जहां शिव का नाम है- वहां हास्य है, विनोद है, मस्ती है, आनन्द है, पूर्णता का निवास है—-और जो हंसता है, वह मर नहीं सकता, क्योंकि जब हंसते हैं, तो अन्दर की वृत्तियां अपने-आप उजागर होती हैं, खून में उफान-सा आता है, जीवन में मस्ती आती है। अगर जीवित जाग्रत गुरु है, तो जाग्रत शिष्य भी होने चाहिये। हम श्मशान में तो बैठे हैं नहीं। नृत्य और गायन, हास्य और विनोद, श्रद्धा और समर्पण ये सब कुछ जीवन में पूर्णता प्राप्त करने के आयाम हैं और पूर्णता प्राप्त करने के लिए कोई माला जपने की जरूरत नहीं। यह शरीर, तुम जिसे शरीर कहते हो, यह शरीर नहीं हैं।
इसलिए शरीर नहीं हैं, क्योंकि यह शास्त्रों के अनुसार देह है। देह में और शरीर में अन्तर होता है, देह का मतलब है- जो मृत्युशील हो, गतिशील हो, समाप्त होने वाली हो। देह तो मर जायेगी, समाप्त हो जायेगी, इसलिए जो देह में जीवित है, उसको एक न एक दिन श्मशान की यात्रा करनी ही पड़ती है, पर जिसके पास शरीर है, वह अमर है। शरीर का मतलब है कि अन्दर एक ऊर्जा है, एक प्रवाह है। बाहरी शरीर के अन्दर एक और शरीर है और वह शरीर हास्य उत्पन्न कर सकता है, वह शरीर एक भावना पैदा कर सकता है—– देह पैदा नहीं कर सकती। देह तो केवल इतना ही कर सकती है कि अपने समान एक और चीज बना दे, यदि एक पुरूष है, तो एक और पुरूष की आकृति पैदा कर दे। देह का केवल इतना ही काम है, इसके अलावा देह कुछ और कर ही नहीं सकती। देह मुस्करा नहीं सकती, हास्य नहीं कर सकती, देह तो केवल धीरे-धीरे गतिशील होते हुए समाप्त हो जाती है—– हम समाप्त होने के लिए यहां नहीं आये हैं।
यदि समाप्त होने की क्रिया से तुम्हारा अर्थ है कि मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे, हम जल जायेंगे, समाप्त हो जायेंगे तो यह कोई समाप्त होना नहीं है। समाप्त तो राम आज तक भी नहीं हुए, कृष्ण भी नहीं हुए, बुद्ध भी नहीं हुए, शंकराचार्य भी नहीं हुए, शिव भी नहीं हुए- ये सब मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए। इनके बारे में हमें मालूम है, हमारी आने वाली पीढि़यां भी इनके नाम को नहीं भूलेंगी। इसी प्रकार हमारी आने वाली पीढि़यां भी हमारे लिये एहसास करें कि हम कुछ थे, एहसास करें, कि हम किसी गुरु के शिष्य थे—- और ऐसा एहसास शरीर के माध्यम से ही हो सकता है, देह के माध्यम से नहीं। —और इसलिए मैं तुम्हारे जीवन में हास्य लाने की कोशिश करता हूं। मैं चाहता हूं, कि तुम्हारी जड़ता समाप्त हो जाये, इस देह की जड़ता समाप्त हो जाये—- देह की जड़ता समाप्त होगी, तो मेरी आवाज आप तक पहुंच पायेगी। जब मेरी आवाज आप तक पहुंचेगी ही नहीं, तो मैं कितना भी शक्तिपात करूं, वह शक्ति तुम्हारी देह पर टकरा करके लौट जायेगी और मेरा शक्तिपात भी व्यर्थ ही जायेगा। वह शक्तिपात, जो चेतना का एक बिन्दु हैं, जो तपस्या का एक अंश है, जो एक प्रवाह पुंज है, एक गतिशीलता है—- वह शक्ति तुम्हारे शरीर को स्पर्श कर सकती है और उस शरीर के आगे भी और क्रियायें हैं, फिर एक ‘भू’ तत्व है, ‘भुवः’ तत्व है, ‘स्वः’ तत्व है, ‘महः’ तत्व है, पर वे सब तो आगे की क्रियाएं हैं।
आज मानव के पास अभाव के अलावा कुछ है ही नहीं। इसलिए नहीं है कि जब कभी गुरु से मिलते हैं तो सार्थक बात करते ही नहीं, तंग करते रहते हैं गुरु को। देहगत अवस्था में होते हैं, तो कहते हैं कि गुरुजी! मेरी पत्नी बीमार है या मेरा प्रमोशन नहीं हुआ, यह हो गया, वह हो गया- यह देहगत अवस्था हुई-जब हम देह में रहेंगे, तो यह समस्याएं तो रहेंगी ही। जब देह छोड़ देंगे और शरीरगत अवस्था में आ जायेंगे, तब वे अवस्थाएं आपको व्याप्त नहीं होगी। चिन्ताएं तो होंगी, बाधाएं भी होंगी, पर आपको व्याप्त नहीं होंगी। वे तो आएंगी ही, आप दुःखी होंगे तब भी आयेंगी, आप हाथ जोडेंगे तब भी आयेगी, आप खड़े हो जाये तब भी ये आयेंगी ही। पुष्पदन्त्त ने ‘महिम्न स्तोत्र’ में शिव से कहा- ‘मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि तुम श्मशान के वासी हो, तुम्हारे पास खप्पर के अलावा कुछ है ही नहीं। जो भी है, खाली खप्पर है और एक हाथ में परशु है और चिता की भस्म लेकर लगाते रहते हो और एक सांप भी है तुम्हारे गले में इसके बावजूद भी तुम्हें जो आनन्द प्राप्त है, वह हमें प्राप्त नहीं, वह आनन्द हमें भी प्राप्त होना चाहिए।’
हमारे जीवन में जो समस्याएं हैं, वे समस्याएं तो आएंगी ही, परन्तु जब आप शरीरगत अवस्था में चले जायेंगे, इस देह को छोड़ देंगे, तो आनन्द ही आनन्द मिलेगा। मैं यह नहीं कर रहा हूं कि घर में समस्याएं नहीं होंगी, समस्याएं तो होंगी, मगर वे तुममें व्याप्त नहीं होंगी। वास्तविकता यह है कि समस्याओं में मनुष्य लिप्त हो जाता है और जब लिप्त हो जाता है तो उसका वह साधना का क्रम उसके शरीर से हट कर समाप्त हो जाता है। देह से साधना नहीं हो सकती, साधना के लिये जरूरी है कि अन्दर का चैतन्य शरीर जाग्रत हो। शरीर और देह- इन दोनों में अंतर है। मान लो हमारे घर में दो हजार रूपये नहीं है, तो हम बहुत चिन्ता करेंगे, पर यदि आप निश्चित हो जायेंगे कि यह चीज नहीं है, तो नहीं है। ऐसी निश्चिन्तता से भी जीवन जिया जा सकता है और उस दुःख से भी जीवन जिया जा सकता है। जैसा भी तरीका हो आपका—- और जिन लोगों ने निश्चिंत जीवन जिया है, उन लोगों को समस्याओं ने परेशान नहीं किया। उनके घर में भी पुत्र होगा, पत्नी होगी, बन्धु-बांधव होंगे, सब कुछ होगा, पर उन्होंने पूर्णता के साथ जीवन जिया है, प्रसन्नता के साथ जीवन जिया है, हास्य के साथ जीवन जिया है।
भगवान शिव के शिष्य पुष्पदन्त ने दो ग्रंथ लिखे, जिनमें एक महिम्न स्तोत्र है। यदि आप कभी पढ़े, तो पायेंगे, कि यह अत्यनत अद्वितीय ग्रंथ है, इसमें चालीस श्लोक हैं, जिसमें एक श्लोक है। ‘असित गिरि समं स्यात—’ सारी पृथ्वी को कागज और सारे समुद्र को स्याही बना दूं और सारे जंगल की लकडि़यां काटकर मैं लेखनी बना दूं और मैं तो एक मामूली आदमी हूं यदि विधाता खुद भी लिखने बैठ जाएं, इतने बड़े कागज पर, इतनी स्याही से लिखते ही रहें, फिर भी आपके गुणों का पार नहीं पा सकता। और मैंने पहले भी बताया था, कि इतनी बड़ी गृहस्थी की समस्याएं लेकर वे आनन्दमग्न क्यों हैं।? आप में और शिव में कोई अन्तर नहीं है। अन्तर तो आप मान रहे हैं, शरीर नहीं मान रहा। शंकराचार्य ने नहीं माना, शंकराचार्य ने कहा- ‘शिवोऽहं’ (मैं शिव हूं)। उन्होंने व्यर्थ में नहीं कहा, वे अपने शरीर से बोल रहे थे। जब तुम अपनी देह से बोलोगे, तो यही भाव उत्पन्न होगा, मैं तो यहां हूं और शिव का मंदिर वहां है—- और फिर आगे मंदिर में जाओगे, तो पुजारी रोक देंगे, फिर कैसे दर्शन करोगे? जब तुम स्वयं शिवमय हो जाओगे, तो तुम्हारे सामने साक्षात शिव खड़े होंगे ही।
मैं ही शिव हूं, मैं ही शंकर हूं—- फिर अगर ध्यान करोगे, तो भगवान शंकर को आना ही पड़ेगा। तुमको मंदिर में जाने की जरूरत नहीं है। व्यक्ति स्वयं शिवमय बन सके, इसके लिए ही तो इस देह से शरीरगत अवस्था मे जाने की क्रिया को समझने की जरूरत है। तुम पुस्तक पढ़कर रात को सो जाओगे, फिर इस पुस्तक की कोई सार्थकता नहीं है। यदि मैं कोई साधना बताता हूं, क्रिया समझाता हूं और जो मैं क्रियाएं समझा रहा हूं, तुम उन्हें शरीर में धारण नहीं करो, तब मेरा साधना बताने या समझाने का अर्थ ही नहीं होगा, वह सब व्यर्थ होगा जब तक तुम गहराई से समझोगे ही नहीं, तब तक सब व्यर्थ है। मैंने लिखा, आपने पढ़ा, उससे कुछ होगा नहीं। उसके प्रत्येक शब्द में कोई न कोई अर्थ तो निहित होगा ही, उसे समझने की आवश्यकता है। यदि भगवान शिव तुम्हारे खुद के शरीर के अन्दर हैं, तो है फिर वे पत्थर की मूर्ति में नहीं है। जो देहगत अवस्था में नहीं होंगे, वे मंदिरों में नहीं जायेंगे, फिर भी हम मंदिर में जायेंगे, जलधार चढ़ाएंगे, दूध चढ़ाएंगे, पुष्प चढ़ायेंगे बिल्व पत्र चढ़ाएंगे, क्योंकि हमें देहगत अवस्था में भी जीने की जरूरत है। क्योंकि हम गृहस्थ हैं और ज्योंहि देहगत अवस्था से हम अलग हुए, फिर ये सब बाह्य क्रियाएं व्यर्थ हैं।
यह पत्नी है, यह बेटा है, यह माता है, ये सगे सम्बन्धी हैं, ये सब देहगत अवस्था को दर्शाते हैं। ज्योंहि व्यक्ति देह छोड़ता है, जलता है श्मशान में, जब कोई साथ नहीं होता, वे सब रोते-रोते अपने घर को चले जाते हैं और वह शरीर अवस्था में कही और चला जाता है। जब तुम्हें कभी न कभी जाना ही है, तो आज ही चले जाओ। तुमसे ज्यादा अच्छा तो वह सांप है जो भगवान शिव के गले में हैं, जो अपनी केंचुली को छोड़ देता है और पूरी केंचुली को अपने शरीर से उतार करके दूसरा शरीर धारण कर लेता है। हम तो उस सर्प योनि से भी ज्यादा बदतर हैं, इसलिए कि हमे किसी ने समझाया नहीं कि देह और शरीर में क्या अन्तर है? जब तक अन्तर समझ नहीं आयेगा, तब तक बार-बार गुरु को बोलना पड़ेगा, चीखना पड़ेगा, चिल्लाना पड़ेगा, कहना पड़ेगा—- और तुम सोचोगे कि गुरु जी की रोजी रोटी चलती है, इसलिए वे बोलेंगे ही—और आप सोचेंगे, कि हमें तो बैठना ही है, सुनना ही है-तो उससे कोई फायदा होगा नहीं।
– आप उस क्रिया को पहले अपने अन्दर सात्विक भाव से लीजिये, फिर देखिये कितना आनन्द आता है। एक मस्ती के साथ में विचरण कीजिए, जो कुछ हो रहा है, होने दीजिए, यह भाव स्वाभाविकता से रहने दीजिये। तुम्हारे चाहने से भी नहीं होगा और तुम्हारे नहीं चाहने से भी होगा। अब बेटा नहीं कमा रहा है और तुम झींकते रहो बैठे-बैठे। नहीं कमायेगा, तो नहीं कमायेगा। तुम उसे हाथ जोड़ोगे, तो भी नहीं कमायेगा- फिर उस दुःख को, उस वेदना को, उस कष्ट को तुम क्यों भोग रहे हो? तुम हटकर किनारे हो जाओ, जब तुम शरीरगत अवस्था में आ जाओगे, तो यह सब व्यर्थ लगेगा। शंकराचार्य, भगवान शिव की प्रार्थना करते हुए कह रहे हैं- न तातो न माता, उनकी मां भी थी, उनके पिता भी थे, उनके भाई भी था, उनके मित्र भी थे, उनके शिष्य भी थे, उनका घर भी था, सब कुछ था, खाने के लिये रोटियां भी थीं और यह सब कुछ होते हुए भी उन्होंने कहा- न तातो न माता——-
तो इसका अर्थ है, मैं शरीरगत अवस्था में जाना चाहता हूं। तुम इस देहगत अवस्था को छोड़कर शरीरगत अवस्था में जिस दिन भी चले जाओंगे- यह एक क्षण के बाद भी हो सकता है और पूरा जीवन भी लग सकता है- तब तुम को चिन्ताएं व्याप्त नहीं हो सकतीं, फिर तुमको दुःख, तकलीफ व्याप्त नहीं हो सकते, फिर तुम माथा पकड़ कर नहीं बैठोगे, फिर तुम्हें घबराहट नहीं होगी, परेशानी नहीं होगी, किसी प्रकार का अभाव नहीं होगा। तुम्हारे प्रयत्नों से अभाव नहीं मिट सकता—-और हमें मिटाने की जरूरत भी नहीं है। पुष्पदन्त ने जो ग्रंथ लिखे हैं, ‘महिम्न स्तोत्र’ और दूसरा ‘शिव स्तोत्र’ उस शिव स्तोत्र में भी चालीस श्लोक हैं और वे अपने-आप में अद्वितीय श्लोक हैं। एक श्लोक में उसने कहा है-
यह एक अद्वितीय श्लोक है- और यह ग्रंथ पुष्पदन्त ने लिखा तो सही, लेकिन यह न तो प्रकाशित हुआ और न ऋषियों की जुबान पर आया—-और पुष्पदन्त के बाद यह ग्रंथ भी समाप्त हो गया। एक भी श्लोक आज के युग में इस पूरी पृथ्वी पर शायद ही किसी को याद हो। इस तरह से तो ये सब ग्रंथ समाप्त हो जायेंगे, यदि उनको कागजों पर नहीं उतारा गया, यदि उनको जीवन में नहीं उतारा गया, तो इतने अद्वितीय ग्रंथ जो लिखे हैं, वे सब समाप्त हो जायेंगे और हमारे पूर्वजों की थाती अपने-आप में लुप्त हो जायेगी। आज इस पूरे भारतवर्ष में इस शिव स्तोत्र का एक भी श्लोक किसी भी पंडित को याद ही नहीं है। ‘इस श्लोक में पुष्पदन्त ने भी वहीं बात कही है, जो इस पुस्तक का सार है।’ वह कहता है- मैं भगवान शिव की पूजा तो पचहत्तर साल से कर रहा हूं, परन्तु मैं उनका गण हर समय तनाव में हूं, हर समय चिन्ता में हूं, हर समय परेशानी में हूं, और इसलिए मेरे मन में प्रश्न उठता है- क्या मेरे जीवन की नियति यही है, कि मैं इन चिन्ताओं के साथ ही मर जाऊं, और भगवान शिव! क्या आपके वरद् हस्तों में रहकर भी मेरा जीवन ऐसा ही व्यतीत होगा? कौन सा क्षण आयेगा जब मैं अपने-आप में उस अद्वितीय आनन्द को प्राप्त कर सकूंगा- जिसको शास्त्रों में कहा हैं- ‘ब्रह्मानन्द परम सुखदं’।
और उसने ज्योंहि यह श्लोक पढ़ा, भगवान शिव ने कहा- ‘गुरुवै गतिः’—— तुमने गुरु को धारण ही नहीं किया, तब कौन समझायेगा तुम्हें कि पचहत्तर साल तक मेरी सेवा करते हुए भी तुम अभाव से क्यों हो? आज पहली बार तुम्हें एहसास हुआ, आज तुमने पहली बार विचार किया, कि क्यों तुम भुगत रहे हो, इसलिए मुझे उत्तर देना पड़ा है। यदि तुम अभय प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें गुरु के पास जाना पड़ेगा और गुरु के माध्यम से तुम मालूम करो कि तुम क्यों अभाव भोग रहे हो, क्यों तकलीफें तुम में व्याप्त हैं। शिव स्तोत्र के ये पूरे श्लोक किसी पुस्तक में या किसी ग्रंथ में कोई दिखा दे, ऐसा संभव नहीं लग रहा है। यह परम्परा खत्म सी इसलिए लग रही है, क्योंकि बीच में एक अंधेरा आ गया था। कृष्ण के बाद भी दो ढाई हजार साल तक अंधेरा रहा, फिर कोई व्यक्तित्व आयेगा जो ब्रह्माण्ड से शब्दों को पकड़ेगा और अपने शिष्यों के सामने सुना देगा। यह जीवन का एक अंधकार पक्ष है, इसे मैं भी समझ रहा हूं, मगर जब कोई ऐसी पोथी मिलेगी, जिस पर गुरु लिख सकें- तो अवश्य इस अंधकार का हनन होगा— अगर तुम में से कोई पोथी बन पर जब तुम खाली कागज हो जाओगे, तब ही गुरु उस पर लिख सकेगे।
यह दर्द, यह बैचेनी, यह दुःख मेरे साथ रहेगा, यह तो आने वाला समय ही एहसास करेगा। गुरु इन्हें कागजों पर नहीं लिखेंगे, क्योंकि कागज तो गल जायेंगे। जब ये ग्रंथ किसी की छाती पर लिखने हैं, कलेजे पर लिखने हैं—– और गुरु तो लिखने के लिये तैयार हैं, लेकिन कोई सीना फाड़ करके सामने खड़ा हो, तब तो लिखें। इसलिए शिव ने कहा- ‘गुरुवै’—- तुम गुरु को पकड़ोगे, तब वह गुरु तुम्हें समझायेगा, कि क्यों तुम पचहत्तर साल तक मेरे ऊपर बिल्व पत्र चढ़ाते हुए भी शिवमय नहीं बन सके? क्यों काल को रोक नहीं सके, क्यो पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकें? तीसरे श्लोक में फिर पुष्पदंत पूछ रहे हैं- मैंने अपनी जवानी, सारे जीवन का यौवन, सारे जीवन के क्षण आपके चरणों में व्यतीत कर दिये, मैंने तो केवल आपको समझा है, आपके अलावा किसी को समझा ही नहीं। शिव नेहा- ‘एक हाथ में और दूसरे हाथ के बिना तुम ताली बजाना चाहते हो, तो ताली बज ही नहीं सकती। जब तक बीच में हवा का अंश नहीं होगा। बीच में कोई माध्यम जरूर होना चाहिए। मैं यदि आवाज करूंगा, तो आवाज किस माध्यम से पहुंचेगी? निःसंदेह हवा के माध्यम से।’ ‘पुष्पदन्त। तुम्हारे और मेरे बीच में कोई माध्यम नहीं है, अतः तुम जो कहते हो, वह तुम्हारे पास तक रह जाता है, मेरे पास तक पहुंचता ही नहीं और मैं जो कहता हूं, वह तुम्हारे पास तक नहीं पहुंचता! इसलिए कि तुम देहगत अवस्था में हो, तुम केवल पुष्पदंत हो—–’ और चौथी पंक्ति पुष्पदंत ने डेढ़ साल बाद लिखी—- उसने तीन पंक्तियां लिखी और चौथी वह लिख नहीं पाया, क्योंकि चौथी पंक्ति पूरे ग्रंथ का सार था।
राजा भोज एक बार अपने महल में सो रहे थे, रात्रि को अपने पलंग पर लेटे-लेटे ही उन्होंने एक श्लोक बोला- धनं रूपत्वं प्रेयश्र पूर्णत्व सुख सेवच। देहं राज्य अश्वं च पत्नी प्रेयश्र पूर्णतः।। सदं हस्ति च माणिक्यंऽहं राजा भवता वेदत्। उन तीनों पंक्तियों का अर्थ था- ‘मैं राजा भोज हूं, महानगरी उज्जैन का मालिक हूं, मेरा राज्य है, मेरे मकान है, सुन्दरतम स्त्रियों का मैं पति हूं, नौकरानियां है, धन है, वैभव है, ऐश्वर्य है, सब कुछ है—- तीन पंक्तियां खत्म हो गई—- अब चौथी पंक्ति नहीं सूझी वह विचार तो कर रहा था, पर चौथी पंक्ति बोल नहीं पर रहा था, तीन पंक्तियों को ही बार-बार दोहरा रहा था।
एक चोर उसके पंलग के नीचे छिपा हुआ था, इस इंतजार में, कि राजा भोज सोये और वह चोरी करके जाय। अगर कोई नाच करने वाला है, तो कहीं नाच होने पर वह रूक नहीं सकता, नाचेगा, नहीं तो पांव जरूर पटकेगा, पर वह कुछ करेगा जरूर। चोर ज्ञानी था, पर मजबूरी में चोरी करने आया था।
जब उसने सुना कि तीन पंक्तियां यह पन्द्रह मिनट
उसने कहा- ‘राजा भोज! तुम सही कह रहे हो। तुम भोज हो, तुम बादशाह हो यहां के, तुम्हारी सुन्दरतम पत्नियां हैं, नौकरानियां है, धन है, ऐश्वर्य हैं, सब कुछ है, पर जब तुम्हारी आंख बंद हो जायेगी, तब ये कहां जायेंगे? फिर तुम्हारे पास क्या बचेगा?
इसलिए शिव पूछते हैं, जब तुम्हारी आंख बंद हो जायेगी, तब तुम्हारे पास क्या बचेगा? यह पत्नी, ये धन-क्या बचेगा तुम्हारे पास? कुछ नहीं बचेगा, है ही नहीं तुम्हारे पास पूंजी— और पूंजी तब होगी जब तुम देह से शरीर में चले जाओगे, पूंजी वह होगी जब तुम साधारण मानव से ‘शिवोऽहं शंकरोऽहम्’ हो जाओगे, जब तुम गुरु में समर्पित हो जाओगे—- और जब तुम गुरुमय बन जाओगे। वह पूंजी होगी। तब हजारों काल भी इकट्ठे हो जाए, मगर तुमको नहीं मार सकते, फिर तुम जीवित रहोगे और जरूर रहोगे। अभी काल तुम्हें मार सकता है, क्योंकि तुम्हारे पास वह पूंजी नहीं है। जो ये सांसारिक पूंजी हैं। वह तो देह के साथ-साथ एक न एक दिन खत्म हो ही जायेगी। इसलिए शिव ने कहा- ‘अगर तुम्हारे और मेरे बीच में माध्यम नहीं है, तो बिल्व पत्र चढ़ाने से, जल से कुछ नहीं हो सकता। तुम्हारे मेरे बीच में गुरु होना चाहिए, क्योंकि तुम्हारी आंखों से मैं तुम्हें दिखाई नहीं दूंगा, तुम मुझे पहचानते ही नहीं।’
तुम्हारे पास क्या प्रमाण है, कि भगवान शिव कैसे हैं? यह तो शिवलिंग है, लेकिन उनका कोई शरीर तो होगा। हम तो केवल एक अंग की पूजा कर रहे हैं और तुम चित्र में देख रहे हो। वे तो चित्रकार ने बनाएं हैं, उसने भी शिव को नहीं देखा, अगर शिव अभी आये, तो पहचानोगे कैसे? अब तुम ऊँ नमः शिवाय, ऊँ नमः शिवाय जपते रहो और भगवान शिव तुम्हारे सामने आ भी जाएं, तो तुम कहोगे, कि यह तो साधु है, क्योंकि उससे तुम्हारा परिचय नहीं—–। गुरु ने देखा है भगवान शिव को, वह गुरु तुम से भी परिचित है, इसलिए सः गुरु सः देवता- वह गुरु बीच में जरूरी है। वह तुम्हे परिचय करवा सकता है, कि तुम भटको मत, ये कोई संन्यासी, योगी नहीं , ये भगवान शिव हैं। इसलिए शिव ने कहा- ऐसे कुछ नहीं होगा। तुम पचहत्तर साल तो क्या पांच हजार साल तक मेरी पूजा करो, तब भी कुछ नहीं होगा।’ पुष्पदंत वहां से जाता है और सीधा गुरु के चरणों में अपने-आप को समर्पित कर देता है, गुरु से कहता है मुझे शिव की जरूरत नहीं है, मैं शिवत्व का क्या करूंगा? मैं आपके पास आया हूं, गुरुदेव! आप ही मुझे बताइये कि मुझे क्या करना चाहिए जिससे जीवन में मैं जो चाहता हूं वह प्राप्त हो।’ और गुरु उसको समझाते हैं, वही चीज समझाते हैं, जो आपको समझा रहा हूं, उस कड़ी को पच्चीस हजार वर्ष बाद वापिस जोड़ रहा हूं।
उन्होंने भी पुष्पदंत को यही समझाया- ‘तुम अपनी देह को छोड़ दो, देह का मोह मत करो, देह का मोह करोगे तो देहगत अवस्था में रह जाओगे।’ और ये सारी दशा, जो कुछ है, वह देहगत अवस्था की है।- यह घंटे भर के लिए छोड़ो, चाहे दो घंटों के लिए छोड़ो, मैं यह नहीं कह रहा कि तुम हमेशा के लिए छोड़ दो, पर कुछ समय के लिए छोड़ दो। कुछ समय के लिए तुम उस शरीरगत अवस्था में आ जाओ—- तुमको एक अद्वितीय आनन्द की प्राप्ति होगी, एक अजीब सी खुमारी आयेगी, ऐसा लगेगा, कि तुम अपने-आप में ध्यान मग्न हो, फिर कुछ भी संसार में तकलीफदायक नहीं लगेगा। पुष्पदंत के गुरु ने कहा- ‘सेवत्वं समर्पत्वं’ कुछ समझाया नहीं, केवल दो बातें समझाई और दो शब्द ही बोले- उसने ऐसा लम्बा चौड़ा कुछ नहीं किया, दीक्षा वगैरह उसने कुछ नहीं दी, बस दो सूत्र की दिये- सेवा और समर्पण।
समर्पण का मतलब है- तुम्हारे पास कुछ रहे ही नहीं। तुम्हारे पास जो देह है, उसको समर्पित कर दो, इसे मेरे पास छोड़ दो, इसे मैं अपने-आप संभाल लूंगा- जब तुम जाओगे, तब देह अपने-आप तुम्हें दे दूंगा। तुम जाओगे कहां? तुम श्मशान में जाओगे ही नहीं, देह तो तुम्हारे पास है ही नहीं। तुम श्मशान में जा ही नहीं सकोगे, क्योंकि वहां केवल देह जाती है—- और यह तभी हो सकता है जब तुम सेवा करोगे, तभी कुछ प्राप्त हो पायेगा। ऐसा नहीं, कि मैं स्वार्थी हूं। मैं चाहूं या नहीं चाहूं, पर यह केवल सेवा के माध्यम से ही प्राप्त हो सकता है। निश्चिन्तता के साथ में, कहीं मन में कोई लगाव-दुराव नहीं हो, वही सच्ची सेवा है। ‘सेवत्वं समर्पत्वं साधकत्वं—-’ और तीसरी स्टेज तुम्हारी साधक की बनती है, चौथी स्टेज तुम्हारी शिष्य की बनती है, तीनों स्थितियों से गुजरता हुआ व्यक्ति शिष्य बनता है। पुष्पदन्त ने कहा- ‘शिष्यत्व तो बाद की बात है—मेरे जीवन का लक्ष्य, मेरे जीवन का आनन्द यह है, कि मैं पूर्ण शिवमय बनूं।
गुरु ने कहा- मैं तुम्हें उस प्रकार की दीक्षा दे रहा हूं, जिसके माध्यम से तुम्हारी देहगत अवस्था को हटाकर, तुम्हें शरीरगत अवस्था में ले जा सकूंगा। कुण्डलिनी जागरण आपने पढ़ा है, पर तुम यह नहीं जानते, कि कुण्डलिनी बैठी कहां है? कहां से खींच कर निकालनी है? यह गुरुओं को भी पता नहीं। जितने भी गुरु हैं, उनके कम से कम तीन सौ ग्रंथ तो मैंने पढ़ लिये हैं। उनमें लिखा हुआ है, कि मूलाधार के नीचे एक जगह है, जहां कुण्डलिनी सर्प की भांति तीन आंटे देकर बैठी हुई है और वह वहां से उठती है, फिर वह सभी चक्रों को बेधती हुई सहस्त्रार में पहुंच जाती है। बस तुम अब एक काम करो- बीस ग्रंथ लेकर, एक ग्रंथ तुम और लिख दो कि साढ़े तीन आंटे नहीं ढ़ाई आंटे हैं- बस लिख दो— और इस प्रकार तुम कुण्डलिनी जागरण के सिद्धहस्त आचार्य बन जाओगे, फिर तुम्हारे पास बीस- पच्चीस शिष्य तो आ ही जायेंगे- गुरुदेव! मेरी भी कुण्डलिनी जाग्रत कर दो- ढाई आंटे वाली—- साढे तीन आंटे थे, एक तो आपने खोल ही दिया, अब ढाई आंटे आप और खोल दो—- आप बहुत महान हैं खुल रही है। और ऐसे भी ग्रंथ लिखे गये! जिनको ज्ञान नहीं था, उन्होंने कुण्डलिनी जागरण के ग्रंथ लिख दिये और हमारा सत्यानाश इस तरह के अनुभवहीन, तथ्यहीन ग्रंथों ने किया।
जहां तुम ढूंढ रहे हो। वहां कुण्डलिनी है ही नहीं। कुण्डलिनी का तो गायत्री मंत्र में सीधा वर्णन किया हुआ है। इसलिए कहा गया है, कि गायत्री मंत्र परमाणु बस से भी ज्यादा विस्फोटक है। अब शास्त्रों में लिखा है, कि चौबीस अक्षरों की गायत्री है, और आप मुझे चौबीस अक्षर गिनकर दिखा दें, बेशक से आप पढ़ कर देख लें। उसमें चौबीस अक्षर हैं ही नहीं और शास्त्रों में लिखा है- चौबीस अक्षर। उसमें अक्षर तेईस हैं, फिर चौबीसवां अक्षर कहां गया? अब कौन बतायेगा तुम्हें? अब तुम्हारे पास गुरु तो है नहीं, जो तुम्हे समझाए, किस प्रकार चौबीस अक्षर बनते हैं। किसी ने कहा कि ऐसा है और तुमने कहा ‘हां’ ऐसा है। मूलतः यह गायत्री मंत्र, सविता मंत्र है। शास्त्रों में, वेदों में गायत्री शब्द का उल्लेख नहीं के बराबर है। यह सविता मंत्र है और सविता का मतलब है, सूर्य—- और सूर्य का मतलब है- तेजस्वी। शरीर के अन्दर इतना विस्फोट पैदा हो जाए, कि अन्दर के जो पाप हैं, दुःख हैं, छल हैं, वे विस्फोटित होकर समाप्त हो जाएं। इसलिए उस गायत्री मंत्र में जो बीच हैं वे हैं- भूः, भुवः, स्व, महः, जनः, तपः, सत्यम्- ये सात शरीर हैं। इस मंत्र में एक से दूसरे शरीर में जाने की क्रिया है। आगे मंत्र में तत् सवितुर्वरेण्यम् लिखा है।
जो एक विशिष्ट क्रिया है उस क्रिया को गुरु के बिना नहीं समझा जा सकता। मैं वही समझा रहा हूं कि पहली क्रिया ‘भूः’ से ‘भुवः’ मे जाने की है। यह तो गायत्री मंत्र का पहला बीच है, इसे समझने की जरूरत है। प्रत्येक मंत्र के चार चरण होते हैं। प्रत्येक दोहे के, प्रत्येक चौपाई के, प्रत्येक श्लोक के चार चरण होते है, जितने मंत्र लिखे हुए है, उनके भी चरण चार हैं, पर गायत्री मंत्र के चार चरण नहीं है- तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। अब तुम्हें यह चौथा चरण कौन समझाएगा? कैसे समझोगे?—- और तुम गायत्री मंत्र जपते हो। सारे मंत्र हमारे पूर्वजों ने कीलित कर दिये। कीलित का मतलब है, कोई एक अक्षर हटा दिया या कोई अक्षर जोड़ दिया, बस अब झींकते रहो बैठे-बैठे और मंत्र का उच्चारण करते रहो। यह सब मैं इसलिए बता रहा हूं कि ये बातें तुम्हारी समझ में तभी आयेंगी, जब तुम शरीरगत अवस्था में चले जाओगे, देहगत अवस्था में इस गूढ़ता को नहीं पकड़ पाओगे। शरीरगत अवस्था में जाने पर ये सारी समस्याएं स्वतः मिट जायेंगी।
और यह तुम्हारी देह हाड़-मांस, मल-मूत्र के लोंदे के अतिरिक्त कुछ नहीं है—- अगर तुम्हें विश्वास नहीं, तो मैं। एक्सपेरीमेंट करके दिखा देता हूं। तुम पांच दिन स्नान मत करो, इतनी बदबू आने लग जाएगी।, कि कोई पास में नहीं बैठेगा तुम्हारे- यह तुम्हारी देह है। गाय की चमड़ी पड़ी रहे, तो महीने भर तक बदबू नहीं आती उसमें, और तुम्हारा शरीर मरने के बाद में दो घंटे तक पड़ा रहे, तो बदबू इतनी आने लगती है, कि पड़ोस वाला रह नहीं सकता, वो कहेगा- ‘हटाओ भाई! इसे, अब यहां क्यों रखा है? मर गया सो मर गया, अब इसे श्मशान में ले जाओ और जल्दी से जल्दी इसे जला दो, नहीं जलाओ, तो बदबू आएगी। अब ये तो तुम्हारी देह है, तुम उस पर लक्स लगा रहो हो, क्रीम लगा रहे हो, श्रृंगार कर रहे हो, और फिर कॉलर झटकते हो मेरे पास आकर। होगा क्या इससे? इस देह को संभालने से कुछ नहीं होगा, उस शरीर में जाने की जरूरत हैं।
देह से शरीर में जाने की क्रिया मामूली बात नहीं है, प्रत्येक के बस की बात नहीं है, संभव नहीं है। जब मालूम ही नहीं है, तो कोई करेगा कैसे? यह एक बदलने की क्रिया है और जब ऐसा होगा, तो आपको शिव दिखाई देंगे और गारण्टी के साथ दिखाई देंगे। भगवान शिव का पूरा विग्रह दिखाई देगा, केवल शिवलिंग नहीं, उनका चेहरा, उनकी शांत मुद्रा, उनकी श्मशान की मुद्रा-जो शास्त्रों में वर्णित है, वे भगवान शिव अपने-आप में पूर्ण रूप से दिखाई देंगे तब तुम्हें महसूस होगा कि ये शिव अपने-आप में अद्भुत हैं, अनिवर्चनीय हैं, इसलिए इनको देव नहीं कहा हैं, महादेव कहा है।
जरूर कोई बात है। यह एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव में जाने की क्रिया है और आपको जीवन में सात पड़ाव पार करने हैं। पहला देह, देह के बाद में प्राण और प्राण के बाद में आत्मा, इस तरह से ये सात शरीर हैं, और ये सात शरीर कुण्डलिनी के सात चक्र हैं। अब उनको ज्ञान था ही नहीं, इसलिए उस पुष्पदंत को पूरे पचहत्तर साल लगे और साधना तपस्या करने के बाद में जो ज्ञान और चेतना प्राप्त हुई कि हम देह से शरीर में चले जाएं—–और जब हम चले जाऐंगे, तो अपने-आप में दिव्य दर्शन प्राप्त होने लग जाएंगे, फिर जो शंकराचार्य बोल रह हैं – ‘शिवोऽहं शंकरोऽहं’ आप भी बोल पाएंगे। मैं तुम्हे एक मूलचन्द से शिवोऽहं बना दूं, तुम्हें हरिकिशन से शंकरोऽहं बना दूं-ये मेरी बहुत बड़ी उपलब्धि है, ये तुम्हारे ऊपर बहुत बड़ा ऋण है कि मैं ऐसा करूं और ऐसा मुझे करना ही है। और यदि आप मुझसे सम्पर्कित ही नहीं होंगे—– अपनी देह लेकर अलग खड़े होने से तो शरीर प्राप्त नहीं होगा—-होगा केवल शिव द्वारा बताये दो सूत्रों ‘सेवत्वं’ और ‘समर्पणत्वं’ के द्वारा। इसलिए मैं बात कह रहा हूं कि तुम नदी की तरह बहो, रूको नहीं, तुम्हें बहना है, बीच में चार आदमी खड़े होंगे, तो होंगे, तुम तो केवल अंधे हो जाओ। अगर सोच-समझकर समर्पण किया, तो वह समर्पण ही क्या हुआ?’
अकबर पांच बार नमाज पढ़ता था, एक बार जब वह बाहर गया हुआ था तो दोपहर को वहां मार्ग में ही, उसने चादर बिछाई और नमाज पढ़ने लगा। एक सत्रह या अठारह साल की लड़की थी, उसको टाइम दे रखा था उसके प्रेमी ने, यह कहकर, कि बारह बजकर पन्द्रह मिनट तक नहीं आई तो मैं चला जाऊंगा। बारह बजकर बारह मिनट हो गये, तो वह भागती हुई बेचारी घर से निकली—-और चादर पर पांव रखती हुई चली गई। अकबर को बड़ा गुस्सा आया कि वह कौन लड़की है जो चादर पर पांव रखकर चली गई। वह अने प्रेमी से मिली, पांच सात मिनट बात की, फिर जब लौटी, तो उसके पांव धीमे-धीमे चल रहे थे—और वह उस चादर के पास से, ज्योंही निकलने लगी, तो अकबर ने उसको रोक लिया और कहा- ‘तुझे दिखाई नहीं दे रहा? इस चादर के ऊपर पांव रखकर चली गई।’ उसने कहा- मैं तो अपने प्रेमी से मिलने के लिये इतनी पागल सी थी, कि कुछ दिखाई नहीं दे रहा था पर तुम क्या कर रहे थे? नमाज पढ़ रहा था।
तो तुम्हें कैसे मालूम पड़ा, कि में पांव रख कर गई हूं, फिर तो तुम नमाज पढ़ ही नहीं रहे थे, तुम तो खुदा के पास थे ही नहीं, तुम तो मुझे देख रहे थे’। समर्पण अपने-आप में अंधा होता है, बहरा होता है— और लीन हो जाने की क्रिया ही अपने-आप में सही समर्पण है। अब मैं खड़ा हूं—-और तुम मिल ही नहीं सको- चलो आज भीड़ बहुत है, कल मिलेंगे। —फिर कुछ नहीं हो सकता, संभव ही नहीं है, और मेरे पांव पकड़ने से भी कुछ नहीं होगा, मैं तो क्रिया सिखा रहा हूं। नदी को किसी ने सिखाया नहीं कि समुद्र में मिलने के लिए बहुत तेजी से दौड़ना चाहिए और जब नदी भागती है, तब वह अपने-आप में समुद्र बन जाती है—– और यह भी जीवन की एक क्रिया है। जिस प्रकार हास्य जीवन की एक क्रिया है, रोना भी जीवन की एक क्रिया है। इसलिए कहा है, कि शिवत्वं, सेवत्वं, समर्पणत्वं- मिटा दीजिये अपने-आपको, जब मिट जाने की क्रिया होगी, तभी कुछ प्राप्त होगा।
जैसे ही बीज जमीन में समाया, तो एक अंकुर फूटा और समय के साथ-साथ एक वटवृक्ष बन गया, पर वह बीज कितना सा था, छोटा सा तो था, पर मिटा दिया अपने-आप को कि मेरा जो होगा, सो होगा- ऐसा निश्चय करके जमीन में गड़ गया, तो वह एक दिन विशाल वटवृक्ष बन गया, चाहे वह दस साल बाद बना, चाहे वह पन्द्रह साल बाद बना-पर बना अवश्य। मैं भी बीज था तुम्हारी तरह और जमीन में गड़ गया, न पत्नी देखी, न पिता को देखा, न सम्बन्धी को देखा, बस सोचा-जो कुछ होगा, देखा जायेगा, या तो बीज विशाल वटवृक्ष बन जायेगा, कुछ न कुछ तो होगा जरूर, खाली बीज नहीं रहेगा—-और आज मैं आपके सामने हूं जिसकी छाया के नीचे आज कम से कम हजारों लोग बैठते हैं। तुम भी ऐसा वटवृक्ष बन सकते हो, यदि समर्पण हो, मिटने की क्रिया हो अपने-आप में। यदि तुम सोचते हो कि मैं बीज हूं और मिट भी जाऊंगा, तो इससे क्या फायदा होगा? ‘अभी रूक गये, तो कभी वटवृक्ष नहीं बन सकते।’ इसलिए गुरु ने पुष्पदंत को बताया- ‘सेवत्वं, समर्पणत्वं, साधकत्वं, शिष्यत्वं।
यह जीवन की स्टेज, अपने-आप में देह से शरीर में जाने की क्रिया है, और मैंने अभी तुमसे वायदा किया है कि मैं तुम्हें देह से शरीर में ले जाने के लिए समर्थ हूं। मैं घबराता हूं नहीं, घबरायेगा वह, जो अपूर्ण होगा, आधा घड़ा हमेशा आवाज करेगा- ‘सम्पूर्ण कुम्भो न करोति शब्द’ यदि घड़ा भरा हुआ है, तो आवाज करेगा ही नहीं। मुझसे इतनी क्षमता है कि मैं तुमको देह से शरीर में ले जाऊं—- और वहां पहुंचते ही तुम में एकदम से प्रकाश पैदा होगा। जब कृष्ण ने कहा- ‘हे अर्जुन! पूरा ब्रह्माण्ड मेरे अन्दर है, पर तू समझता नहीं। तू मां-बाप को क्या देख रहा है? मेरा अपने-आप में विराट रूप है, देख मुझ में देख।’ और तुम्हें भी मैं कह रहा हूं, तुम्हारा पूरा ब्रह्माण्ड तुम्हारे शरीर के अन्दर है, यह शिवलिंग, यह सोमनाथ सभी कुछ तुम्हारे अन्दर है, यदि अन्दर देखोगे, तो तुम्हें साक्षात् शिव-विग्रह दिखाई देगा—- और बाहर देखोगे, तो पत्थर की मूर्तियों के अलावा कुछ दिखाई नहीं देगा—और यह सब तभी हो पायेगा, जब देह से शरीर में जाओगे। मैं चाहता हूं कि आप उस अनुभव को प्राप्त करें, जो मैं आपको बता रहा हूं, जो उस गुरु ने पुष्पदंत को समझाया है, उसी कड़ी को —-और यही वह तथ्य है, जहां पुष्पदंत के गुरु ने उसको समझाया था कि यही देह से शरीर में जाने की क्रिया है—-और वही क्षण पांच हजार साल बाद पुनः आ रहा है, जब एक गुरु अपने शिष्य से कह रहे हैं कि तुम्हें वापिस इस देह से शरीर में ले जाऊंगा- ले जाऊंगा तभी आप शिव को अपने सामने देख पायेंगे, तभी आप अपनी छठी इंद्रिय को जाग्रत कर सकेंगे—- तब आपके जीवन को ऊर्ध्वगामी बनने की ओर पहला कदम होगा।
जिस प्रकार से बिना प्राणों के शरीर रह नहीं सकता उसको जलाना ही पड़ता है और बिना शरीर के प्राणों का आधार नहीं बन सकता है। इसलिए कठोपनिषद् अपने आप में एक सुन्दर व्याख्या है और इस कठोपनिषद् में इन्हीं प्रश्नों के उत्तर दिये हैं और मैंने उस प्रवचन में एक बात बताई थी कि अवश्य ही गुरु का ऋण शिष्य के ऊपर इतना अधिक है कि यदि शिष्य अपने जीवन को समर्पित भी कर दें तब भी गुरु के ऋण को चुका नहीं सकता। इस शब्द को सबसे कहने से पहले मैंने गुरु और शिष्य की परिभाषा व्यक्त की। अनुयायी या गुरु की परिभाषा नहीं दी है। शिष्य का चिंतन केवल गुरु होता है गुरु के अलावा कुछ नहीं होता है। गुरु का चिंतन केवल शिष्य होता है उसके अलावा और कुछ नहीं होता है। गुरु का चिंतन यह होता है कि शिष्य को अपने समान बना दे। अपने ज्ञान की, अपनी चेतना की, प्राणों की ओर अपनी ऊंचाई तक उसको अग्रसर करे और जब शिष्य दूसरों को मार्ग दिखाने में सक्षम हो जाता है, अपनी बात को दूसरे के मन में उतारने की क्रिया जान लेता है। अपने शब्दों को, अपने वचनों को, अपनी क्रियाओं को, अपनी साधनाओं के माध्यम से जब दूसरे के शरीर में, प्राणों में उतर जाता है तब गुरु को सबसे ज्यादा प्रसन्नता होती है।
तब गुरु उस बात का एहसास करता है कि मैंने जो परिश्रम किया है वह सार्थक हुआ है और जब मैं यह बात कहता हूं तो इसके बीच में कहीं पर भी स्वार्थ चिंतन नहीं है। इसके बीच में वह चिंतन नहीं है कि शिष्य गुरु को कुछ दें या धन दें, या वस्त्र दें, आभूषण दें, यह इस बीच में कहीं पर भी कुछ नहीं आया। यह तो परस्पर आत्मिक सम्बन्ध है। प्राण यह नहीं कह सकते कि शरीर मुझे कुछ दे और शरीर प्राणों को नहीं कह सकता है कि मुझे यह दों। दोनों आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए है। वह स्थिति जब आती है तब वह शिष्य होता है और गुरु की वह स्थिति तब आती है जब वास्तव में वह गुरु हो। वास्तव में गुरु के ऊंचे की स्टेज के ऊपर की स्टेज ‘सद्गुरु’ उस ‘सद्’ सद् का मतलब है पूर्णता की ओर अग्रसर करने की क्रिया, ‘सद्’ का मतलब है पूर्ण और प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में अपूर्ण है। अपूर्ण है ज्ञान से, अपूर्ण है चिंतन से, अपूर्ण है विचार से, अपूर्ण है सुख से, अपूर्ण है परिवार से, और अपने आप में अपूर्ण है क्योंकि अपूर्ण है इसलिए आप लोग मृत्यु की तरफ चलें जाते हैं।
पूर्ण आदमी तो मृत्यु की ओर जा ही नहीं सकता। पूर्ण में से अगर पूर्ण निकाल दे तब भी पूर्ण ही बचेगा। एक शून्य में से शून्य निकाल दें तो पीछे एक या दो नहीं बच सकते, शून्य ही बचेगा और उस शून्य में एक शून्य जोड़ दे तब भी शून्य बचेगा। इसलिए शून्य नहीं मिट सकता और शून्य को हम पूर्ण कहते हैं। कोई शून्य कहते हैं कोई पूर्ण कहते हैं। इसीलिए पूर्ण मिट नहीं सकता और जो मिट जाता है, वह जो मर जाता है, जो समाप्त हो जाता है, जो श्मशान की ओर जा सकता है वह पूर्ण नहीं बन सकता। इसलिए जो उस रास्ते पर नहीं आता है वह पूर्ण है। पैदा होते ही व्यक्ति मृत्यु की ओर ही जाता है, यह स्वभाविक क्रिया है मगर कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जो बीच में रूक जाते हैं और वे रूक जाते हैं उस समय बीच में कही सद्गुरु मिल जाएं, गुरु तो मिल जायेंगे गुरु तुम्हें मिल जायेंगे हरिद्वार में, गुरु तुम्हें मिल जायेंगे मथुरा में, गुरु तुम्हें मिल जायेंगे वृन्दावन में, कई जगह गुरु मिल जायेंगे और कई बार तुम नहीं ढूंढोगे तब भी गुरु मिल जायेंगे मगर सद्गुरु नहीं मिल सकता।
क्योंकि सद्गुरु आत्मा और प्राण का पूर्ण रूप से सम्बन्ध स्थापित करने वाला होता है। बाकी सब तो गुरु हैं और गुरु कुछ स्वार्थी हैं और गुरु खुद कुछ लेने की इच्छा रखता हो गुरु कुछ पाने की क्रिया करता है तो वह गुरु तो बन सकता है। उसको हम गुरु कह सकते हैं मगर वह सद्गुरु यदि खुद ही लेने की इच्छा रखेगा तो वह क्या देगा? तो वह लेकर क्या करेगा? जब मैं तुमसे कुछ भिक्षा मांगने की कल्पना करूंगा कि तुम मेरे पैर दबाओगे तुम मेरे चरण धोओगे तब मैं गुरु ही रहा, यदि मेरी इच्छाएं ही खत्म नहीं हुई, मैं पूर्ण बना नहीं सकता इसलिए वस्त्रें को, या शरीर के चिंतन को या शरीर के ढांचे को देखकर हम गुरु को नहीं पहचान सकते। सद्गुरु की पहचान वह है कि जो अत्यन्त ही सरल और सामान्य जीवन व्यतीत करने वाला हो। सामान्य का मतलब है फकीर नहीं, अगर उन्हें मखमली गद्दे पर सुला दे तो नींद ले सकता है और दूसरे दिन उसको बिल्कुल टाट पर सुला दे तब भी उसी मस्ती के साथ में नींद ले सकता है। यह उसके जीवन का एक चिंतन है। वहां पर भी वह उतना ही सुखी है।
यदि किसी ने पांच हजार रूपये दे दिये तब भी वह सुखी है और यदि किसी ने कुछ भी नहीं दिया है तब भी उसके मन में उसके प्रति कोई आक्रोश नहीं है। ऐसा व्यक्ति सद्गुरु बन सकता है। इसीलिए यह नहीं कि शिष्य की ही कसौटियां है, कठोपनिषद् कहता है कि शिष्य से भी गुरु बनना बहुत कठिन है और गुरु जो स्वयं पूर्ण हो और उस पूर्ण की परिभाषा कठोपनिषद् में कहा है-
गुरु से सद्गुरु को पहचानने की तीन क्रियाएं है, हम किस तरीके से सद्गुरु को पहचानें। गुरु और सद्गुरु में अंतर कैसे करें? आंखों से ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि नकली चीजे बहुत ज्यादा चमकती हैं अगर सोने को रख दीजिए और पीतल पर सोने की पालिश कर रख दीजिए तो वह ज्यादा चमकेगा। नकली जो हीरे बनते हैं वे असली से बहुत ज्यादा प्रकाश देने वाले बनते हैं, और तुम्हारी आंखें नकली है, तुम्हारा शरीर नकली है, तुम्हारा चिंतन नकली है, तुम्हारे विचार नकली है इसलिए नकली व्यक्ति नकली से ज्यादा जल्दी सम्बन्ध स्थापित कर सकता है इसलिए तुम उस गुरु के मोह पाश में ज्यादा फंस जाते जो केवल याचक वृत्ति वाला है, जिसको मैं कई बार प्रवचन में भिक्षुक कहता हूं जो भीख मांगने वाला हो, भिक्षुक हैं वे गुरु बन ही नहीं सकते अपितु गुरु शब्द को शर्मिन्दा करते हैं, इसलिए गुरु अगर तुम्हारे प्रारब्ध में हैं तो कहीं बीच में मिल ही जाते हैं।
वह उस तुम्हारी यात्रा में, जो यात्रा जन्म से मृत्यु की ओर है उस रास्ते पर तुम जा रहे हो यह जरूरी नहीं कि ऐसा सद्गुरु तुम्हारे पिता को कहीं मिल जाए, यह भी नहीं कि तुम्हारे दादाजी को मिल जाए या परदादा को मिल गए हो, नहीं भी मिले। तुम्हारे जीवन में भी नहीं मिले और यह भी हो सकता है, तुम्हारे जीवन में मिले और तुम नहीं पहचान सको और हो सकता है कि तुम्हारे पाप और कर्म इतने फूटे हुए हों कि वह मिल भी जाए तो तुम पास में से निकल जाओ, उसमें कुछ नहीं हो सकता। मगर कठोपनिषद् में कहा है सद्गुरु की पहचान की तीन स्थितियां है और वे स्थितियां हैं। वह अत्यन्त उच्चकोटि का जीवन जी सकता है, अत्यन्त सामान्य जीवन में भी आनन्द की स्थिति में रह सकता है। राजा के महल में उसी मस्ती के साथ महल मे सो सकता है, और चौबीस तरह के पकवानों को खाकर भी तृप्ति महसूस कर सकता है। मगर ठीक शाम को उसी आनन्द के साथ किसी झोंपड़ी में आनन्द के साथ हो तो उसी आनन्द के साथ रूखी सूखी रोटी खाकर करके शांति महसूस कर सकता है। दूसरा उस गुरु की या सद्गुरु की पहचान के बारे में कठोपनिषद् स्पष्ट करता है, जिसके शब्दों में कुछ प्रभाव हो जिसके सामने शब्द नृत्य करते हों, शब्दों का प्रवाहमान स्वरूप हो और शब्द को शक्ति कहा गया हैं।
शब्द अपने आप में शक्ति है, जो उस शक्ति का स्वामी हो और वे सब उसके सामने नृत्य करते हो जिस शब्द को वह ले, पकड़े और व्यक्त करे उसके लिए वह शब्दों की न्यूनता नहीं रहती और जब शब्द को व्यक्त करते हैं तो वह शब्दों के माध्यम से बात को सामने वाले के मन में उतार देता है, हृदय में उतार देता है, प्राणों में उतार देता है और सामने वाला एक दम शांत हो करके सुनता ही रहता है। एहसास करता है एक नवीन जीवन, कुछ नवीन चिंतन है, इन शब्दों में व्याख्या है। यदि शब्द हैं और कुछ भी प्राप्त नहीं हो रहा है। जो शब्दों पर पूर्ण रूप से अधिकार रखता हो। ऐसा अधिकार नेता भी रखता है और नेता भी बहुत सुन्दर भाषण देता है मगर वह हृदय में नहीं उतरता है वह दिमाग में उतरता है वह कहता है कि मैं पांच साल में ऐसा कर दूंगा, शब्दों का जादूगर तो वह भी है, वह भी डेढ़ घंटे भाषण देता है और भाषण इतना कि हजारों लोग सुनते हैं मगर वे हृदय में नहीं उतरता, वह दिमाग में उतरता है, दिमाग सोचता है हो सकता है कि यह नल लगा देगा और सड़कें ठीक करा देगा और मेरा यह काम भी करवा देगा, यह सब मस्तिष्क के काम हैं वास्तव में हृदय में अपने शब्दों को उतार सके वह कठिन क्रिया है। वह क्रिया कोई नेता नहीं कर सकता, वह तो केवल सद्गुरु ही कर सकते हैं।
इसलिए उसके माध्यम से उस गुरु को पहचान सकते हैं और तीसरा सद्गुरु की पहचान यह है कि अत्यन्त समीपता तुम अनुभव कर सको। वह हिमालय किसी काम का नहीं अगर हिमालय में हम जा नहीं सके वह हिमालय क्या काम का है? उसकी अपेक्षा वह पहाड़ी हमारे लिए ज्यादा ‘वेल्युएबल’ है जिस पर हम चढ़ तो सकें, जिस पर हम चल तो सकें। वह गंगा किस काम की जहां हम जा भी नहीं सकें इसलिए वह गुरु जो महीने भर में एक बार तुम्हें झांकी दें और तुम्हें मिले ही नहीं, मां आए नहीं, दो महीने में एक बार बाहर निकलती थी तुम्हें झांकी है, पट खुलते हैं बस कुछ सैकण्ड की झांकी देते हैं और झट से पट बंद कर देते हैं ऐसे तो भगवान नहीं बन सकते, भगवान नहीं मिल सकते, वह पुजारियों ने उस भगवान को जबरदस्ती बन्द कर दिया है। वह भगवान कैसे जिनको हम देखकर तृप्ति अनुभव नहीं कर सकते, हमारी तृप्ति हो ही नहीं।
वह गुरु कैसा जो तुम्हारी समीपता अनुभव कर ही नहीं सकता, जिनके पास हम हर क्षण उपस्थित हो सके और जो हमारे पास उपस्थित रहे, हर क्षण हमारे उत्तर देने वाले होना चाहिए जो हमारे दुख में, सुख में, चिंतन में, विचार में अनुरक्ता महसूस कर सकता हो जो तुम्हारे परिवार का एक सहायक हो, मार्गदर्शक हो, एक गुरु हो, एक पिता हो, एक चिन्तक हो और तुम्हारे दुख में उतना ही दुखी हो तुम्हारे सुख में उतना ही सुखी हो। तुम्हारे बीच में उतनी ही प्रसन्नता अनुभव कर सकता हो और जब ऐसी स्थिति बनती है तब गुरु और शिष्य का सम्बन्ध शरीर और प्राणों का बन जाता है। और जब यह सम्बन्ध बन जाता है तो उस प्राण को शरीर से अलग कर नहीं सकते कर सकते हैं। साधना के माध्यम से। यदि शरीर और प्राणों में थोड़ी दूरी हो भी जाती है तो शरीर उसमें बहुत तड़पता है। कहते हैं कि तुम मेरे प्राण स्वरूप हो और जब तुम जाते हो तो बहुत बैचेनी आती है, जब तुम्हारी याद आती है मन बड़ा बैचेन हो जाता है। जो अत्यन्त प्रिय होता है हम उससे जब दूर जाते हैं तब बड़ी छटपटाहट भी महसूस होती है। इसलिए कि प्राणों का कुछ हिस्सा दूर बैठा है और यह छटपटाहट सी बने यह गुरु की ड्यूटी है जिस शिष्य में छटपटाहट बने, शिष्य का गौरव है, क्योंकि यह छटपटाहट उसे जीवन की पूर्णता की ओर अग्रसर कर सकता है क्योंकि उस छटपटाहट में स्वार्थ नहीं है, इस छटपटाहट में तुम्हारा उस गुरु से कोई शरीर का सम्बन्ध नहीं है।
मैं कई बार कह चुका हूं कि तुम्हारा तथा मेरा कुछ सम्बन्ध नहीं है, मैं तुम्हारा बेटा नहीं हूं, मैं तुम्हारा बाप नहीं हूं, मैंने तुम्हें पैदा किया नहीं, शरीर से मैं तुम्हारा भाई-भी नहीं, मैं तुम्हारी बहन भी नहीं हूं, तुम्हारा बहनोई भी नहीं, तुम्हारा साला भी नहीं हूं, मैं तुम्हे परिवार का नहीं, तुम्हारे समाज का नहीं हूं, तुम्हारा सम्बन्धी नहीं हूं, मैं तुम्हारा कुछ हूं ही नहीं क्योंकि तुम्हारा मेरा शरीर का सम्बन्ध नहीं है। तुम्हारा मेरा प्राणगत सम्बन्ध है, आत्मागत सम्बन्ध है।
इसलिए तुम मुझे एक बार देख भी सकोगे तो तुम्हारे प्राण से देख सकोगे, शरीर से नहीं देख सकोगे। इस कुर्ते को पहन कर तुम मुझे पहचान भी नहीं सकोगे और जब तुम्हारे साथ में गुरु होगा तो तुम सोचोगे कि गुरु जी तो वही सामान्य है, तुम नहीं पहचान सकोगे क्योंकि तुम देख रहे हो स्थूल दृष्टि से शरीर को और जिस दिन तुम अपने प्राणों से देख लोगे उस दिन तुमको छटपटाहट पैदा होगी उस दिन मैं दो घंटे नहीं आऊं तो तुमको व्याकुलता होगी कि गुरुजी दो घंटे हो गए अभी आए नहीं। चला जाऊंगा तो तुम व्याकुलता सी अनुभव कर लोगे गुरु जी आज आए नहीं सुबह के बाद दो घंटे हो गये गुरुजी को आज देखा नहीं व्याकुलता, एक आकुलता, बैचेनी एक छटपटाहट हो यह शिष्य का सबसे बड़ा गौरव है, यह शिष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है, यह शिष्य की सबसे बड़ी पूजी है।
और अगर शिष्य है तो ऐसी स्थिति में शिष्य गुरु के बिना रह नहीं सकता ओर गुरु भी शिष्य के बिना रह नहीं सकता क्योंकि वह गुरु हैं, पिता नहीं वह भाई, कोई सम्बन्धी नहीं, वह गुरु है और गुरु का पहला और अन्तिम कर्त्तव्य शिष्य को अपने में पूर्ण कर देने की क्रिया है। अगर ऐसा नहीं करता तो वह भिक्षुक है। फिर तो वह तुम्हारी भीख खाकर, तुम्हारे पांच रूपये पर जीवन यापन करने वाला है। यह हो सकता है कि तुमसे पांच हजार रूपये इकट्ठे कर लिये हो धोखे से, छल से, कपट से, शिष्यों को मूर्ख बना करके ऐसा कर सकते हैं ओर करते हैं। मन्दिर बना देते हें और एक आश्रम बना देते हैं और ऐसा करते हैं और ऐसा कर सकता था, मैं इससे ज्यादा आश्रम बना सकता था। मेरी क्षमता इतनी है कि चाहे वह उन गुरुओं से एक हजार गुरुओं को मिलाकर जो पिण्ड बनाया जाएं उनसे ज्यादा सक्षम था, हूं भी, रहूंगा भी, मगर मैं इस प्रकार के ढकोसले बाजी में विश्वास नहीं करता हूं। मेरे पीछे पांच हजार अनुयायी बने यह चिंतन मेरा नहीं है, मेरे पीछे दस भी बनें और दस भी नहीं, मेरे पीछे मैं पांच भी बना सकूं तब भी मेरे जीवन की पूरी सार्थकता बन सकती है क्योंकि पूरे लम्बे चौड़े आकाश में, फलक में एक ही सूर्य है जो पूरे संसार को प्रकाशित कर सकता है।
इस रास्ते पर बिल्कुल नयी नीति सफल नहीं हो सकती यह तो निरन्तर चलने की क्रिया है जिसमें अकेले ही चलना पड़ता है और अकेले चलने में डगमगाने का डर है अगर तुम्हारे साथ अप्रत्यक्ष रूप से तुम्हारा गुरु बैठा है, मार्गदर्शक है, वह बिल्कुल तुम्हें देखता है और बराबर यह देखता है कि इसमें आंच झेलने की शक्ति हैं भी या नहीं? आंच को आगे झेल नहीं पायेगा तो दीया बन भी नहीं पायेगा, बिखर जायेगा। अभी इस समय एक दम से इस कशमकश में तो आगे जाकर करेगा भी क्या?
इसलिए वह हर बार तुम्हें परखता है और हर बार परखने में तुम्हारे मन की गहराई को भी समझता है। जब तुम्हारे परिवार वाले आते है तो वे कहते हैं, ‘गुरु’ जी ले जाना है तो ले जाओ एक सेकण्ड में।’ तुम शायद विश्वास करने वाले हो जो वह कहता है ले जा, तो कहते हैं ले जा। मैं नहीं कहता कि नहीं नहीं, मत ले जाओ। गुरु जी ने कहा है, हरिद्वार में ले जाऊ? क्यों ले जाओं मैं सिखा रहा हूं, यह बहुत बड़ा ज्योतिषी बनेगा। तुम नहीं समझते और तुम्हें सौ दो रूपये मैं दे देता हूं तुम चिन्ता मत करो। गुरु तो ऐसा करता है और मगर तुम्हें साधना मैं सिखा देता हूं। पर शायद तुममें बहुत अच्छे संस्कार है साधना के प्राणों की ऊर्जा कुछ तुममें पहुंची है और तुम डट कर खड़े हो। वे आते हैं फिर भी तुम डट कर खड़े होते हो उनके सामने खड़े होते हैं, मैं नहीं जाता क्योंकि वहां पर तुम्हें सुविधाएं ज्यादा है निश्चित रूप से मैं तुम्हें सुविधाएं नहीं दे पा रहा हूं तुम्हें उत्तम पकवान भी नहीं खिला रहा हूं। तुम्हारे सोने के लिए पलंग नहीं बिछा सकता हूं तुम्हें मखमलदार गद्दा नहीं दे सकता मगर उसके बावजूद भी जो तुम्हें दे सकता हूं वह संसार में मेरे बावजूद दूसरा कोई नहीं दे सकता है।
और उस रास्ते पर मैं तुम्हें चलाने में सक्षम हूं, इसलिए कि तुम्हारा प्रत्येक कार्य मेरे ऊपर ऋण है और उस ऋण को मुझ में चुकाने की पूर्ण क्षमता है और मैं पूरा प्रयत्न करता हूं। एक-एक क्षण का तुम्हारा कार्य मेरी डायरी में लिखा हुआ है। तुम्हारे, प्रत्येक व्यक्ति का और एक-एक क्षण का मूल्य इससे दुगना चुकाता हूं जिससे कि जिन्दगी में भूल चूक, ब्याज का कोई हिसाब का कोई हिस्सा बाकी न रह जाये क्योंकि मैं मुक्ति का मार्ग जानता हूं। मैं इस मोक्ष का मार्ग जानता हूं, मैं सिद्धाश्रम देख चुका हूं जिस क्षण जब चाहूं जा सकता हूं, क्योंकि मुझे सिद्धाश्रम अच्छा लगता है।
यह तुम्हारी न्यूनता है कमियां हैं तुम्हें तो यह होना चाहिए कि गुरुदेव मुझे और आंच दीजिये इतनी तेज इतनी वेदना, इतना दुःख, दीजिये कि मैं कुन्दन बन सकूं, मैं सोना बन सकूं, ऐसा सोना कि मैं देवताओं का मुकुट बन सकूं, देवताओं के सिर पर खड़ा हो सकूं और मैं चाहता हूं कि तुम उस जगह पहुंच सको। चाहता हूं कि जो तुम्हारी पीढि़यां नहीं कर सकी वह तुम कर सको। मैं चाहता हूं कि तुम सूर्य की तरह देदीप्यमान हो सको, प्रकाश दे सको, चेतना दे सको, और मैं तुम्हे ऐसा ही आशीर्वाद दे रहा हूं। पूर्ण तरह से आशीर्वाद दे रहा हूं। पूर्ण तरह से आशीर्वाद है कि तुम जीवन में सफलता और पूर्णता प्राप्त कर सको। और मेरे भी जीवन के अन्दर की पहली उपलब्धि होगी, जब आप-अपने जीवन में उस क्षण की प्राप्ति कर सकेंगे, यही हृदय से आशीर्वाद है।
सद्गुरुदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी
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