संन्यासी से ज्यादा सुरक्षित कोई भी नहीं है और गृहस्थ से ज्यादा असुरक्षित कोई भी नहीं है। गृहस्थ व्यक्ति से ज्यादा सुरक्षा का इंतजाम कोई नहीं करता। और संन्यासी से कम सुरक्षा का इंतजाम कौन करता है। संन्यासी के पास केवल उसका विवेक होता है और कुछ भी नहीं। विवेक उसकी रक्षा है। कोई नीति, नियम, मर्यादा, भय नहीं है।
हमारा पूरा इतिहास सोये हुये व्यक्तियों के कर्मों का इतिहास है। इसीलिए तो तीन हजार वर्षों में हमको केवल युद्धों के और कुछ नहीं दिया। युद्ध और युद्ध। तीन हजार वर्ष में, चौदह हजार सत्तर सौ युद्ध हुए जमीन पर! और ये तो बड़े युद्ध है, जिनका इतिहास में उल्लेख आता है। और जो लड़ार्इयां हम दिन भर में लड़ते हैं, परायों से, अपनों से, उनका तो कोई हिसाब है ही नहीं। पूरी जिन्दगी में हम कलह और सिवाय दुख के क्या अर्जित कर पाते हैं। हम वासना में जीते हैं। वासना ही हमारा जीवन है। वासना का अर्थ है हम कुछ पाने को जीते हैं जब वासना रूपांतरित होती है, तो करूणा बनती है, तब वह विपरीत हो जाती है।
करूणा का अर्थ है हम कुछ देने को जीते हैं। देने के लिए जीना। वासना का अर्थ लेने के लिए जीना। वासना भिखारी है, करूणा सम्राट है। लेकिन दे कौन सकता है? जिसके पास देने के लिये कुछ हो। और दिया वही जाता है, जो हमारे पास होता है। वह नहीं दिया जा सकता, जो हमारे पास नहीं है।
जो दूसरों की निंदा से दूर रहते है वही जीवन मुक्त हो पाता है। व्यक्ति के मन में निंदा का बड़ा रस है। व्यक्ति जब दूसरे की निंदा करता हैं, तो उसको लगता है कि वह भी है। अहं की भावना प्रबल होती है। जब व्यक्ति दूसरे को बुरा सिद्ध कर देता हैं, तभी उसे लगता है कि वह भला हैं। इसलिए दूसरे की तरफ से अपने को सिद्ध करना पड़ता है। और जो निंदा से दूर है वह ब्रह्मचर्य है, वह दूसरे को व्याभिचारी सिद्ध करके अपने को ब्रह्मचारी सिद्ध नहीं सब साधना का रहस्य छिपा है। हमारी अपनी ही चेतना पर कोई भरोसा नहीं। इसलिए हम सदा ही भविष्य के चिंतन में भयग्रस्त रहते हैं और इसीलिए हम अतीत की पुनरुक्ति करते रहते हैं। क्योंकि कल जो किया था, उसी को आज करना आसान रहता है। उसे हम जानते हैं, परिचित हैं, पहचाना हुआ है। लेकिन संन्यासी जीता है अभी और यहीं क्षण के दौर में। अतीत को दोहराता नहीं, भविष्य की योजना नहीं करता। उस क्षण में उसकी चेतना जो उसे कहती है, वही उसका कृत्य बन जाता है। संन्यासी क्षण के साथ सहज ही जीता है।
संन्यासी कल्पना नहीं करता, किसी चीज की भी योजना नहीं बनाकर चलता। ये मिल जाये ऐसी कोई भावना नहीं होती है। जो मिल गया उसका धन्यवाद और जो नहीं मिला उसका भी उतना ही धन्यवाद। वह अपने से नहीं जीता, परमात्मा पर छोड़कर जीता है। परमात्मा जहां ले जाये वहीं चला जाता है। दुख में तो दुख में, सुख में तो सुख में। महलों में तो महलों में सही और झोपड़ों में तो झोपड़ों में सहीं। परमात्मा जहां ले जाये, स्वयं को उसके हाथ में छोड़ देता है। बंधन मुक्त होना तथा आनन्द ही उसका उपदेश है, मुक्त आनन्द ही उनकी चर्चा है। मुक्त आनन्द तभी संभव होता है, जब हम इतने अकेला हो जायें कि हम स्वयं भी नहीं बचे। अगर दूसरा मौजूद है, तो बंधन जारी रहेगा। अगर अहं भी मौजूद हैं, तो भी बंधन रहेगा। ना तू हो ना मैं हूँ तब वहां चेतना प्रवाहित हो जाती है, सब बंधन से बाहर हो जाती है। उसी आनन्द को उनकी गोष्ठी कहा है। वही उनका सत्संग है। उस आनन्द के साथ ही उनकी चर्चा उनकी बिहरना, उस आनन्द में जीना ही उनका जीवन है। इतना अकेला हो जाना कि जहां मैं भी न बचूं।
जीवन से, शब्दों से, वाणी से, आचरण से एक ही बात प्रतिपादित करता हैं, सबके भीतर जो बसा है, वह ऐसा ही परमहंस है। सबके भीतर ऐसी ही आत्मा का आवास है। सबके भीतर ऐसी ही चेतना धारा प्रवाहित हो रही है। जो जानते हैं, उनके भीतर भी और जो नहीं जानते है उनके भीतर भी। जो अपने आप आंख बंद किये हुये है उनके भीतर भी वही परमात्मा है, जो द्वार बंद किये हुये है, उनके भीतर भी, जो अपनी आंखों से पहचानते है, उनके भीतर भी। भेद अन्दर के परमात्मा का नहीं है, भेद सिर्फ अन्दर के परमात्मा से परिचित या अपरिचित होने का है। परम ज्ञानी में और परम अज्ञानी में जो फर्क है, वह स्वभाव का नहीं है, वह फर्क केवल ज्ञान का है।
धैर्य का अर्थ है, अनंत प्रतीक्षा की क्षमता। व्यक्ति आज और अभी ही मिल जायें। अगर ऐसी मन की भावना है तो कभी नहीं मिलता। और यदि हमारी यह धारणा है कि मैं प्रतीक्षा करूंगा, प्रयत्नशील रहूंगा, कभी भी मिल जाये, मैं इन्तजार करता रहूंगा। कभी भी जब उसकी कृपा होगी मिल जाये। जितना विशाल धैर्य होगा उतनी ही जल्दी होती है क्रिया, जितना छोटा धैर्य उतनी ही देर लग जाती है। लेकिन धैर्य तो हमारे अन्दर जरा भी नहीं है। और क्षुद्र के लिए तो हम प्रतीक्षा कर लेते है परन्तु विराट के लिए हम जरा भी प्रतीक्षा नहीं करना चाहते। क्योंकि एक व्यक्ति साधारण सी शिक्षा पाने विश्वविद्यालय की यात्रा पर निकलता है, तो सोलह-सत्रह वर्ष लगाता है स्नातक होने के लिये। लेकिन पाता क्या है? कागज के कुछ टुकडे लेकर घर लौट आता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति ध्यान की यात्रा पर निकलता है, तो वह पहले ही दिन कहता है कि एक दिन बीत गया, अभी तो कुछ नहीं हुआ।
व्यक्ति थोड़े से रूपये कमाने के लिए जिन्दगी दांव पर लगा सकता है और प्रतीक्षा करता रहता है कि आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। उसको धन कमाने की कितनी गहरी इच्छा होती है, इसलिये प्रतीक्षा भी कर लेता है। परन्तु सिद्धि के लिए वह सोचता है कि एक बार में ही सिद्धि मिल जाये। और वह सिद्धि के लिये भी समय तब निकालता है जब उसके पास अतिरिक्त समय हो तो और फिर वह चाहता है, बस जल्दी निपट जाये। ऐसी इच्छा नहीं होती कि निरन्तर प्रयास करूं और सिद्धि प्राप्त कर ही विश्राम लू।
हमेशा विराट तब तक प्राप्त नहीं होता, जब तक कोई अपने को समर्पित करने को तैयार नहीं होता। और सब कुछ समर्पित करना भी कोई सौदा नहीं है। यदि कोई कहे कि मैंने सब कुछ समर्पित कर दिया, अभी प्राप्त नहीं हुआ। अगर इतना भी सौदा मन में है कि मैंने सब समर्पित कर दिया तो मुझे प्राप्त होना चाहिए, तो भी नहीं मिल सकेगा। क्योंकि हमारे पास है क्या जिससे हम भगवान को खरीद सकें? क्या छोड़ेंगे आप? छोड़ने को है क्या आपके पास? आपका कुछ है ही नहीं, जिसे आप छोड़ दे। सभी कुछ उसी का है। उसी का उसी को देकर सौदा करो?
जो स्वयं को बदलने के लिए तैयार है, वह कहीं से भी शुरू कर सकता है। अपने अन्दर से शुरू करना उचित है, क्योंकि अन्दर का हमें पता है। भोजन करते वक्त बस और नहीं। हम स्वयं से कभी झूठ बोल ही नहीं सकते। हमारी अन्तर आत्मा से हमेशा उचित और अनुचित दोनों ही आवाज आती है। लेकिन हम इस भौतिकमय वातावरण में इतने लिप्त होने के कारण से ज्यादातर अनुचित आवाज का ही चयन करते है। जिससे हमें भविष्य में ज्ञात होता है कि हमारा चयन कैसा था। दैवीय शक्तियां तो मनुष्य जीवन का श्रेष्ठतम वरदान है, जिसे आत्मसात कर जीवन की मलिन स्थितियों को दूर कर वह मूल आनन्द तत्व को प्राप्त कर सकेगा। जीवन में आ रही बाधा को समाप्त करने की वह दैवीय शक्ति प्राप्त कर स्वयं को क्षमतावान बनाकर परेशानियों से निजात पा सकेगा। जिससे उसका गृहस्थ जीवन सुन्दर से सुन्दरतम की ओर अग्रसर हो सके।
चैत्रीय पूर्णिमा और चन्द्र ग्रहण पर बल बुद्धि प्रदाता महावीर हनुमान के अवतरण दिवस पर जीवन की विपन्नताओं और न्यूनताओं को समाप्त करने हेतु 02-03-04-05 अप्रैल को चन्द्र ग्रहण युक्त महावीर हनुमान धनदा शक्ति दीक्षा महोत्सव कैलाश सिद्धाश्रम दिल्ली में ग्रहण काल के सुयोग में रूद्राभिषेक, हवन और विशिष्ट दीक्षायें प्रदान की जायेगी। जिससे साधक के जीवन में ग्रहण काल के दौरान ग्रहण की गई साधनात्मक क्रियाओं का प्रभाव निरन्तर बना रहे। जीवन केवल वही कहा जा सकता है, जो एक चैतन्य गुरु के सानिध्य में व्यतीत हो। ऐसा ही श्रेष्ठतम सुयोग अक्षय तृतीया और सद्गुरुदेव के जन्मोत्सव का पर्व चौरासी वर्षों के बाद पुनः बन रहा है। बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में जीवन की मृत्युजंय स्थितियों को प्राप्त करने हेतु 19-20-21 अप्रैल को सद्गुरू-जन्मोत्सव साधाना महोत्सव वाराणसी में सम्पन्न होगा। महादेव की ज्योर्तिमय तपोभूमि पर श्रेष्ठ जीवन निर्माण आरोग्यमय पूर्ण आयु की प्राप्ति कर सके। इस हेतु काशी विश्वनाथ प्रणीत महामृत्युजंय रूद्राभिषेक और अक्षय तृतीया के पावन अवसर पर तारा अक्षय धन लक्ष्मी महागौरी शिव-शक्ति युक्त अमृत सिद्धि दीक्षा, गमय सिद्धि दीक्षायें प्रदान की जायेगी। साथ ही जीवन में पाप-ताप, दोषों के शमन तथा बाधाओं से सुरक्षा प्राप्ति हेतु काल भैरव शक्ति मंत्रों से युक्त हवन की व्यवस्था की गयी है। जिससे सांसारिक जीवन सभी सुखों से युक्त हो सके। जीवन में रस, आनन्द, वीर्य, ओज की प्राप्ति पुरूषोत्तम स्थितियां अक्षय स्वरूप में हो सकेगी। जिससे कि जीवन पूर्णतः सद्गुरुमय की चैतन्यता से परिपूर्ण हो सके।
किसी विशिष्ट शक्ति की आराधना, वंदना, संकल्प शक्ति की क्रिया साक्षीभूत अपने सद्गुरु के सान्निध्य में और उनके निर्देशन तथा आशीर्वाद के साथ जब परिक्रमा और पूजा अर्चना सम्पन्न की जाती है तो वही वास्तव में तीर्थ यात्रा कहलाती है। आद्या शक्ति माता वैष्णों की तेजमय तपोभूमि पर अपने जीवन में व्याप्त शत्रु बाधा, आर्थिक परेशानियों और दुष्प्रवृत्तियों से निजात पाने का श्रेष्ठमय अवसर गुरूदेव जी के सान्निध्य में 2-3 मई को वैष्णों देवी धाम की यात्रा में प्राप्त कर होगा। आद्या शक्ति के तीनों ज्योर्तिमय स्वरूपों को आत्मसात कर जीवन में सात्विक ऊर्जा व सिहंत्व शक्ति को आत्मसात करने से अभय युक्त जीवन निर्माण के साथ-साथ आध्यात्मिक व भौतिक चेतना से परिपूर्ण हो सकेंगे। सांसारिक जीवन को श्रेष्ठमय बनाने की क्रिया नृसिंह जयंती और बुद्ध पूर्णिमा के पूर्ण फलदायी अवसर पर पूज्य गुरूदेव के सान्निध्य में माता वैष्णों देवी की यात्रा प्रारम्भ होगी। शक्ति को पूर्णता के साथ आत्मसात करने हेतु ललिताम्बा राज राजेश्वरी शक्ति दीक्षा, शंकराचार्य प्रणीत अक्षुण्ण धन लक्ष्मी दीक्षा और भैरव मन्दिर प्रागंण में नृसिंह भैरव शक्ति दीक्षा, जानकी गौरी उर्वशी शक्ति दीक्षा,साधकों को प्रदान की जायेगी। सांसारिक शक्तिरूप में गुरु का आशीर्वाद और मार्गदर्शन प्राप्त हो सके और आध्यात्मिक स्वरूप में दैवीय शक्ति का सान्निध्य प्राप्त होने से निर्विघ्न और निष्कंटक व्यतीत होता है।
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