माण्डव्य ऋषि के शाप से इन्हें शूद्रयोनि में जन्म ग्रहण करना पड़ा। ये महाराज विचित्रवीर्य की दासी के गर्भ से उत्पन्न हुये थे। इस प्रकार ये धृतराष्ट्र और पाण्डु के एक प्रकार से सगे भाई ही थे। ये बड़े ही बुद्धिमान, नीतिज्ञ, धर्मज्ञ, विद्वान, सदाचारी एवं भगवद् भक्त थे। इन्हीं गुणो के कारण सब लोग इनका बड़ा सम्मान करते थे। ये बड़े निर्भीक एवं साम्यवादी थे। दुर्योधन जन्म के पश्चात् ही गधे की भांति रेंकने लगा था और उसके जन्म के समय अनेको अमंगल सूचक उत्पात भी हुये थे। यह सब देखकर इन्होंने ब्राह्मणों के साथ राजा धृतराष्ट्र से कहा कि आपका यह पुत्र कुल नाशक होगा, इसलिये इसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है। इसके जीवित होने पर आपको दुख उठाना पड़ेगा। शास्त्रों के अनुसार कुल के लिये मनुष्य का, ग्राम के लिये कुल का, देश के लिये एक ग्राम का और आत्मा के लिये सारी पृथ्वी का परित्याग कर देना चाहिये। परन्तु धृतराष्ट्र ने मोहवश विदुर की बात नहीं मानी। परिणाम स्वरूप उन्हें दुर्योधन के कारण जीवन भर दुख उठाना पड़ा और अपने जीवन काल में अपने कुल का नाश देखना पड़ा। महात्माओं की हित भरी वाणी पर ध्यान न देने से दुःख ही उठाना पड़ता है।
जब दुर्योधन पाण्डवों पर अत्याचार करने लगा तो इनकी सहानुभूति स्वाभाविक ही पाण्डवों के प्रति हो गयी, क्योंकि एक तो वे पितृहीन थे और दूसरे धर्मात्मा थे। ये प्रत्यक्ष रूप में तथा गुप्त रूप से भी बराबर उनकी रक्षा एवं सहायता करते रहते थे। धर्मात्माओं को धर्म के प्रति सहानुभूति होनी ही चाहिये और विदुर साक्षात धर्म के अवतार थे। ये जानते थे कि पाण्डवों पर चाहे कितनी ही विपत्तियां क्यों न आवें, अन्त में विजय उनकी ही होगी।
‘यतो धर्मस्ततो जयः’ इन्हें यह भी मालूम था कि पाण्डव सब दीर्घायु हैं, अतः उन्हें कोई मार नहीं सकता। इसलिये जब दुर्योधन ने खेल-खेल में भीमसेन को विष खिलाकर गंगा जी में बहा दिया और उनके घर न लौटने पर माता कुन्ती को चिन्ता के साथ-साथ दुर्योधन की ओर से अनिष्ट की भी आशंका हुई तो इन्होंने जाकर उन्हें समझाया कि इस समय चुप साध लेना ही अच्छा है।
दुर्योधन के प्रति आशंका प्रकट करना खतरे से खाली नहीं है। इससे वह और चिढ़ जायेगा, जिससे तुम्हारे दूसरे पुत्रों पर भी आपत्ति आ सकती है। भीमसेन मर नहीं सकता, वह शीघ्र ही लौट आयेगा। कुन्ती ने विदुर जी की सलाह मान ली। उनकी बात बिलकुल यथार्थ निकली। भीमसेन कुछ ही दिनों बाद जीते-जागते लौट आये।
लाक्षा भवन से बेदाग बचकर निकल भागने की युक्ति भी पाण्डवों को विदुर ने ही बतायी थी। ये नीतिज्ञ होने के साथ-साथ कई भाषाओं के जानकार भी थे। जिस समय पाण्डव लोग वनवास जा रहे थे, उसी समय इन्होंने म्लेच्छ भाषा में युधिष्ठिर को उन पर आने वाली विपत्ति की सूचना दे दी और साथ में उनसे बचने का उपाय भी समझा दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने पहले से ही एक सुरंग खोदने वाले को लाक्षा भवन से निकल भागने के लिये सुरंग खोदने को कह दिया था। उसने गुप्त रूप से जमीन के भीतर ही भीतर जगंल जाने का रास्ता बना दिया। लाक्षा भवन में आग लगाकर पाण्डव लोग माता कुन्ती के साथ उसी रास्ते से निरापद बाहर निकल आये। गंगा तट पर इनके पार होने के लिये विदुर जी ने नाविक के साथ एक नौका भी पहले से ही तैयार रख छोड़ी थी उसी से वे लोग गंगा पार हो गये। इस प्रकार विदुर जी ने बुद्धिमानी एवं नीतिमत्ता से पाण्डवों के प्राण बचा लिये और दुर्योधन आदि को पता भी न लगने दिया। उन लोगों ने यही समझा कि पाण्डव अपनी माता के साथ लाक्षा भवन में जलकर मर गये। सर्वत्र केवल शारीरिक बल अथवा अस्त्रबल ही काम नहीं देता। आत्मरक्षा के लिये नीतिबल की भी आवश्यकता होती है।
विदुर जी जिस प्रकार पाण्डवों के प्रति सहानुभूति और प्रेम रखते थे, उसी प्रकार अपने बड़े भाई राजा धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्र के प्रति भी स्नेह और आत्मीयता रखते थे। उनके हित का ये सदा ध्यान रखते थे और उन्हें बराबर अच्छी सलाह दिया करते थे। हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः इस सिद्धान्त के अनुसार अवश्य ही इनकी बाते सत्य एवं हितपूर्ण होने पर भी दुर्योधनादि को कड़वी लगती थी। इसलिये दुर्योधन एवं उनके साथी सदा ही उनसे असन्तुष्ट रहते थे। परन्तु ये उनकी अप्रसन्नता की कुछ भी परवाह न कर सदा ही उनकी मंगल कामना किया करते थे और उन्हें कुमार्ग से हटाने की अनवरत चेष्टा करते रहते थे। धृतराष्ट्र भी अपने दुरात्मा पुत्र के प्रभाव में होने के कारण यद्यपि हर समय उनकी बात पर अमल नहीं कर पाते थे और इसलिये कष्ट भी पाते थे, फिर भी उनका इन पर बहुत अधिक विश्वास था। वे इन्हें बुद्धिमान, दूरदर्शी एवं अपना परम हित चिन्तक मानते और बहुधा सलाह इनसे लिये बिना कोई काम नहीं करते थे। पाण्डवों के साथ व्यवहार करते समय तो वे खास-तौर पर इनकी सलाह लिया करते थे, वे जानते थे कि पाण्डवों के सम्बन्ध इनकी सलाह पक्षपात शून्य होगी।
विदुर जी ज्ञानी एवं तत्त्वदर्शी होने के साथ-साथ अनन्य भगवद्भक्त भी थे। इनकी भगवान श्री कृष्ण के चरणों में निश्छल प्रीति थी। भगवान श्री कृष्ण भी इन्हें बहुत मानते थे।
महाभारत युद्ध के बाद में विजय के बाद युधिष्ठर का राज्याभिषेक हो जाने के बाद विदुर जी ने वन जाने का निश्चय किया और वे निराहार रहकर निर्जन वन में एकान्तवास करने लगे। शून्य व्रत में कभी-कभी लोगो को उनका दर्शन हो जाया करता था। कुछ दिनों बाद जब महाराज युधिष्ठिर अपने समस्त परिवार के साथ अपने ताऊ-ताई और माता कुन्ती से मिलने आये और वहां विदुर जी को न देखकर उनके विषय में राजा धृतराष्ट्र से पूछने लगे, उसी समय उन्हें विदुर जी दूर पर दिखायी दिये। वे सिर पर जटा धारण किये हुये थे, दिगम्बर वेष में थे। उनके धूल धूसरित दुर्बल शरीर पर नसें उभर आयी थी। मैल जम गयी थी। वे आश्रम की ओर देखकर लौटे जा रहे थे। युधिष्ठिर उनसे मिलने के लिये उनके पीछे दौड़े और जोर-जोर से अपना नाम बताकर उन्हें पुकारने लगे। घोर जंगल में पहुंचकर विदुर जी एक वृक्ष का सहारा लेकर स्थिर भाव से खड़े हो गये।
राजा युधिष्ठिर ने देखा कि विदुर जी का शरीर अस्थिपंजर मात्र रह गया है। वे बड़ी कठिनता से पहचाने जाते थे। युधिष्ठिर ने उनके सामने जाकर उनकी पूजा की, विदुर जी समाधिस्थ होकर निर्निमेष दृष्टि से युधिष्ठिर की ओर देखने लगे इसके बाद वे योग बल से युधिष्ठिर के शरीर में प्रवेश कर गये। उनका शरीर निर्जीव होकर उसी भांति वृक्ष के सहारे खड़ा रह गया। इस प्रकार साक्षात् धर्म के अवतार महात्मा विदुर धर्ममय जीवन बिताकर अन्त में धर्ममूर्ति महाराज युधिष्ठिर में ही समाहित हो गये।
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