भगवान के अवतारों के प्राकट्य स्थल, ब्रह्मा आदि विशिष्ट देवताओं की यज्ञ भूमियाँ और क्षेत्र, विशिष्ट नदियों के संगम एवं पवित्र वन, पर्वत, झील, झरने तथा प्रभावशाली साधनारत संत, भक्त, ऋषि, मुनि, महात्माओं की तपस्थलियों और साधना के क्षेत्र आदि तीर्थ कहे जाते हैं। तीर्थों में जाने से सत्संग के साथ-साथ वहां के पूर्वोक्त सभी तत्त्वों के सूक्ष्म तेजस्वी संस्कार उस भूमि से उपलब्ध होते हैं और पिछले पाप दोष नष्ट होकर, पुण्यों का संचय होता है।
श्रद्धा-विश्वास से तीर्थ का फल बढ़ता है, तीर्थ में जाने वाले तथा रहने वाले को परिग्रह, काम-क्रोध, लोभ-मोह, दम्भ, परनिन्दा और ईर्ष्या-द्वेष आदि विषम स्थितियों से निवृत्ति प्राप्त होती है। पवित्र-तेजमय साधनारत भूमि स्थान की तीर्थ यात्रा करने से जो भी पूर्व जन्म में या इस जन्म में पाप किये हैं उनसे पूर्णरूपेण मुक्ति प्राप्त होती है और जीवन में पुण्योदय की वृद्धि होती है, इसके फलस्वरूप भाग्योन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। शुद्ध भाव से धर्माचरण को बढ़ाते हुए तीर्थों की यात्रा करनी चाहिये।
जिसके द्वारा मनुष्य पापों से मुक्त हो जाये, उसे तीर्थ कहते हैं। भारतवर्ष के प्रत्येक, प्रदेश, नगर और ग्राम में तीर्थ विद्यमान हैं। वेदों की दृष्टि से तो भारत का अणु-रेणु तक तीर्थ स्वरूप है।
जिस प्रकार शरीर में मस्तक, हस्त, हृदय आदि कुछ अंग पवित्र माने गये हैं, उसी प्रकार पृथ्वी में भी कुछ विशेष स्थान पवित्र माने गये हैं। कहीं-कहीं भू-भाग के अद्भुत प्रभाव से, पवित्र नदियों के सानिध्य से ऋषि-मुनियों तथा संत-महात्माओं की तपोभूमि अथवा भगवद्वतारों की लीला-भूमि होने से यह पुण्यप्रद हो जाती हैं। जिस तरह से सात प्रधान पुरी स्वरूप में तीर्थ है। सप्त पुरियों में मुक्ति प्रदान करने की शक्ति उनमें सदा संनिहित चैतन्य रज स्वरूप के कारण ही है। जिससे तीर्थ यात्री का जीवन पापों-दोषों तथा न्यूनताओं से मुक्ति प्रदान करने में सहायक रहता है।
वस्तुतः तीर्थों की ऐसी महिमा ही उनका निरन्तर सेवन और इस जीवन के एकमात्र उद्देश्य-भगवत की प्राप्ति के लिये प्रेरित करने वाली है। इसीलिये संतजनों द्वारा सेवित पवित्र स्थानों-तीर्थों में जाकर सत्संग करने, यज्ञ-हवन आदि करने से, धार्मिक अनुष्ठान तथा दान आदि करने और पवित्र वातावरण में विचरण करने की आज्ञा दी है।
जब हमें सही गुरुरूपी मार्ग दर्शन के साथ-साथ ज्ञान चिंतन प्राप्त हो और श्रेष्ठ गुरु के सानिध्य में उक्त स्थितियों को आत्मसात करने से ही धर्म-अर्थ-काम, प्रेम जीवन की अभिलाषाओं और इच्छाओं और भौतिक सुखों की प्राप्ति के साथ-साथ श्रेष्ठतम, साधनात्मक चेतना प्राप्त होती है।
सद्गुरुदेव की जन्मस्थली की यात्रा जिन्होंने सही अर्थों में हृदय भाव से गुरु को धारण किया है और आत्मीय स्वरूप में गुरु मंत्र को स्थापित किया है, ऐसे समर्पित साधकों और शिष्यों की निश्चित रूप से इच्छा रहती होगी कि अपने प्राणेश्वर, हमारे सिद्धेश्वर और शाश्वत रूप में निरन्तर-निरन्तर विद्यमान रहकर हमें प्रत्येक क्षण जीवन में आगे बढ़ने का चिंतन और भाव देते हैं। हमारे इष्ट स्वरूप सद्गुरुदेव श्री नारायण दत्त श्रीमाली जी का जन्म जोधपुर शहर से 60 किलोमीटर दूर खरटियाँ मठ गाँव में हुआ। हमनें सद्गुरुदेव को साक्षीभूत रूप में देखा है और इस जीवन में पल-पल उनकी चेतना से हम अभिभूत होते रहे हैं।
बचपन से ही गुरुदेव दयालु एवं साधु प्रकृति के थे तथा पूरे परिवार के लाडले थे, हमेशा पूजा-पाठ करना, संध्या-वन्दना वेदाध्ययन करना, सस्वर तथा मधुर कंठ से शिव की स्तुति तथा दुर्गा सप्तशती का पाठ करना उनका नित्य नियम था। किसी को दुःख या विपत्ति में तो वे देख ही नहीं सकते थे। जब भी उन्हें ज्ञात होता कि गांव में कोई बीमार है या कष्ट में हैं, तो स्वयं जाकर उसकी सेवा-सुश्रुषा करते, यथा संभव सहायता करते और सांत्वना देते। पशुओं के प्रति तो वे जरूरत से ज्यादा दयार्द्र रहते, घर में जो सात गायें थी, उन्हें भूसा-पानी देते, नित्य पक्षियों को दाना, अपंग को भोजन तथा दुखियों की सेवा कर्म स्वरूप में ही करते थे। इसीलिए गांव में उनका नाम ‘साधु महाराज’ पड़ गया था।
शिक्षा प्राप्त करने हेतु सद्गुरुदेव लूनी आ गये उच्च माध्यमिक शिक्षा पूर्ण होते-होते परिवार की विषम परिस्थितियों और पालन-पोषण हेतु विवश होकर अध्यापन का कार्य प्रारम्भ कर दिया, हर समय उन्हें आत्मिक भाव विचार आते थे कि वह कोई ऐसा कार्य करना चाहते है, जो समाजोपयोगी हो, जिससे समाज का नूतन निर्माण हो और जिससे समाज के आधारभूत बालकों का चारित्रिक और नैतिक विकास हो साथ ही वे दिव्य पौरूषवान बन सके।
एक दिन सद्गुरुदेव की मुलाकात एक साधु से हुई और उन्होंने कहा की नारायण तुम्हारा जीवन का मार्ग प्रशस्त है, तुम्हारे जीवन का एक-एक क्षण कीमती है, उसे ऐसे ही सामान्य जीवन जीते हुये और सोच-विचार में व्यतीत करना उचित नहीं है, तुम्हारा जीवन केवल परिवार के लिए ही नहीं है, अपितु पूरे देश और विश्व रूपी परिवार के लिए है। तुम्हें संकल्प के साथ आगे कदम बढ़ाना है, वेदो-उपनिषदो के ज्ञान को साथ ही ज्योतिष को सही स्थान पर स्थापित करना हैं, मंत्र-तंत्र जो लुप्त हो रहे हैं, उन्हें पुनर्जीवित करना है और संसार को इस क्षेत्र में एक नई दिशा-दृष्टि प्रदान करनी है। इसके लिए कर्म-क्षेत्र के साथ-साथ संन्यसवत् जीवन भी परम आवश्यक है जितनी ही जल्दी इस सम्बन्ध में निर्णय ले लोगे, उतनी ही राष्ट्र हित में ठीक रहेगा।
यह बात सभी को ज्ञात थी कि सद्गुरुदेव एक महान विभूति के सच्चिदानन्द जी के प्रमुख शिष्य है। वास्तव में उनका शिष्य होना ही अपने आप में पूर्णता है। और उनकी अभ्यर्थना करते हुए एक मत से प्रस्ताव पास किया कि आज के युग में परमहंस स्वामी सच्चिदानन्द के प्रमुख शिष्य सद्गुरुदेव मंत्र के क्षेत्र में निर्विवाद रूप से सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व हैं और उन्हें मंत्र पुरूष कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
औघड़ों और तांत्रिकों के साथ सद्गुरुदेव कुछ महिनों के अन्तराल तक रहे और उन्हें तंत्र साधना का प्रारम्भिक ज्ञान दिया। लगभग छः-सात वर्षों बाद तांत्रिक क्षेत्र में वे साधनायें और अमूल्य सिद्धियां सिखाई थी, जो दुर्लभ कही जा सकती है।
कई साधुओं, संन्यासियों, तांत्रिको एवं सिद्ध संतो के सम्पर्क में सद्गुरुदेव रहे उनसे जो कुछ साधनायें सिद्ध की उनमें से कुछ इस प्रकार है-वशीकरण, मोहन, आकर्षण, उच्चाटन, आपत्ति उद्धारक बटुक भैरव तंत्र, शत्रु स्तम्भन, गति स्तम्भन, क्षुधा स्तम्भन, निद्रा स्तम्भन दशवाराही, वार्ताली, इच्छा प्राप्ति क्रिया, कालिका, भैरव, फेत्कारिणी चेटक आदि सैंकड़ो-सैंकड़ो साधनायें। परन्तु सभी उच्च कोटि की विद्यायें और सिद्धियां परम पूज्य गुरुदेव सच्चिदानन्द जी से प्राप्त हुई। उन्होंने परिश्रम एवं साधना कर मंत्र एवं ज्योतिष का उत्थान किया है।
वे न केवल एक श्रेष्ठ मंत्रज्ञ, तंत्रज्ञ साथ ही श्रेष्ठ ज्योतिषी भी थे। उन्होंने अपने जीवन काल में ज्योतिष पर अनेकों शोध किए और उन्हें पूरे विश्व के लाभार्थ इस समाज को पुस्तकों के द्वारा जनमानस तक पहुंचाया। उनके द्वारा प्रस्तुत की गई प्रत्येक साधना पूर्ण प्रामाणिक एवं सरल थी जिससे अनेकों लोगों को आजीविका प्राप्त हुई।
साथ ही अपने जीवन में आयुर्वेद और पारद पर भी अनेकों शोध किए और भारत की लुप्त होती हुई इस विद्या को पुनः समाज की भलाई के लिए प्रस्तुत किया। उनके संन्यास जीवन में यह बात प्रसिद्ध थी कि यदि कोई मरता हुआ इन्सान भी सद्गुरुदेव के आश्रम आ जाता था, तो उसको पुनः जीवन दान मिल जाता था। ऐसे सद्गुरु रूपी दिव्य पुरूष की जन्म स्थली का जीवन में एक बार अवश्य ही दर्शन कर उस भूमि के रज को अपने भाल पर लगाकर अपने जीवन में भाग्योदय की चेतना की प्राप्ति की जा सके।
उस दिव्य जन्म भूमि की तीर्थ यात्रा 12 ज्योर्तिलिंगों और 52 शक्तिपीठों से भी अधिक अलौकिक और दिव्यतम है क्योंकि सद्गुरुदेव का चिंतन करते हुये ही हम सांसारिक जीवन में अग्रसर और गतिशील रह सके।
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