कृष्ण के नाम से आज समस्त विश्व परिचित है। जन-मानस में जो कृष्ण की छवि है, वह उन्हें ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित करती है और उनके ईश्वर होने से अथवा उनमें ‘ईश्वरत्व’ के होने से इन्कार भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि जिन कलाओं का आरम्भ ही अपने-आप में ईश्वर होने की पहचान है— फिर वे तो सोलह कला पूर्ण देव पुरूष हैं। यहां पर हैं शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है, क्योंकि दिव्य एवं अवतारी पुरूष सदैव मृत्यु से परे होते हैं। वे आज भी जन-मानस में जीवित ही हैं।
भिन्न-भिन्न स्थानों पर आज भी ‘कृष्णलीला’, ‘श्रीमद् भागवत कथा’ तथा ‘रासलीला’ जैसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है और इन कार्यक्रमों के अन्तर्गत कृष्ण के जीवन पर तथा उनके कार्यों पर प्रकाश डालते हैं। किन्तु सत्य को न स्वीकार करने की तो जैसे परम्परा ही बन गई है, इसीलिए तो आज तक यह विश्व किसी ‘महापुरूष’ का अथवा ‘देव पुरूष’ का सही ढंग से आकलन ही नहीं कर पाया। जो समाज वर्तमान तक कृष्ण को नहीं समझ पाया, वह समाज उनकी उपस्थिति के समय उन्हें कितना जान पाया होगा, इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है।
सुदामा जीवन पर्यन्त नहीं समझ पाये कि जिन्हें वे केवल मित्र ही समझे थे, वे कृष्ण एक दिव्य विभूति हैं और उनके माता-पिता भी तो हमेशा उन्हें अपने पुत्र की ही दृष्टि से देखते रहे तथा दुर्योधन ने उन्हें हमेशा अपना शत्रु ही समझा।
इसमें कृष्ण का दोष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कृष्ण ने तो अपना सम्पूर्ण जीवन पूर्णता के साथ ही जिया। कहीं वे ‘माखन चोर’ के रूप में प्रसिद्ध हुए तो कहीं ‘प्रेम’ शब्द को सही रूप से प्रस्तुत करते हुए दिखाई दिये। कृष्ण के जीवन में राजनीति, संगीत जैसे विषय भी पूर्णरूप से समाहित थे और वे अपने जीवन में षोडश कला पूर्ण होकर ‘पुरूषोत्तम’ कहलाए। जहां उन्होंने प्रेम, त्याग और श्रद्धा जैसे दुरूह विषयों को समाज के सामने रखा, वहीं जब समाज में झूठ, असत्य, व्याभिचार और पाखंड का बोलबाला बढ़ गया, तो उस समय कृष्ण ने जो युद्धनीति, रणनीति तथा कुशलता का प्रदर्शन किया, वह अपने-आप में आश्चर्यजनक ही था।
कुरूक्षेत्र-युद्ध के मैदान में जो ज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को प्रदान किया, वह अत्यन्त ही विशिष्ट तथा समाज की कुरीतियों पर कड़ा प्रहार करने वाला है। उन्होंने अर्जुन का मोह भंग करते हुए कहा-
‘हे अर्जुन! तू कभी शोक करता है और कभी अपने-आप को विद्वान भी कहता है। परन्तु जो विद्वान होते हैं, वे तो जो जीवित हैं, उनके लिए और जो जीवित नहीं हैं, उनके लिए भी शोक नहीं करते।’ इस प्रकार जो ज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को दिया, वह अपने-आप में प्रहारात्मक है और अधर्म का नाश करने वाला है।
कृष्ण ने अपने जीवनकाल में शुद्धता, पवित्रता एवं सत्यता पर ही अधिक बल दिया। अधर्म, व्याभिचार, असत्य के मार्ग पर चलने वाले प्रत्येक जीव को उन्होंने वध करने योग्य ठहराया, फिर वह चाहे परिवार का सदस्य ही क्यों न हो और सम्पूर्ण महाभारत एक प्रकार से पारिवारिक युद्ध ही तो था।
कृष्ण ने स्वयं अपने मामा कंस का वध कर, अपने नाना को कारागार से मुक्त करवा कर उन्हें पुनः मथुरा का राज्य प्रदान किया और निर्लिप्त भाव से रहते हुए कृष्ण ने धर्म की स्थापना कर सदैव सुकर्म को ही बढ़ावा दिया। कृष्ण का यह स्वरूप समाज सहज स्वीकार नहीं कर पाया, क्योंकि इससे उनके बनाए हुए तथाकथित धर्म-आचरण, जो कि स्वार्थ को बढ़ावा देने वाले थे, उन पर सीधा आघात था। समाज की झूठी मर्यादाओं को खंडित करने का साहस कृष्ण के बाद कोई दूसरा पुरूष नहीं कर पाया, क्योंकि जिस मार्ग पर कृष्ण ने चलना सिखाया, वह अत्यन्त कंटकाकीर्ण तथा पथरीला मार्ग है और उस पर चलने का साहस वर्तमान तक भी कोई नहीं कर पाया। उन्होंने अपने जीवन में सभी क्षेत्रों को स्पर्श करते हुए वीरता को, कर्मठता को, सत्यता को विशिष्ट स्थान प्रदान किया।
कृष्ण ज्ञानार्जन हेतु सांदीपन ऋषि के आश्रम में पहुंचे, तब उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पण कर ज्ञानार्जित किया, गुरु-सेवा की, साधनाएं की और साधना की बारीकियों व अध्यात्म के नये आयाम को जन-सामान्य के समक्ष प्रस्तुत किया। यह तो समय की विडम्बना और समाज की अपनी ही एक विचारशैली है, जो कृष्ण की उपस्थिति का सही मूल्यांकन नहीं कर पाया।
श्रीमद् भगवत् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जिस प्रकार योगविद्या का उपदेश दिया और उसकी एक-एक शंकाओं का समाधान करते हुए, उसमें कर्त्तव्ययुक्त कर्म की भावना से जाग्रत किया। कृष्ण द्वारा दी गई योगविद्या जिसमें कर्मयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग के साथ-साथ सतोगुण, तमोगुण, रजोगुण का जो ज्ञान दिया, उसी के कारण आज गीता भारतीय जनजीवन का आधारभूत ग्रंथ बन गई है, इसीलिए तो भगवान श्रीकृष्ण को ‘योगीराज’ कहा जाता है।
कृष्ण जन्माष्टमी भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण-दिवस है और भगवान श्रीकृष्ण को षोडशकला पूर्ण व्यक्तित्व माना जाता है। जो व्यक्तित्व सोलह कला पूर्ण हो, वह केवल एक व्यक्ति ही नहीं, एक समाज ही नहीं, अपितु युग को परिवर्तित करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, और ऐसे व्यक्तित्व के चिंतन, विचार और धारणा से पूरा जन समुदाय अपने आप में प्रभावित होने लगता है।
वाक्सिद्धि- जो भी वचन बोले जाएं, वे व्यवहार में पूर्ण हों, वे वचन कभी व्यर्थ न जायें। प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक्सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप और वरदान देने की क्षमता होती है।
दिव्य दृष्टि- दिव्य दृष्टि का तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिंतन किया जाये, उसका भूत, भविष्य, और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना है, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली है, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्य दृष्टियुक्त महापुरूष बन जाता है।
प्रज्ञा सिद्धि- प्रज्ञा का तात्पर्य यह है कि मेधा अर्थात् स्मरण शक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि। ज्ञान से सम्बन्धित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता है वह प्रज्ञावान कहलाता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बन्धित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता है।
दूरश्रवण- इसका तात्पर्य यह है कि भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता।
जलगमन- यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण है। इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता है, मानो धरती पर गमन कर रहा हो।
वायुगमन- इस सिद्धि से व्यक्ति अपने शरीर को सूक्ष्म रूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता है, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता है।
अदृश्यकरण- अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्म रूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना, जिससे स्वय की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता है।
विषोका- इसका तात्पर्य है कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना। एक स्थान पर अलग रूप है, दूसरे स्थान पर अलग रूप है।
देवक्रियानुदर्शन- इस कला का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता है। उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बना कर उचित सहयोग लिया जा सकता है।
कायाकल्प- कायाकल्प का तात्पर्य है शरीर परिवर्तन। समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती है, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव रोगमुक्त और यौवनवान ही बना रहता है।
सम्मोहन- सम्मोहन का तात्पर्य है सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया। इस कला से पूर्ण व्यक्ति मनुष्य, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता है।
गुरुत्व- गुरुत्व का तात्पर्य है गरिमावान। जिस व्यक्ति में गरिमा होती है, ज्ञान का भंडार होता है और देने की क्षमता होती है, उसे गुरु कहा जाता है और भगवान कृष्ण को तो जगत्गुरु कहा गया है।
पूर्ण पुरूषत्व- इसका तात्पर्य है अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना। श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था जिसके कारण उन्होंने ब्रजभूमि से राक्षसो का संहार किया। तदन्तर कंस का संहार करते हुए पूरी ब्रजभूमि को ज्ञान चेतना की दिव्यता से युक्त कर देवमय भूमि निर्मित की और शत्रुओं का संहार कर आर्याव्रत में पुनः धर्म की स्थापना की।
सर्वगुण सम्पन्न- जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्तित्व में समाहित होते हैं, जैसे-दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल तेजस्विता इत्यादि। इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय माना जाता है और इसी प्रकार वह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता है।
इच्छा मृत्यु- इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता है। काल का उस पर किसी प्रकार कोई बन्धन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता है।
अनूर्मि- अनूर्मि का अर्थ है जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो।
यह समस्त संसार द्वन्द्व-धर्मों से आपूरित है। जितने भी यहां प्राणी हैं, वे सभी इन द्वन्द्व-धर्मों से वशीभूत हैं, किन्तु इस कला से पूर्ण व्यक्ति प्रकृति के इन बन्धनों से ऊपर उठा हुआ होता है।
भगवान श्रीकृष्ण में ये सभी सोलह कलाएं पूर्णरूप से विद्यमान थी और भौतिकता एवं आध्यात्मिकता का पूर्ण संयोग उनके पूरे जीवन में रहा। इसी कारण वे जनमानस के आदर्श बन सके और ऐसे ही महापुरूषों की गाथा का गुणगान करके ही, उनकी पूजा आराधना कर, उनके आदर्शों को जीवन में उतार कर, जीवन को धन्य बना सकता है।
श्रीकृष्ण को भगवान के साथ-साथ जगत्गुरु भी कहा गया है और गुरु का तात्पर्य है देने वाला। कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर केवल भक्ति ही नहीं, पूर्ण विधि-विधान सहित साधना सम्पन्न कर, कृष्ण के जीवन चरित्र और सद्गुणों को भीतर उतारा जाये, तो कोई कारण नहीं कि व्यक्ति जीवन में असफल हो।
आवश्यकता है केवल दृढ़ निश्चय की, विश्वास की, श्रद्धा की। इन भावनाओं के साथ साधना करने पर जीवन में योगमय क्रियाओं की प्राप्ति निश्चय ही संभव हो पाती है।
प्रत्येक व्यक्ति की अपने जीवन में यही महत्वकांक्षाएं रहती हैं कि वह समाज में पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, यश प्राप्त करे। आपके जीवन में सभी पाप-दोष, रोग-शोको का शमन हो सके और भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में निरन्तर उन्नति की ओर गतिशील रहते हुए श्रेष्ठता प्राप्त कर सकें इस हेतु कृष्ण जन्मोत्सव के पर्व पर आप अपने किन्हीं मित्रों, रिश्तेदारों और सगे-सम्बधियों को तीन पत्रिका सदस्य बनाने पर आपको सांदीपन कृष्ण सम्मोहन शक्ति दीक्षा व साधना सामग्री उपहार स्वरूप प्रदान की जायेगी। जिससे की साधक कृष्णरूपी सोलह कलाओं से युक्त हो सके।
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