त्रि-शक्ति का तात्पर्य है ज्ञान, शक्ति, क्रिया शक्ति और इच्छा शक्ति। इन तीनों का समन्वित स्वरूप ही शक्ति स्वरूप कहा गया है। नवरात्रि में भी त्रि-शक्ति साधना विशेष रूप से सम्पन्न की जाती है। मूल रूप से ज्ञान शक्ति सरस्वती के माध्यम से प्रकट होती है। क्रिया शक्ति महाकाली के रूप में स्पष्ट होती है और इच्छा शक्ति भगवती महालक्ष्मी के रूप में स्पष्ट होती है। विस्तृत विवेचन से पहले यह जान लेना चाहिए कि जगत का आधार ज्ञान है, क्रिया है अथवा धन है? वास्तव में तीनों के समन्वित रूप से ही यह संसार चक्र चल रहा है। जहां भी एक पक्ष भी कमजोर हो जाता है तो दूसरा पक्ष पूर्ण रूप से सफलता नहीं दे सकता हैं अतः जीवन में आवश्यक है कि हम ज्ञान, क्रिया एवं इच्छा तीनों को समन्वित करें।
जीवन का आधार ही ‘ज्ञान’ है क्योंकि ज्ञान के बिना क्रिया और इच्छा फलीभूत हो ही नहीं सकती है। प्रश्न यह उठता है कि ज्ञान की परिभाषा क्या है?
1- क्या पुस्तकीय ज्ञान को ही ज्ञान कहा जा सकता है।
2- क्या डिग्री प्राप्त करना ही ज्ञान की परिभाषा है।
3- क्या योग्य गुणी व्यक्तियों के पास बैठकर प्राप्त किया हुआ ज्ञान ज्ञान कहलाता है?
4- क्या किसी एक विद्या में निपुणता ज्ञान कहलाता है?
5- क्या श्रेष्ठ वक्ता बनना ज्ञान की परिभाषा में है?
6- क्या दूसरों को सम्मोहित कर देना ज्ञान में आता है?
7- क्या नृत्य, संगीत, गायन, काव्य, इत्यादि ज्ञान है?
अर्थात् वेद शास्त्र पढ़ने से या ऊंची शिक्षा प्राप्त करने से मनुष्य को पुस्तकीय ज्ञान हो जाता है परन्तु यदि वह बुद्धिहीन है तो उस ज्ञान का उपयोग नहीं कर सकता।
जिसके पास स्वयं बुद्धि नहीं है उसको शास्त्र क्या कहेगा जिसकी आंखें ही फूटी हो तो उसके लिये दर्पण भला किस काम का?
बुद्धिमान मनुष्य विद्वान न होने पर भी समझदारी की बात करता है। वह व्यवहार कुशल होता है। बुद्धिहीनों को कोई नहीं पूछता क्योंकि उनकी सारी बातें मूर्खतापूर्ण ही होती हैं। अतः यह स्पष्ट है कि ज्ञान का आधार बुद्धि है और बुद्धि मनुष्य के मस्तिष्क से प्रकट होती है। बुद्धि अर्थात् उस तत्व को प्राप्त कर लेना जो जीवन में साहस प्रदान करे और उससे जोखिम उठाने की शक्ति प्रदान करें। इसीलिये सामान्य जीवन में भी साहसी व्यक्ति को बुद्धिमान माना गया है।
उद्यम, साहस, धैर्य, विद्या, बुद्धि और पराक्रम, ये छः तत्व जहां होते हैं वहां भाग्य को बदल सकता है और उसके कार्य सफल हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि किसी दुष्कर कार्य को सफल बनाने के लिए साहस के अलावा अन्य गुणों की भी आवश्यकता होती है। निरे जोश में आकर या हेकड़ी जताने के लिए किया गया कार्य साहस नहीं अपितु दुस्साहस होता है।
ज्ञान व्यक्ति को धैर्य प्रदान करता है, उसे चतुरता प्रदान करता है और इसके साथ ही उसके सोचने समझने के साथ क्रिया की शक्ति में भी विस्तार करता है। जब ज्ञान और विद्या से युक्त शक्ति क्रिया और इच्छा करते हैं तो वह कार्य अवश्य ही परिपूर्ण होता है।
तंत्र शास्त्र में दस देवियों को दसमहाविद्या कहा गया है देवी के मंत्र का नाम भी विद्या है।
जो मनुष्य विद्वान होता है या किसी विद्या का धनी होता है वह ख्याति प्राप्त कर लेता है, अर्थात् लोक-प्रसिद्ध हो जाता है और उसकी ख्याति बढ़ती चली जाती है। यश या कीर्ति उसी को प्राप्त होती है जो जीवनकाल में लोक-कल्याण के चिरस्थायी काम कर जाता है या जिसका जीवन ऐसा होता है कि लोग उससे सदा प्रेरणा ग्रहण करते रहें। वीरों, देश-विजेताओं तथा किसी क्षेत्र में उत्कृष्टता प्राप्त करने वालों के नाम इतिहास के पृष्ठों में ही लिखे मिलते हैं परन्तु मनुष्यों को सीधे-सच्चे मार्ग पर चलने का उपदेश देने वालों के नाम लोगों की जबान पर रहते हैं। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, यीशु, मोहम्मद, नानक, कबीर आदि के नाम सदा चमकते रहेंगे। वाल्मीकि, तुलसी, कालिदास, शेक्सपीयर, शेख सादी की कृतियों को लोग नहीं भूलेंगे।
साधक जीवन में ज्ञान रूपी सिद्धि प्राप्त करें, बुद्धि रूपी सिद्धि प्राप्त करें, उद्यम रूपी शक्ति प्राप्त हो, साहस का संचार हो, धैर्य का विकास हो और पराक्रम का कभी ह्रास नहीं हो। यही ज्ञान तो शक्ति तत्व का आधार भूत ज्ञान है। ज्ञान की आधार शक्ति मां सरस्वती ही है जो जगत को प्रकाश देने वाली, अज्ञान का नाश करने वाली, मनुष्य में कुण्डलिनी शक्ति जागृत करने वाली मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ मनुष्य में परिवर्तित कर देने वाली, मूर्ख को बुद्धिमान बनाने वाली आधार शक्ति है जिनके ध्यान में नारद जी ने कहा है।
देवी ही देह-कान्ति मुक्ता की चमक के समान उज्ज्वल है, ज्योत्स्ना जैसा प्रकाश उससे निकल रहा है वे मोतियों के हार से विभूषित हैं, शुभ्र-वर्णा हैं और अर्ध-चन्द्र से शोभायमान हैं। वागीश्वरी देवी चतुर्भुजा हैं। दाएं हाथों में से एक में व्याख्या मुद्रा और दूसरे में वर्ण-माला है। बाएं हाथों में एक में अमृत-पूर्ण कुम्भ हैं और दूसरे में पुस्तक है। वागीश्वरी देवी ज्योति-पुंज-प्रभावकारी, परिवार सहिता एवं वर-अभय-व्याख्या-मुद्र और पुस्तक-धारिणी हैं।
सद्गुरुदेव के ये वचन स्पष्ट हैं कि जीवन का आधार ज्ञान है और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी भगवती सरस्वती है, जो पुस्तक और वीणा धारण किये हुए है, जो आशीर्वाद मुद्रा से युक्त हैं, जो व्यक्ति में पूर्ण अभय का संचार करती हैं। वह कहीं भी अकेला नहीं होता, ज्ञान रूपी आभूषण से सदैव युक्त रहता है। उसे अपने मित्र और शत्रु की पहचान होती है और यही तो साधक की पहचान है क्योंकि ज्ञान साधना कुण्डलिनी शक्ति का आधार है।
इस वर्ष 24 जनवरी को वसंत पंचमी है। यह एक महाकल्प है इस शुभ अवसर पर सरस्वती की साधना कर हम अपने जीवन को एक श्रेष्ठ आधार प्रदान कर सकते हैं। यौवन का तात्पर्य है ताजगी, जब पुष्प पूरा खिलने से पहले जिस स्वरूप में होता है उस स्वरूप को निहारने का मन बार-बार करता है, उसमें जो बहार होती है उसे तो देख कर ही आनन्द आ जाता है और फि़र जब वह पुष्प सुगन्धित हो, तो फि़र कहना ही क्या? रूप माधुर्य और यौवन की छटा भी ऐसी ही है। रूप गोरेपन में, तीखे-नाक नक्श में और यौवन केवल जवानी की आयु से संबंधित नहीं है, यह तो भीतर उत्पन्न हुए विविध भावों का शरीर के माध्यम से प्रकटीकरण है, जो कितना ही छिपाओं, छिप नहीं सकता, जीवन के दिन रूकते नहीं है लेकिन यदि इसमें ताजगी नहीं है, रूप नहीं है, आनन्द नहीं है माधुर्य नहीं है, प्रेम नहीं है, पीड़ा नहीं है, तो फि़र जीवन के दिन तो काटने के समान है। यह जीवन पूर्ण आनन्द के साथ जीया जा सकता है। जिसमें काम और रति का संयोग होकर नित्य नवीनता और मधुरता रहे।
जो असंभव है, अप्राप्त है, उसे ही तो संभव करना, प्राप्त करना ही साधना-सिद्धि है। अगर जीवन को सही ढंग से जीना है तो जीवन में सौन्दर्य और प्रेम दोनों को ही महत्वपूर्ण स्थान दीजिए, क्योंकि यही है वह अवयव जो आपको चिर यौवनमय बनाये रखता है-हर क्षण, हर पल। आपके व्यक्तित्व को आकर्षण बनाये रखने में सहायक रहता है। और अगर यही महत्वहीन होगा, तो जीवन में प्रसन्नता के स्थान पर कड़वाहट घूमने लगेगी।
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