पूर्णिमा तो अनेक हैं, चन्द्रमा की चांदनी सभी को शुभ्र बना ही देती है, पर बुद्ध पूर्णिमा की ही प्रतीक्षा लोग करते हैं, क्योंकि एक विशेष घटना घटी थी, बुद्ध के ज्ञान की पवित्र धारा की वह पूर्णिमा साक्षी भूत तत्त्व बनी थी। भाद्र मास कृष्ण पक्ष की अष्टमी भी साधारण ही है। ‘सर्वदोषा हि शर्वरी’ अर्थात् सभी दोषों से भरी हुई काली रात, भयावह, फिर भी पूर्णमासी की तरह चेतनामयी, आह्लादमयी बन गई, क्योंकि भगवान कृष्ण ने इसे स्पर्श किया और वह पावन बन गई, अष्टपाशों से छुड़ाने वाली बन गई, प्रतिवर्ष कृष्ण को साक्षीभूत करने वाली भक्तों के भावों की उद्बोधिनी और जननी बन गई।
एक बार फिर उन्हीं साक्षात् भगवान नारायण ने अपने जन्म तथा गुरू गरिमा से दिनांक 21 अप्रैल को गौरवमय बना दिया, जिसके साथ अनन्त साधकों और शिष्यों की धड़कनें जुड़ी हैं। यह एक ऐसा उत्सव है, जो होली के रंग-बिरंगे रंगो से सराबोर है, जो दीपावली की जगमगाहट एवं साधनात्मक तीव्रता से युक्त है, जो महाशिवरात्रि के अमृत तत्त्व से पूर्ण है एवं जो जन्माष्टमी की प्रेम दृष्टि से आप्लावित है- और यही कारण है, कि हमारे वेदों, हमारे शास्त्रों एवं हमारे ऋषियों ने इसको महोत्सव की संज्ञा से विभूषित किया है।
इस पर्व को भारतीय संस्कृति में गुरू जन्मोत्सव कहा गया है, वह दिन जब गुरू करूणावश इस पृथ्वी पर शिष्यों एवं भक्तों के उद्धार एवं कल्याण हेतु जन्म लेते हैं। पर यह बहुत ही निराशाजनक बात है, कि उस आर्यावर्त में, जहां कभी इस पर्व को ‘पूर्णमदः पूर्णमिदं’ का द्योतक माना जाता था, जहां इसे सर्वश्रेष्ठ त्यौहार के रूप में स्वीकार किया जाता था, वहीं वर्तमान में लोग इसकी उच्चता, दिव्यता एवं सर्वश्रेष्ठता से अनभिज्ञ हैं।
भिखारियों के आंचल में हीरे नहीं पाये जाते, कुछ कंकर हो सकते हैं, कुछ पत्थर हो सकते हैं, पर जन्म-जन्म की दरिद्रता को दूर करने वाली पारसमणि नहीं, यह तो मात्र कुछ गिने-चुने पारखियों के ही भाग्य में होती है। ऐसे ही पारखी थे हमारे ऋषि, जिन्होंने गुरू जन्मोत्सव की प्रचण्ड दिव्यता का एहसास कर उसे सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया।
आखिर क्या कारण है, कि इस उत्सव को इतना उच्च स्वीकारा गया? इसके विषय में एक प्रसंग है- एक बार शिव पार्वती के साथ कैलाश पर विचरण कर रहे थे। पार्वती कुछ अनमनी सी थीं। पूछने पर उन्होंने कहा – प्रभो! सतयुग के बाद त्रेता और अब द्वापर भी जाने वाला है। शीघ्र ही भयंकर दाढ़ो वाले किसी मकर की भांति कलिकाल आने वाला है। निश्चय ही इस युग में मानवता का ह्रास होगा और विश्व पूर्णरूपेण एक नरक की भांति हो जायेगा। ऐसे समय में तो व्यक्ति चाह कर भी परम तत्त्व में लीन नहीं हो सकता। क्या कलिकाल में मानव की परिणति मात्र पशु बन कर रह जाने की है? क्या इच्छित व्यक्ति भी अध्यात्म पथ पर नहीं बढ़ पायेंगे?
शिव मुस्कुराये और बोले-निश्चय ही कलिकाल में काफी पतन होगा, परन्तु फिर भी जो व्यक्ति सद्गुरू से दीक्षित हो, उन्हें मुझसे अभिन्न मानता हुआ, उनके बताये मार्ग का अवलम्बन करेगा, वह सदैव मेरा प्रिय हो कर परम तत्त्व में लीन होगा।
फिर उन्होंने एक अत्यन्त गूढ़ रहस्य उद्घटित करते हुए कहा – शिवे! कलिकाल की एक विशेषता यह है, कि जो परम स्थिति सतयुग में कई सहस्र वर्षों के बाद ही प्राप्त होती थी, वह कलिकाल में सहज ही प्राप्त हो जायेगी, परन्तु चूंकि माया का प्रभाव भी कलिकाल में कई गुणा बढ़ जायेगा, अधिकांश मानव इसमें उलझ कर उस परम तत्त्व से वंचित ही रहेंगे।
लेकिन जो व्यक्ति सद्गुरू के मार्गदर्शन में रह कर गतिशील होंगे, वे निश्चय ही आत्मोत्थान की ओर अग्रसर होंगे और कलिकाल उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं पायेगा। जो शिष्य गुरू जन्मोत्सव पर गुरू चरणों में पहुंचेगा, उसको सहज ही समस्त पर्वों पर की गई साधनाओं का फल और पुण्य स्वतः प्राप्त होगा और वह स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और मुझ द्वारा भी पूजनीय होगा।
हमारे शास्त्र इस बात को स्पष्ट करते हैं –
अर्थात् जन्म से हर व्यक्ति ‘शुद्र’ (जिसे उचित-अनुचित क ज्ञान नहीं होता) है और केवल गुरू द्वारा दीक्षित होने पर ही वह ‘द्विज’ (ब्राह्मण अथवा परम सत्य का ज्ञाता) की श्रेणी में आता है।
वह गुरू ही होता है, जो करूणावश एक सामान्य व्यक्ति के रूप में शिष्यों के बीच आ कर उन्हें आत्मोत्थान के पथ पर अग्रसर करता है। वह एक सामान्य जीवन जी कर उनको एहसास कराता है, कि व्यक्ति एक सामान्य गृहस्थ जीवन जीते हुए भी ब्रह्मत्व को प्राप्त कर सकता है और खुद को सामान्य मानव की श्रेणी से उठा कर देवत्व की श्रेणी तक ले जा सकता है।
गुरू का अर्थ मात्र शरीर से नहीं है, अपितु उस शरीर में जो शिवत्व एवं ब्रह्मत्व है, उसे ‘गुरू’ कहते हैं। वह तो ऐसा व्यक्तित्व होता है, जो कि इस धरा पर आता ही है लोगों को परम तत्त्व का अमृत स्वादन कराने के लिए—– शिष्यों को पूर्णता देने के लिए—– और इस कार्य के लिए गुरू ब्रह्मा की तरह शिष्य का नवीन निर्माण करता है, उसे एक नवीन व्यक्तित्व देता है, विष्णु की भांति वह उसे पालता है, उसकी हर इच्छा, हर आकांक्षा पूर्ण करता है, क्योंकि वह जानता है, कि जब तक शिष्य की इच्छाएं पूर्ण नहीं होंगी, तब तक वह अध्यात्म की उच्चतम अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकता—-और अंततः वह शिव की भांति शिष्य को मृत्यु देता है, उसके कुसंस्कारों की मृत्यु, उसके झूठे अंहकार की मृत्यु, उसकी परेशानियों, बीमारियों एवं दरिद्रता की मृत्यु—-क्योंकि जब ये समाप्त हो पायेंगे, तभी तो कुछ नवीन निर्माण सम्भव हो पायेगा, तभी तो एक नई नींव डाली जायेगी।
गुरू तो चेतना का सतत् प्रवाह है, कहीं भी, किसी भी परिस्थिति से अवरूद्ध होने वाली शक्ति नहीं है। वह तो गंगा की तरह पावन और पवित्र है, जो गंगा में स्नान करेगा, वह गंगा की पवित्रता और आह्लाद का अनुभव करेगा ही। दिव्यतम चैतन्य पुरूष प्रेमावतार रूप लिए हुए गुरू रूप में जब धरा पर आते हैं, तो उनके आसपास अनन्त देवी, देवता, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व उनकी लीलाओं को मानव चक्षु से देखने और पूर्णता प्राप्ति के लिए, मानव स्वरूप में सेवा करने के लिए तथा मानव कल्याण हेतु कार्यों के आयामों को पूर्ण करने के लिए उनके आस-पास शिष्य और साधक के रूप में जन्म लेकर अपने आपको कृतार्थ करते हैं।
प्रकृति के नियमानुसार माया प्रत्येक मानव को जन्म के उपरान्त अपने में लिप्त कर लेती है। शिष्य भी इसके अपवाद नहीं रह पाते, वे भी माया-मोह जन्य बन्धनों के जाल में फस जाते हैं। ऐसा होने पर गुरू कितनी मुश्किल से शिष्य को अपने पास खींचता है, इसकी कल्पना करना सामान्यतः सम्भव नहीं है। वह अनेक परिस्थितियों का निर्माण कर शिष्य को अपने पास बुलाता है, उसे दीक्षा प्रदान कर पूर्णत्व के दिव्य पथ पर अग्रसर करने का प्रयास करता है। परन्तु यह दुर्भाग्य ही है, कि अधिकतर शिष्य अज्ञानतावश उस दिव्य पथ का अनुसरण न कर उससे विमुख हो कर भटकने लगते हैं।
इसका अर्थ यह नहीं है, कि गुरू भी उनसे मुंह मोड़ लेते हैं, अपितु वे तो सदैव मातृवत स्नेह के अमृत से सराबोर प्रतिक्षण अपने आत्मजों को पुनः उसी पथ पर अग्रसर करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं और जब शिष्य गुरू के चरण कमलों में पहुंच जाता है तो वह उसकी सभी न्यूनताओं को, उसके दुर्गुणों को ‘महाकाल’ की भांति काल कवलित कर लेते हैं और एक बार जब वे इस कार्य का जिम्मा ले लेते हैं, तो फिर किसी भी स्थिति में रूकते नहीं। एक बार जब वे शिष्य का हाथ पकड़ लेते हैं, तो तब तक नहीं छोड़ते, जब तक कि उनका कार्य पूरा नही हो जाता।
संत कबीर ने बड़े ही अनोखे ढंग से कहा है –
गुरू एक माहिर कुम्हार की तरह घड़े (शिष्य) पर बार-बार चोट करते रहते हैं, ताकि उसे एक स्वरूप दिया जा सके। परन्तु साथ ही साथ वे एक हाथ से उसे संभालते भी रहते हैं, ताकि वह कहीं बिखर न जाये, टूट न जाये।
अर्थात् शिष्य के माता, पिता, इष्ट एवं मोक्ष गुरू ही होते हैं। मेरा क्रोध भी गुरू कृपा से आशीर्वाद में बदल सकता है, परन्तु गुरू के क्रोध से व्यक्ति को इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई नहीं बचा सकता। इसीलिए व्यक्ति को बिना हिचकिचाहट के गुरू चरणों की शरण लेनी चाहिए।
पूज्य गुरूदेव डॉ- नारायण दत्त श्रीमाली जी प्राचीन ऋषियों की कड़ी के ही एक दिव्य विभूति हैं। उनके बारे में जितना भी लिखने की चेष्टा की जाय, लेखनी अपने आपको उतना ही असमर्थ अनुभव करने लगती है। यदि साक्षात् सरस्वती भी यह चेष्टा करे, तो सहज सम्भव नहीं, क्योंकि ‘प्रेम’ को शब्दों एवं भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। यह तो एक एहसास है, जिसे अपने आपको अपने प्रिय गुरूदेव में आत्मसात् करके ही महसूस किया जा सकता है। हम सभी के लिए ऐसा ही सर्वश्रेष्ठ दिवस है गुरू जन्मोत्सव, जब गुरूदेव पूर्ण रूप से आनन्दातिरेक में होते हैं, जिस दिन वे औघड़दानी शिव से भी बढ़कर सब कुछ लुटा देने को व्यग्र होते हैं और जिस दिन कोई भी शिष्य उनके पास से निराश नहीं लौटता।
यह दिन है अन्यतम साधनाओं का, जो कि शिष्य के आत्मिक उत्थान में तीव्रता प्रदान करती हैं, साथ ही साथ उन दिव्य और गुप्त दीक्षाओं का, जो कि गुरू द्वारा हर इच्छित व्यक्ति को प्रदान की जाती है। इस दिन पूज्य गुरूदेव वे दीक्षाएं भी, जिनके बारे में शास्त्रों में ‘गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः’ कहा गया है, उन्हें आसानी से अपने शिष्यों को प्रदान कर देते हैं।
वे दीक्षाएं जिन्हें प्राप्त करने के लिए शिष्यों को पूर्ण श्रद्धा पूर्वक अपने गुरू की वर्षों सेवा करनी पड़ती थी, उन्हें पूज्य गुरूदेव इतनी आसानी से प्रदान कर रहें है और यह सब वे इसलिए कर रहे हैं, ताकि वे शिष्यों को आत्मवत् बना सकें। वे प्रत्येक शिष्य को पूर्णता प्रदान कर देना चाहते हैं। गुरूदेव हमेशा ही अपने शिष्यों को आवाहन करते हैं और सद्गुरूदेव के जन्म दिवस पर तो वे विशेष रूप से अपने आत्मजों की राह देखते हैं, क्योंकि यह दिवस स्वयंमेव परालौकिक दिव्यता से युत्तफ़ होता है और जो शिष्य इस दिन गुरू के चरणों में पहुंचने में सफल हो जाता है, उस पर स्वतः ही अनन्त आशीर्वादों की वर्षा होती है।
विश्वनाथ की नगरी काशी में जहां शिवस्वरूप पूज्य गुरुदेव साक्षात् विराजमान होगे। ऐसी तेजमय भूमि पर अक्षय तृतीया और सद्गुरूदेव के अवतरण दिवस के दिव्यतम अवसर पर गुरूत्व को अक्षय रूप में स्थापित कर जीवन को पूर्णरूपेण गुरुमय बनाने हेतु 19-20-21 अप्रैल को सद्गुरू जन्मोत्सव वाराणसी में आयोजित होगा। आप सभी का सहृदय भाव से स्वागत है।
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