सम्पूर्ण पृथ्वी पर उच्चतम चैतन्य स्थल के रूप में स्थापित यह शक्तिपीठ अन्य 52 शक्तिपीठों में सबसे महत्वपूर्ण है। मां आदिशक्ति का त्रिपिण्ड स्वरूप में साक्षात् दर्शन शतश्रृंग पर्वत पर स्थित पवित्र गुफा में ही संभव है, जहां मां अपने पूर्ण वात्सल्य के साथ महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती के रूप में विद्यमान है। और प्रदान करती है, अपने भक्तों को वह सब कुछ, जो उनकी इच्छा होती है, जो उनकी मनोकामना होती है, क्योंकि मां शब्द ही ऐसा है, जो अपने सुपुत्र या कुपुत्र दोनों पर ही समान रूप से प्रेम व आशीर्वाद प्रदान करती है।
जगतजननी मां अपने आराधकों को अपनी प्राणस्विता, तेजस्विता, ऊर्जस्विता प्रदान कर उनके जीवन को धन्य कर देती हैं, क्योंकि मां अपने पुत्रों को कभी भी असहाय या अशक्त नहीं देख सकती, मां को सर्व शक्तिदायिनी स्वरूप में उसके हृदय, उसके प्राणों व तन-मन में समाहित होना ही पड़ता है। यदि उस शक्ति को अपने भीतर समाहित करने की प्रक्रिया ज्ञात हो तो, अपने पुत्र की पुकार पर मां को विवश होना ही पड़ता है। क्योंकि मां करूणा, ममत्व और स्नेह की प्रतिमूर्ति है।
माता वैष्णों तो आदिशक्ति हैं, और विश्व की सभी शक्तियां इसी महान शक्ति से उत्पन्न होती है, ये परम विद्या तथा वेदों की आधार हैं, इसलिए माता वैष्णों को आदिशक्ति से सम्बोधित किया जाता है। जगत्जननी आदिशक्ति जिनके विभिन्न स्वरूप हैं, जो अपने विभिन्न स्वरूपों में भक्तों का कल्याण करते हुए चराचर जगत में विचरण करती हैं, जो मनुष्य तो क्या शिव के लिए भी शक्ति हैं, जिसके बिना ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी अपूर्ण हैं, अपने भक्तों के कल्याण के लिए माता ने प्रत्येक युग में अवतरण लिया है।
लोक कथाओं में वर्णित है कि द्वापर युग में हस्तिनापुर के राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियां कुंती और माद्री के साथ एक बार वन में घूमने निकले, घूमते हुए राजा की नजर एक मृग और मृगी पर पड़ी जो परस्पर आपस में मिलन कर रहे थे। राजा पाण्डु ने दोनों को अपने बाणों से अतीव घायल कर दिया। घायल मृग ने राजा से प्रश्न किया, हे राजन! मुझे निरपराध को मारकर आपको क्या मिला? मैं किन्दम नाम का तपस्वी मुनि हूं। मैं प्रायः मृग के रूप में भ्रमण करता रहता हूं। मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि आप यदि कभी भी अपनी पत्नी के साथ रति करेंगे तो उसी अवस्था में आपकी मृत्यु होगी और रति में शामिल वह पत्नी भी आपके साथ सती हो जायेगी। यह कहकर किन्दम ने प्राण त्याग दिया।
मृगरूपधारी किन्दम मुनि की मृत्यु से पाण्डु को किसी सगे-सम्बन्धी के मृत्यु जैसा दुख हुआ। उन्होंने उसी क्षण सांसारिक जीवन का त्याग कर मोक्ष प्राप्ति हेतु तपस्या करने का निश्चय किया। तथा अपनी दोनों पत्नी कुन्ती और माद्री से कहा कि आप दोनों राजधानी को लौट जायें और परिवार के अन्य सदस्यों से कहना कि पाण्डु ने संन्यास ले लिया है। परन्तु वे नहीं मानी और उन्होंने पतिव्रता का पालन करते हुए उनके साथ वन को चल पड़ी। पाण्डु ने अपने राजकीय वेशभूषा, बहुमूल्य वस्त्र तथा पत्नियों के अंलकार ब्राह्मणों को दे दिये और उनसे कहा आप लोग हस्तिनापुर जाकर कह दें कि राजा पाण्डु अर्थ, काम, और विषय सुख छोड़कर अपनी पत्नियों के साथ वनवासी हो गए हैं।
पाण्डु ने शतश्रृंग पर्वत पर अपने संन्यास जीवन का आरम्भ कुटिया बनाकर पत्नियों के साथ वहीं निवास करने लगे। वहां पर रहने वाले सिद्ध योगी, ऋषि, मुनि इनसे बड़ा प्रेम और स्नेह की भावना रखते। मंत्र, तंत्र साधना की गूढ़ता का ज्ञान प्रदान करते और पाण्डु भी बड़ी नम्रता और प्रेम से उनकी सेवा में तत्पर रहते थे। वहां के ऋषि-महर्षि ब्रह्माजी के दर्शन के लिए ब्रह्मा लोक जाने लगे। यह देखकर ब्रह्माजी के दर्शन की लालसा पाण्डु में भी जागी और वह भी पत्नी सहित ब्रह्मा लोक जाने के लिए तैयार हो गए परन्तु ऋषियों कहा- हे आर्य पुत्र! मार्ग बड़ा कठिन है। वहां केवल सिद्ध ऋषि-महर्षि ही जा पाते हैं, ऐसे दुर्गम मार्ग पर रानी कुन्ती और माद्री जो संतान हीन हैं वे कैसे चल सकेंगी? अतः आप इस कठिन यात्रा का विचार छोड़ दें।
पाण्डु ने कहा- मुझे यह ज्ञात है कि संतानहीन के लिए स्वर्ग का द्वार बंद होता है। मनुष्य चार ऋण लेकर धरती पर जन्म लेता है- पुत्र ऋण, ऋषि ऋण, देव ऋण, मनुष्य ऋण। पुत्र तथा श्राद्ध से पितर, यज्ञ से देवता, स्वाध्याय और तपस्या से ऋषि तथा परोपकार से मनुष्य का ऋण उतरता है। मैं और सब ऋणों से मुक्त हो गया, किन्तु पितरों का ऋण मेरे ऊपर अभी भी है। अभी मेरी अभिलाषा केवल यही है कि मुझे पुत्र की प्राप्ति हो। योगी जन ने कहा कि हम दिव्य दृष्टि से देख रहें है कि आपको देवताओं के समान पुत्र की प्राप्ति होगी। महात्मा पाण्डु भम्रित हो गए एक तरफ एक योगीजन कह रहें हैं देवताओं के समान पुत्र की प्राप्ति होगी और दूसरी तरफ ऋषि किन्दम के श्राप का भय। वे बड़े असमंजस में पड़ गए। दोनों बातें ऋषियों द्वारा ही कही जा रही थी। उन्होंने काफी विचार के उपरान्त अपने भाग्य की डोर माता वैष्णवी पर छोड़, मां की आराधना और तपस्या में लीन हो गए।
ऋषियों का कथन सुनकर रानी कुन्ती को बचपन में प्राप्त मंत्र का स्मरण आया जो उनकी सेवा से प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने प्रदान कर कहा था कि तुम इस मंत्र से मां त्रि-शक्ति के सान्निध्य में जिस भी देवता का आह्नान करोगी, वह न चाहते हुए भी तुम्हारे अधीन हो जायेगा, पति-पत्नी दोनों ने माता वैष्णवी की साधना सम्पन्न की और माता के दिव्य सान्निध्य में देवताओं का आह्नान कर पुत्र प्राप्ति का वरदान प्राप्त किया।
आश्विन मास में नवरात्रों की पंचम तिथि को प्रथम पुत्र युधिष्ठर का जन्म हुआ। फिर एक-एक वर्ष के अन्तर पर भीम और अर्जुन का जन्म हुआ। और रानी माद्री ने भी दो जुडवां पुत्रों को जन्म दिया।
पाडंव भाईयों का बचपन माता वैष्णों के चरणों में रहते हुए व्यतीत हुआ। पांचों भाईयों ने इस शतश्रृंग पर्वत पर अपने निवास की स्मृति में माता वैष्णों देवी की गुफा में पंचदेव स्थापित कियें। जो आज भी दर्शनीय है। जीवन में दैवीय शक्तियों का श्रेष्ठ वरदान प्राप्त करने हेतु त्रिशक्ति स्वरूपा वैष्णोंदेवी की यात्रा तो साक्षात् मां जगतजननी से शिव स्वरूप गुरू के सान्निध्य में सीधा संवाद करके भौतिक व आध्यात्म की सर्वोच्चता पर पहुंचने का है, मां का ममतामयी वात्सल्य, गुरू के प्रेम, करूणा, चेतना को आत्मसात कर परिपूर्ण हो जाना है।
यह यात्रा तो उन्हें ही करना चाहिए जो अपना गृहस्थ धर्म निभा रहें हैं। लेकिन इसके साथ ही साथ अपने गृहस्थ जीवन को सुन्दर से सुन्दरतम रूप में परिवर्तित करते हुए जीवन का वह मूल आनन्द तत्व प्राप्त करना चाहते हैं, जो अपने जीवन की दूषित और मलिन कृत्यों को दूर कर आनन्दमय जीवन व्यतीत करना चाहते हैं।
तीर्थ यात्रा भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है, तीर्थ यात्रा से दैवीय शक्ति का बोध होता है साथ ही आत्मशक्ति की वृद्धि होती है। निश्चित ही वे शिष्य सौभाग्यशाली हैं जो गुरूदेव जी के सान्निध्य में ऐसे दिव्यतम यात्रा का पूर्ण रूपेण लाभ प्राप्त कर सकेंगे। और अपने भाग्य को स्वर्णिम अक्षरों से अंकित करने में सक्षम होंगे। गुरू के सान्निध्य में शिष्य दिव्य चैतन्य स्थल पर दैवीय शक्ति को आत्मसात कर गुरू के द्वारा प्रदान की गई तपस्या के अंश से जीवन में धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति कर सके। गुरू और आद्या शक्ति से जहां मिलन होता है वहां जीवन में अष्ट सिद्धि और नव निधि निश्चित रूप से प्राप्त होती ही है। इन्हीं अभिलाषाओं के साथ गुरू बार-बार शिष्य को तीर्थ स्थलों पर आंमत्रित करते हैं।
2-3 मई को आप गुरूदेव जी के सानिध्य में कदम ताल मिलाते हुए त्रिकुटा पर्वत की ओर अग्रसर होकर जीवन के दुर्गम पथों को सुगम और सुरक्षित बनाने की क्रिया सम्पन्न कर सकेंगे। नृसिंह जंयती पर आप भी जीवन में सिंहमय शक्तियों से युक्त हो सकें और वैशाखी पूर्णिमा जो कि लक्ष्मी सिद्धि दिवस से आपूरित है ऐसे श्रेष्ठतम अवसर पर माता वैष्णो देवी के ज्योर्तिमय स्वरूप से आपके जीवन को प्रकाश से आप्लावित करने हेतु ललिताम्बा राज राजेश्वरी शक्ति दीक्षा और शंकराचार्य प्रणीत अक्षुण्ण धन लक्ष्मी दीक्षा प्रदान की जायेगी। थोड़ा विश्राम के पश्चात् भैरव मन्दिर प्रागंण में नृसिंह भैरव शक्ति दीक्षा और जानकी गौरी उर्वशी शक्ति दीक्षा से सिंहत्व शक्ति को आत्मसात कर आप जीवन में सभी कामनाओं को पूर्णता से प्राप्त कर सकेंगे।
जो जीवन में निरन्तर चलते रहते हैं उसका भाग्य भी अग्रसर रहता है और वही जीवन में पूर्णरूपेण आयु वृद्धि, धर्म, अर्थ, यश, सौभाग्य व लक्ष्मी की निश्चित रूप से प्राप्ति करता है। श्रेष्ठ गुरू की क्रिया यही रहती है कि इन सभी सुस्थितियों से शिष्य को पूर्णता प्रदान करें। जिससे वे गृहस्थ जीवन का पालन करते हुए भी अपनी सभी कामनाओं को पूर्णता से प्राप्त कर सकें। अगर जीवन में श्रेष्ठता चाहिये तो आपके पांव ठिठकेगें नहीं।
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