परम्परा को निभाते हुए इस दिन बालक अत्याधिक मौज-मस्ती, चंचलता आदि करते हैं जिससे उन पर किसी प्रकार का तंत्र प्रभाव न आ सके।
होली के दिन से एक और विशेष कथा जुड़ी है कि मथुरा के राजा कंस श्रीकृष्ण का वध करना चाहते थे। इसलिये उन्होंने ‘पूतना’ नामक राक्षसी को वृंदावन भेजा। राक्षसी ने जहर पिलाकर बालक कृष्ण का वध करना चाहा और अपने शरीर का आकार विशालतम कर लिया लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना राक्षसी का दुग्ध पान करते-करते उसे शिथिल कर उसका जीवन अंत कर दिया। इसी कारण होली के दिन कृष्ण की बाल स्वरूप में विशेष पूजा सम्पन्न की जाती है।
चैतन्य महाप्रभु, जो कि भगवान कृष्ण के महान भक्त हुए और जिन्हें महाप्रभु की उपाधि दी गई, उनका जन्म होली के दिन ही हुआ और आज अत्यन्त धूमधाम से उनके जन्मोत्सव होली के दिन ही सम्पन्न किया जाता है। इसके अलावा भारत में कामदेव की पूजा होली के दिन ही सम्पन्न की जाती है और घर के आंगन में कामदेव का चित्र, मूर्ति स्थापित की जाती है तथा चंदन और आम पीस कर के प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता है। (संभवतः इसी काल से अचार का प्रचलन हुआ है क्योंकि आम खटाई और मिठास का प्रतीक माना जाता है जो जिह्वा को विशेष स्वाद देता है और आचार ग्रहण करने से काम भावना जाग्रत भी होती है।
इसके साथ ही शिव पुराण में एक अत्यन्त सुन्दर कथा आती है कि भगवान शिव अपनी तपस्या में लीन थे और मां पार्वती ने उन से विवाह करने के कई प्रयत्न किये लेकिन भगवान शिव अपनी तपस्या से नहीं हिले। तब पार्वती ने कामदेव का सहयोग लिया तथा अंनग अर्थात् कामदेव ने जब भगवान शिव की तपस्या भंग की तो उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोला और उस तीसरे नेत्र की ज्वाला से कामदेव भस्म हो गये। उसके पश्चात् कामदेव एक आकृति रूप मे नहीं रह सके और संसार में उनका स्वरूप भोग, दृष्टि, माया, इच्छा, भावना, कामना, विचार के रूप में प्रकट हुआ। जब मनुष्य में इन सारी भावनाओं में से कोई भावना जाग्रत होती है तो मनुष्य के जीवन में काम जाग्रत होता है। वास्तव में भगवान शिव ने यह लीला सृष्टि के विस्तार और स्त्री तथा पुरूषों में प्रेम की अभिवृद्धि के लिये की जिससे समान विचार वाले युवा स्त्री-पुरूष में इन भावनाओं के द्वारा आकर्षण आ सके तथा प्रणय में वृद्धि हो सकें क्योंकि प्रणय ही जीवन का आधार है। इसीलिये कामदेव को भस्म करने के उपरान्त भी भगवान शिव ने पार्वती से विवाह किया।
होली के दिन दहन क्रिया सम्पन्न की जाती है और इस दहन क्रिया में ऋग्वेद के चतुर्थ अध्याय के ‘रक्षोगान’ मंत्रों का उच्चारण किया जाता है जिससे दुष्ट आत्माओं का पूर्ण रूप से दहन हो जाये और इसीलिये होलिका दहन में नारियल, सुपारी, सिक्के दहन के लिये डाले जाते हैं क्योंकि संसार में धन अंहकार का प्रतीक है, नारियल और सुपारी अधिक बुद्धि और कुविचारों का संकेत हैं। इन का दहन कर मनुष्य अपने जीवन में शुद्ध भावना, शुद्ध विचार ला सकता है। साथ ही उसके मन में यह भावना निरन्तर जाग्रत रहती है कि धन अस्थाई है और मनुष्य जीवन के साथ उसके जीवन में धन की उपयोगिता भी समाप्त हो जाती है। इस कारण धन का उपयोग श्रेष्ठ कार्यों में किया जाना चाहिए। मनुष्य के जीवन में निरन्तर विचारों का मंथन चलता रहता है और शारीरिक रूप से नहीं तो मानसिक रूप से हम कई प्रकार अत्याचार अनाचार करते रहते हैं। इस मानसिक अशुद्धता को पूर्ण रूप से दूर करने के लिये होलिका दहन में मंत्रों के साथ विशेष पूजा कर इन सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है और दूसरे दिन प्रातः राख को मस्तक पर तिलक के रूप में लगाया जाता है जिससे जीवन में कुविचार, कुभावनाएं ना आयें और सारे पाप नष्ट हो जायें।
तांत्रिक दृष्टि से महत्व
तंत्र के आदि गुरु भगवान शिव माने जाते हैं और वे वास्तव में देवों के देव महादेव हैं। तंत्र शास्त्र का आधार यही है कि व्यक्ति का ब्रह्म से साक्षात्कार हो जाये और उसका कुण्डलिनी जागरण हो तथा तृतीय नेत्र एवं सहस्त्रार जाग्रत हो।
भगवान शिव ने प्रथम बार अपना तीसरा नेत्र फाल्गुन पूर्णिमा होली के दिन ही खोला था और कामदेव को भस्म किया था। इसलिये यह दिवस तृतीय नेत्र जागरण दिवस है और तांत्रिक इस दिन विशेष साधना सम्पन्न करते हैं जिससे उन्हें भगवान शिव के तीसरे नेत्र से निकली हुई ज्वाला का आनन्द मिल सके और वे उस अग्नि ऊर्जा को ग्रहण कर अपने भीतर छाये हुए राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह-माया के बीज को पूर्ण रूप से समाप्त कर सकें। होली का पर्व पूर्णिमा के दिन आता है और इस रात्रि से ही जिस काम महोत्सव का प्रारम्भ होता है उसका भी पूरे संसार में विशेष महत्व है क्योंकि काम शिव के तृतीय नेत्र से भस्म होकर पूरे संसार में अदृश्य रूप में व्यापत हो गया। इस कारण उसे अपने भीतर स्थापित कर देने की क्रिया साधना इसी दिन से प्रारम्भ की जाती है। सौन्दर्य, आकर्षण, वशीकरण, सम्मोहन, उच्चाटन आदि से सम्बन्धित विशेष साधनाएं इसी दिन सम्पन्न की जाती हैं। शत्रु बाधा निवारण के लिये, शत्रु को पूर्ण रूप से भस्म कर उसे राख में नष्ट कर देने की तीव्र साधनाएं महाकाली, चामुण्डा, भैरवी, बगलामुखी, धूमावती, प्रत्यंगिरा इत्यादि साधनाएं भी प्रारम्भ की जा सकती हैं तथा इन साधनाओं में विशेष सफलता शीघ्र प्राप्त होती है।
काम जीवन का शत्रु नहीं है क्योंकि संसार में जन्म लिया है तो मोह-माया, इच्छा, आकांक्षा यह सभी स्थितियां सदैव विद्यमान रहेंगी ही और इन सब का स्वरूप काम ही है। लेकिन यह काम इतना ही जाग्रत रहना चाहिए कि मनुष्य के भीतर स्थापित शिव, अपने सहस्त्रार को जाग्रत कर अपनी बुद्धि से इन्हें भस्म करने की क्षमता रखता हो। तांत्रोक्त साधनाएं वास्तव में सफलता से अधिक संबंध रखती हैं क्योंकि उसके पीछे व्यक्ति की जूझने की प्रवृत्ति होती है, जिससे सफलता मिलने की सम्भवानाएं प्रबल होती हैं। अपने समस्त विरोधाभासों के बाद भी तंत्र की सर्वोच्चता निर्विवाद रूप से सत्य है ही। वर्ष के कुछ दिवस ऐसे विशेष महत्व के होते हैं जब प्रकृति की संतुलन, प्रकृति की रहस्यमय लीला, अणु-अणु चैतन्य होने के साथ इस प्रकार का वातावरण होता है जो साधक को उसके परिश्रम का सौ गुना अधिक प्रभाव दे जाता है या स्पष्ट कहें तो प्रकृति विरोध न करने के स्थान पर सहायक और मृदु रूप में सामने आती है। प्रकृति के प्रकट स्वरूप में भी तो हम उसे दो प्रकार ही देखते हैं या तो शीतल मंद पवन या उग्र प्रचण्ड तूफान के बवन्डर, खेतों को सींचने वाला नदी का शांत जल और वहीं बाढ़ की उफनती नदी से गांव के गांव निगलने वाला रौद्र प्रवाह—-
तांत्रोक्त साधनाएं भी जहां एक ओर सौम्य हैं, वहीं अपने प्रवाह में झटके से विशाल वृक्ष को भी उखाड़ कर गिरा देने की क्षमता से युक्त भी हैं, और बिना विनाश के नव-निर्माण संभव भी तो नहीं। प्रकृति की यह उग्रता और तंत्र की प्रचण्डता के सही तालमेल का दिन ही कालरात्रि, दीपावली की रात्रि या होलिका-दहन की रात्रि होती है। प्रकृति इस दिन सामान्य स्थिति में नहीं होती। इन दिवसों के कण-कण पूरी क्षमता से कम्पनमय रहता है और साधक इन्हीं क्षणों को पकड़ने की कला जानता है।
और फिर होली का पर्व— दो महापर्वों के ठीक मध्य घटित होने वाला पर्व! होली के पन्द्रह दिन बाद चैत्र नवरात्रि का पर्व। शिव और शक्ति के ठीक मध्य पर्व और एक प्रकार से कहा जाए तो शिवत्व के शक्ति से सम्पर्क के अवसर पर ही यह पर्व आता है। जहां शिव और शक्ति का मिलन है, वहीं ऊर्जा की लहरों का विस्फोट है और तंत्र का प्रादुर्भाव है, क्योंकि तंत्र की उत्पत्ति ही शिव और शक्ति के मिलन से हुई है। यह विशेषता तो किसी भी अन्य पर्व में सम्भव ही नहीं और इसी से होली का पर्व वर्ष का श्रेष्ठ पर्व, साधना का सिद्ध मुहूर्त, तांत्रिकों के सौभाग्य की घड़ी कहा गया है।
प्रकृति में हो रहे कम्पनों का अनुभव सामान्य रूप से भले ही न किया जा सके लेकिन महाशिवरात्रि के बाद और चैत्र नवरात्रि के पहले-क्या वर्ष के सबसे अधिक मादक और स्वप्निल दिन नहीं होते?— क्या इन्हीं दिनों में ऐसा नहीं लगता है कि दिन एक गुनगुनाहट का स्पर्श देकर चुपके से चला गया है और सारी की सारी रात आंखों ही आंखों में बिता दें—-क्योंकि यह प्रकृति का रंग है, प्रकृति की मादकता, उसके द्वारा छिड़की गई यौवन की गुलाल है और रातरानी के खिले फूलों का नशीलापन है। पूरे साल भर में यौवन और अठखेलियों के ऐसे मदमस्त दिन और ऐसी अंगड़ाइयों से भरी रातें फिर कभी होती ही नहीं और हो भी कैसे सकती हैं।
तंत्र भी जीवन की एक मस्ती ही है, जिसके सुरूर से आंखों में गुलाबी डोरे उतर आते हैं, क्योंकि तंत्र को जानने वाला ही सही अर्थों में जीवन जीने की बागडोर अपने ही हाथ में रख सकता है और उसका जीवन घटनाओं या संयोगों पर आधारित न होकर उसके ही वश में होता है, उसके द्वारा ही गतिशील होता है। तंत्र का साधक ही अपने भीतर ऐसी श्रेष्ठता प्राप्त कर सकता है और उन साधनाओं को सम्पन्न कर सकता है, जो न केवल उसके जीवन को संवार दें बल्कि इससे भी आगे बढ़कर उसे ऊंचा और ऊंचा उठाने में सहायक हो।
इस साल यह पर्व 15 -16 मार्च 2014 को सम्पन्न हो रहा है। जो भी अपने जीवन को और अपने जीवन में भी आगे बढ़कर समाज व देश को संवारने की इच्छा रखते हैं, लाखों-लाखों लोगों का हित करने, उन्हें प्रभावित करने की शैली अपनाना चाहते हैं, उनके लिए तो यही एक सही अवसर है। इस दिन कोई भी साधना सम्पन्न की जा सकती है। तांत्रोक्त साधनाएं ही नहीं दस महाविद्या साधनाएं, अप्सरा या याक्षिणी साधना या फिर वीर-वैताल, भैरव जैसी उग्र साधनाएं भी सम्पन्न की जाएं तो सफलता एक प्रकार से सामने हाथ बांधे खड़ी हो जाती हैं। जिन साधनाओं में पूरे वर्ष भर सफलता न मिल पाई हो, उन्हें भी एक बार फिर इसी अवसर पर दोहरा लेना ही चाहिए।
इस प्रकार होली लौकिक व्यवहार में एक त्यौहार तो है लेकिन साधना की दृष्टि से यह विशेष तांत्रोक्त- मांत्रोक्त पर्व भी है जिसकी किसी भी दृष्टि से उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। साधक को इस दिन किसी न किसी साधना का संकल्प अवश्य ही लेना चाहिए और यदि संभव हो तो होली से प्रारम्भ कर नवरात्रि तक साधना को पूर्ण कर लेना चाहिए।
ये सब तो होली के संबंध में तथ्य हैं जिन्हें हम अपने बचपन से देखते आ रहे हैं, लेकिन ध्यान नहीं देते क्योंकि हमारा ध्यान तो अगले दिन की रंगीन होली की ओर ज्यादा रहता है, जबकि वास्तविक रूप से होली के आठ दिन होलाष्टक से होली पूर्णिमा तक सबसे महत्वपूर्ण दिवस हैं और इन आठ दिवसों में जो भी तंत्र साधना की जाये वह सफल होती है। इसलिए तांत्रिक लोग प्रतिवर्ष इस समय का बड़ा इन्तजार करते हैं। अघोर पंथ, नाथ सम्प्रदाय, औघड़ सम्प्रदाय, नागा सम्प्रदाय सभी इन आठ दिनों में विशेष साधनात्मक क्रियाएं सम्पन्न करते हैं।
इस अवसर पर आप भी कुछ कीजिए, साधना के द्वार हर उस व्यक्ति के लिए खुले हैं जो कि जीवन में आस्था रखता हैं, अपने ऋषि-मुनियों द्वारा लिखे गये मंत्रों को मानते हैं और जीवन में कुछ करना चाहते हैं। केवल भौतिकवादी जीवन से पूर्णता प्राप्ति नहीं हो सकती, क्षणिक सुख तो हो सकता है, लेकिन भीतर ही भीतर सब कुछ खाली रहता है।
अपने जीवन को अन्तंसः रूप में आनन्दमय और हर्षोल्लास युक्त बनाने की क्रिया के लिए आवश्यक है कि हम भी जीवन में नृसिंहमय बन सके। जीवन में ऐसे दिव्यतम साधनात्मक कार्यक्रम सद्गुरुदेव के आशीर्वाद से सम्पन्न हो रहे है, इसीलिए वे ही साधक-साधिकाएं शिविर में आये जो कि अपने जीवन की मलिनता को समाप्त कर, न्यून से उच्चतम बनाना चाहते है।
प्रत्येक साधक-साधिका का पंजीकरण आवश्यक है
14 मार्च 2014 शुक्रवार को सायं काल तक कैलाश सिद्धाश्रम जोधपुर पहुँचना अनिवार्य है।
बहिन, बेटियां, माताऐं किसी भी स्थिति में अकेली नहीं आयें।
सात्विक प्रसाद, भोजन और विश्राम की व्यवस्था गुरुदेव द्वारा आश्रम में ही प्रदान की जायेगी।
15 मार्च 2014 की प्रातः काल में गुरुदेव के सानिध्य में योगा, प्राणायाम, मंत्र जाप, साधना की क्रिया प्रारम्भ होगी। जिससे इस साधनात्मक शिविर का पूरा लाभ आपके जीवन में अक्षुण्ण बना रहे। इधर-उधर न भटक कर, पूरा ध्यान, चिंतन अपनी स्व उन्नति और गुरु आज्ञा पालन में लगायें।
वे ही पंजीकरण करवायें जो अपनी स्वयं की बुद्धि-ज्ञान और विवेक से जीवन में कर्मशील रहते हैं, अपने आपको तांत्रोक्त शक्ति से युक्त करना चाहते है। पूर्व में ही पंजीकरण अनिवार्य है ताकि पंजीकरण राशि में आप ही से सम्बन्धित तांत्रोक्त साधना सामग्री और बगलामुखी-धूमावती सायुज्य नृसिंह दीक्षा की क्रिया आपके नाम से प्रारम्भ की जा सके और रस राज होली महोत्सव पूर्णिमा दिवस पर साधना और दीक्षा प्रदान कर आपके जीवन को पूर्णमय बनाने की क्रिया सम्पन्न हो सके। जिससे आने वाला नववर्ष श्रेष्ठमय बन सके।
इस पंजीकरण राशि में ठहरने की व्यवस्था, सात्विक भोजन-प्रसाद, साधना सामग्री का शुल्क सम्मिलित है।
(पंजीकरण शुल्क: 2400/-)
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