काल का चक्र अपनी नियत गति से सतत् गतिशील रहता है और प्रदर्शित करता रहता है, ऋतुओं के माध्यम से अपनी कलाएं। कभी सूख कर दरकने-दरकने को हो जाती धरती, तो कभी उसे रिमझिम फुहारों से भिगोकर मनाने की चेष्टा करते वर्षा देवता स्वयं, कभी शरद की कुनकुनी धूप, तो कभी घने कुहरे में किसी उदास मन सी उलझी-उलझी यह धरती! मादक स्वरों से लहरी, बिखरे गीतों को सुनना, जिन्हें स्वयं प्रकृति ने रखा होता है और स्वयं ही गाया होता है।
ये गीत होते हैं प्रेम के, यौवन के, यौवन की मस्तियों के, खिलने के, बिखरने के और बस बिखरने के ही नहीं छितरा जाने के भी, ज्यों हरे भरे खेतों में सरसों के फूल, अपनी पीली आभा के साथ मीलों-मील तक छितरा जाते हैं।- — क्योंकि यह वसंत के पर्व का अवसर होता है, प्रकृति में विशेष घटित होने लग जाता है, तभी तो कोयल कूक-कूक कर बावरी बन जाती है, भौंरे इठला-इठला कर मधुपान करते हुए भी थक कर गिर नहीं पड़ते, बस नाचते ही होते हैं।—– नाचने तो लगता है, मानव का मन भी, लेकिन उसे नृत्य की वह उन्मुत्तफ़ कला नहीं आती, जिसके साथ, वह भी प्रकृति की उन्मुक्तता से एकरस हो जाए। नृत्य की कला सीखने के विपरीत मानव ने जो कला सीखी भी है, वह तो मन में उठे नृत्य को दबा देने की ही सीखी है, पर वसंत तो बार-बार, हर वर्ष ही यह कला सिखाने के लिए आता रहा है, आता ही रहेगा, क्योंकि वह तो स्वयं काल का ही संकेत है, कि जीवन एक निश्चित चक्र में बंधा होने के बाद भी जड़ता का पर्याय नहीं हो सकता।
वसंत मास माघ के शुक्ल पक्ष की पंचमी का एक दिवस अथवा उस दिवस की कुछ घडि़यां ही नहीं, परिवर्तन के क्षण होते हैं। परिवर्तन यदि होना होता है तो क्षणों में ही संभव हो जाता है अथवा कई-कई वर्ष बीत जाने के बाद भी संभव नहीं हो पाता है। साधना के क्षेत्र में उतरने के इच्छुक और साधना के माध्यम से अपने जीवन को संवारने के आग्रही गंभीर साधक के लिए यह आवश्यक भी है, क्योंकि जब तक ऐसी विवेचनाएं नहीं हो जाती, जब तक साधक उसके अनुरूप अपने मानस को नहीं बना लेता, तब तक वह किसी भी साधना में प्रयुक्त किए जाने वाले मंत्रें का तादात्म्य प्रकृति से अर्थात् उस दिवस विशेष की चैतन्यता से संगुम्फित नहीं कर पाता है और इसी संगुफन के समायोजन पर ही तो साधना की सफलता या असफलता टिकी होती है। जो जितनी अधिक तीव्रता से या जितने प्रतिशत में संगुफन को संभव कर लेता है वह सफलता के भी उतने ही सन्निकट हो जाता है।
क्या साधक उस जड़ वृक्ष से भी गया-गुजरा होता है जो हर वर्ष वंसत में अपना नूतन श्रृंगार कर लेता है? एक प्रकार से हर वर्ष ही अपना कायाकल्प करता रहता है। वह प्रकृति स्वयं एक पाठशाला होती है, लेकिन उस पाठशाला में जाकर जीवन के पाठों को बुद्धि से नहीं, हृदय से पढ़ा जा सकता है। जो पढ़ लेता है फिर वही उस गुलाब के पुष्प की तरह इठला कर यौवनमय बन, झूल सकता है, जो गुलाब का पुष्प यह जान लेने के बाद भी अपनी सुगंध और रंग को बिखेरता रहता है, कि उसका जीवन अत्यल्प है, कांटों से घिरा है। किसी का अस्तित्व तो उसके रंग बिखेरने से ही निश्चित होता है, ठूंठ बन कर वर्षों-वर्ष पड़े रहने से नहीं।
जीवन में हास्य, विनोद, आनन्द व तृप्ति प्राप्त हो जाना कोई सामान्य सी बात नहीं होती, यह तो जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धि है, जिसे प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े योगियों और ऋषि-मुनियों ने कठिन से कठिन तप किये हैं, तब जाकर वे पूर्ण कहलाये और यह दिखा दिया, कि यदि व्यक्ति दृढ़ निश्चयी और आत्मविश्वासी हो, तो वह तप व साधना के बल पर क्या कुछ नहीं कर सकता और जब ऐसा होगा, तो उसके चेहरे पर एक ओज, एक उमंग, एक आह्लाद, एक प्रसन्नता स्वतः ही झलकने लग जायेगी—- और यही तो वास्तविक सौन्दर्य है।
सौन्दर्य किसी नारी, अप्सरा या प्रकृति का नाम नहीं है, वे तो केवल सौन्दर्य के प्रतिमान हैं। ‘जिसे देखकर आप अपने-आप को चिंतामुक्त अनुभव करने लगें और आनन्द की स्थिति उत्पन्न होने लगे, सही अर्थों में वही सौन्दर्य है।’
आज सौन्दर्य प्रसाधनों के माध्यम से व्यक्ति सौन्दर्यशाली बने रहने का प्रयास करता है, तरह-तरह की दवाईयां खाता है। सौन्दर्य विशेषज्ञ भी सौन्दर्य का स्थायी हल ढूंढने के प्रयास में रत हैं, किन्तु आज तक स्थायी उपाय प्राप्त करने में असफल ही हैं। यह जरूर है कि सर्जरी के माध्यम से चेहरे व शरीर की झुर्रियों को समाप्त करने में डॉक्टर सफल हुए हैं, किन्तु यह चिकित्सा अत्यन्त महंगी है और अत्यन्त कष्ट साध्य भी, जिसे अपनाना प्रत्येक व्यक्ति के सामर्थ्य की बात नहीं है।
यदि हम अपना थोड़ा-सा ध्यान ऋषि परम्परा द्वारा आविष्कृत उपायों पर डालें, तो हमें पता चलेगा कि सौन्दर्य का स्थायी उपाय उन लोगों ने बहुत पहले ही ढूंढ निकाला है। हमारे प्राचीन ऋषि धन्वन्तरी, अश्विनी, च्यवन आदि ऐसे व्यक्तित्व हुए हैं, जिन्होंने अपने पूरे जीवन को इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु लगा दिया, कि-
1- आखिर जीवन का वास्तविक तथ्य क्या है?
2- कैसे अपने-आप को ओजस्वी, यौवनवान और सौन्दर्यवान बनाया जा सकता है?
3- किस प्रकार बुढ़ापे को जवानी में बदला जा सकता है।
4- किस प्रकार अपने पूर्ण शरीर का कायाकल्प किया जा सकता है।
कायाकल्प का तात्पर्य उस सदाबहार तरोताजा अद्वितीय सौन्दर्य और उस मस्ती से है, जो जीवन में आनन्द का बीज बो दे, 60 वर्ष के वृद्ध को भी 16 वर्षीय पूर्ण सौन्दर्य प्रदान कर दे, क्योंकि व्यक्ति मन से भी अधिक मन पर थोपे गये विचारों से बूढ़ा हो जाता है और उसका सारा सौन्दर्य ढल जाता है—– जीवन में कायाकल्प आनन्द का होना ही सौन्दर्य-वृद्धि है।
सौन्दर्य तो आधार है जीवन का, ईश्वर का दिया हुआ एक वरदान है, जिसका प्राप्त होना जीवन की श्रेष्ठता, पूर्णता कही जाती है। जितने भी ग्रंथ, वेद, पुराण लिखे गये हैं, उन सब में सौन्दर्य का विस्तृत विवेचन हुआ है।
—– वंसत मन की सख्त जमीन पर किसी स्त्रोत के फूट पड़ने का ही तो अवसर है, जिसमें खुद भी भीग लें और किसी को भी भिगो दें। यही तो होती है यौवन की अठखेलियां, यौवन एकाएक उतर आने वाली कोई घटना नहीं होती है पहले तो अठखेलियां ही आती हैं, अठखेलियों के आने से वह ‘यौवन’ आता है, जो सही अर्थों में यौवन होता है। हर वर्ष की भांति, वसंत की ही तरह यौवन को हर वर्ष नूतन करते रहने का पर्व होता है यह।
वसंत का पर्व, प्रकृति किसी पाठशाला में, जीवन के किसी पाठ की कक्षा लगाकर नहीं, उत्सव रच कर समझाना चाहती है नृत्य और संगीत के ऐश्वर्य में खोता हुआ दिखता यह पर्व अपने बाह्य आवरण में जितना अधिक विलासमय है, उतना ही आंतरिक पक्ष से गंभीर भी। इसीलिए यह आवश्यक है कि साधक एक ओर जहां जीवन के बाह्य पक्षों का श्रृंगार करे वहीं वसंत पर अपने आंतरिक पक्ष का भी श्रृंगार करे और तभी तो अनंग साधना एक पर्व ही है।
किन्तु वर्तमान युग में वास्तविक सौन्दर्य को लोगों ने भुला दिया है, उन्होंने कृत्रिम प्रसाधन प्रयोग को ही सौन्दर्य मानकर अपने प्राकृतिक सौन्दर्य को नष्ट कर दिया। वास्तविक सौन्दर्य क्या है, इसे अब प्रत्यक्ष देखना नामुमकिन सा लगता है। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि लोगों ने सौन्दर्य को मात्र बाहरी दिखावे की वस्तु समझ लिया, जबकि ऐसा नहीं होता। आन्तरिक और बाह्य दोनों रूपों से सौन्दर्य युक्त व्यक्ति ही -‘सौन्दर्यवान’ कहा जा सकता है। हमारी विडम्बना यही है, कि हम दोनों प्रकार के सौन्दर्य को भूल बैठे हैं।
ऐसा सौन्दर्य किस काम का, कि आप शारीरिक रूप से तो सुन्दर हैं, लेकिन आन्तरिक रूप से घृणा, क्रोध, कड़वाहट, कपट और छल से युक्त हैं, आपकी वाणी से किसी को प्रसन्नता मिलने के स्थान पर दुःख मिले या आप आन्तरिक रूप से सभी गुणों से युक्त हैं, लेकिन बाह्यतः आपका व्यक्तित्व चित्ताकर्षक नहीं है, फिर तो ऐसा सौन्दर्य भी अधूरा ही है।
जहां किसी स्त्री का सौन्दर्य बाह्यतः आकर्षक देहयष्टि तथा आन्तरिक रूप से कोमलता, मधुरता, सहृदयता और ममत्व के गुणों से युक्त होना चाहिए, वहीं पुरूष का सौन्दर्य बाह्यतः आकर्षक एवं कामदेव शक्ति युक्त पुष्ट शरीर, चेहरे का ओज तथा अन्तः स्वभाव में चन्द्रमा के समान शीतलता तथा सूर्य की तरह तेजस्विता युक्त होना ही पूर्णता का परिचायक है। जीवन को प्रसन्नता, उमंग, जोश और मस्ती से भरा हुआ बना सकते हैं, आप इस कामदेव तंत्र से। इस साधना को देवता, अप्सराएं, किन्नर, गंधर्व सभी करते हैं और पाते हैं, अपने जीवन में मस्ती, छलछलाहट और चिर यौवन।
इसे करने के बाद आपका व्यक्तित्व भी आकर्षक बनेगा, प्रसन्नता से भरा रहेगा। आप स्वयं अनुभव करेंगे, कि इसके बाद लोगों को आपसे बात करने में रूचि, आपका साथ पाने की ललक रहने लगती है और आपमें भी जीवन को आनन्द के साथ जीने की चाहत उत्पन्न होगी। इस साधना को करने के बाद आपके निजी सम्बन्धों में प्रसन्नता व प्रगाढ़ता उत्पन्न होगी। तभी तो आप समझेंगे, कि जीवन क्या है? फिर आप इसका पूर्ण रूप से आनन्द ले पायेंगे और भरपूर एहसास के साथ उसे जी पायेंगे। जीवन में पूर्णता को, सौन्दर्य को स्थापित कर सकते हैं आप इस साधना के द्वारा।
1- इस साधना के लिए ‘प्रेमोपासना यंत्र’ और ‘कामदेव अनंग माला’ का प्रयोग होता है।
2- यह साधना 24 जनवरी को सम्पन्न की जा सकती है, अथवा किसी भी शनिवार से की जा सकती है।
3- यह साधना रात्रिकालीन साधना है। इसे आप रात्रि 10 बजे के बाद ही सम्पन्न करें।
4- सामने लकड़ी का बाजोट बिछा कर उस पर सफेद वस्त्र बिछावें, फिर उस पर स्वस्तिक बना कर कलश रखें बाजोट को सुन्दर ढंग से सजावें।
5- यंत्र को धोकर, पोंछ कर किसी प्लेट में रखें तथा सुगन्धित धूप और दीप लगायें।
6- यंत्र पर कुंकुम से दो बिन्दियां लगायें, और माला पर एक बिन्दी लगायें फिर अक्षत और पुष्प चढ़ायें।
7- अब अनंग माला से निम्न मंत्र की 24 माला जप करें।
जप समाप्ति के बाद भगवान श्री कृष्ण से अपनी मनोकामनायें व्यक्त कर गुरु आरती सम्पन्न करें।
साधना के बाद माला को गले में धारण कर लें।
सात दिन तक मंत्र जाप करें। तत्पश्चात् माला को नदी में विसर्जित कर दें।
यह साधना अत्यन्त प्रभावशाली है। इसे सम्पन करने के बाद आप अपनी देह और अन्तसः में परिवर्तन अनुभव करेंगे, कि आपका व्यक्तित्व कितना आकर्षक, सम्मोहक और प्रेममय बन गया है। आपके बातचीत का अंदाज मधुर हो गया है, आपके चलने का देखने का अंदाज भी एक विशेष आत्मविश्वास से परिपूर्ण हो गया है।
जीवन में उन्नति तभी होती है जब मन में प्रेम हो, आनन्द हो, प्रसन्नता हो, प्रफुल्लता हो, हर समय कुछ नया घटित कर देने की क्षमता हो और उत्साह हो। इसी हेतु वसंतोमय दिवस पर अपनी देह को कामशक्ति से युक्त करने और सम्मोहन आकर्षण की स्वयं में चेतना लाने का भाव उत्पन्न हो सके जिससे की आप निरन्तर क्रियाशील रह सके इसी हेतु – योगमाया वसन्तोमय युक्त शक्ति दीक्षा महोत्सव दिल्ली में 22,23,24,25 जनवरी में आकर कामदेव शक्ति युक्त अनंग चैतन्य दीक्षा प्रेमोपासना यंत्र और कामदेव अनंग माला से युक्त प्राप्त कर सकते है।
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