जब गुरू से दीक्षा प्राप्त होती है तब व्यक्ति को ज्ञान होता है कि मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है, मेरे जीवन का कर्तव्य क्या है, उद्देश्य क्या है और मुझे किस जगह पहुंचना है।
जब तक कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत नहीं हो जाती तब तक व्यक्ति मल-मूत्र भरी देह से छूट नहीं सकता। तब तक वह पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता। तब तक वह अपने जीवन को ऊधर्वगामी नहीं बना सकता।
कुण्डलिनी जागरण केवल और केवल सद्गुरू के माध्यम से संभव है। गुरू तो एक पूर्ण हंसावतार हैं। वे एक विशेष उद्देश्य से पृथ्वी लोग में आते हैं और अपना कार्य करके अन्य किसी लोक में विचरण करने के लिए प्रस्थान करते हैं।
शिष्य माया है और गुरू पूर्ण ब्रह्म है। गुरू के माध्यम से ही शिष्य माया के जाल को तोड़ कर ब्रह्म तक पहुंच सकता है। गुरू के माध्यम से ही वह उस उच्च स्थिति तक पंहुच सकता है जिसे पूर्णमदः पूर्णमिदं कहा गया है।
ड्ढ गुरू तो शिष्य के लिये सदैव खुली बाहों से खड़ा रहता है। उसका निमंत्रण हर क्षण बना रहता है और केवल एक क्षण की आवश्यकता होती है उसकी बाहों में समाने की उसकी आत्मा में एकाकार होने की। उसकी ओर से कोई विलंब नहीं होता।
अगर शिष्य प्रयास करने पर भी सफ़ल नहीं हो पाता तो गुरू उस पर प्रहार करता है और यही गुरू का कर्तव्य भी है कि उस पर तीक्ष्ण से तीक्ष्ण प्रहार करे, तब तक जब तक कि उसका अहंकार का किला ढ़ह न जाये। जब यह गिरेगा तभी विशुद्ध प्रेम, चैतन्यता तथा दिव्यता का प्रवाह होगा।
गुरू के पास अनेक तरीके हैं प्रहार करने के। कठोर कार्य सौंपना, परीक्षा लेना, साधना कराना और ये जब निष्फल होते दिखे तो विशेष दीक्षा देकर वह ऐसा कर सकता है। परंतु पहले वह सभी प्रक्रियायें आजमा लेता है ताकि व्यक्ति तैयार हो जाये, वह इतना सक्षम हो जाये कि विशेष दीक्षा के शक्तिशाली प्रवाह को सहन कर सकें।
दीक्षा वह अमृत वर्जा है जो पूरे शरीर को अमृतमय बना देती है। दीक्षा के द्वारा गुरू शिष्य के तार मिल जाते हैं। दीक्षा कुण्डलिनी को आज्ञा चक्र तक पहुंचाने की क्रिया हैं, सहस्रार तक पहुंचाने की प्रक्रिया है।
घोडे़ को आप लगा लगाम पकड़ कर तालाब के किनारे ले जा सकते हैं या उसको कह सकते है, कि यह पानी बहुत स्वच्छ है, यदि तू पीयेगा तो प्यास बुझ जाएगी। पर यदि घोड़ा पानी पिये ही नहीं तो आप क्या कर सकते है। इसी प्रकार क्रिया तो आप को ही करनी है, गुरू तो केवल आपको रास्ता दिखा सकता है।
जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। परन्तु कुछ महापुरूष, कुछ अद्वितीय पुरूष, कुछ युग पुरूष ऐसे होते हैं जो मृत्यु की पगडंडी पर नहीं चलते अपितु अमृत के सार पर पांव रखते हुए गतिशील होते हैं। वे युग पुरूष पृथ्वी पर नहीं चलते अपितु वायुमंडल पर अपने चरण-चिन्हों को छोड़कर गतिशील होते हुए भी अगतिशील रहते है, क्योंकि सामान्य व्यक्तित्व ऐसे युग-पुरूषों को नहीं समझ पाता।
जहाँ ब्रह्म है वहाँ माया भी है और माया उस व्यक्ति की आँखें पर एक परदा डाले रहती है, उसके मन में संशय-असंशय के भाव जाग्रत करती रहती है, उसके मन में विश्वास-अविश्वास की दीवार खड़ी किये रहती है। वह विश्वास ही नहीं कर पाता कि यह व्यक्ति यह पुरूष, यह गुरू हमारे ही समान हँसता है, मुस्कराता है, रोता है, खाता है, पीता है, विचरण करता है और ऐसी ही क्रियायें करता है जैसे हर व्यक्ति करता है, एक साधारण व्यक्ति करता है और यह एक युग पुरूष हो सकता है।
ऐसे युग पुरूष को यह युग नमन करता है, देवता हर्षित होते है, अप्सरायें नृत्य करती है और इस युग का भाग्य विधाता बनकर अंधकार को दूर करता हुआ ज्ञान के प्रकाश को फ़ैलाने में समर्थ होता हैं।
और ऐसा युग पुरूष तो सिद्धाश्रम से मृत्युलोक में जाता है, पृथ्वी लोक पर आता है और जितने क्षण, जितना समय व्यतीत करना होता है उतना समय व्यतीत कर पुनः सिद्धाश्रम में चल जाता है। यहीं नहीं, अपितु वह निंरतर योग निद्रा के माध्यम से अपने पूरे शरीर को अंगुष्ठवत् बनाकर, सिद्धाश्रम में जाकर पूर्ण व्यक्तित्व बन जाता है, वहाँ योगियों को साधनाओं में सिद्ध करता है, ऋषियों और मुनियों को ज्ञान और चेतना देता है।
और अगर आप ऐसे युग पुरूष ऐसे गुरू को नहीं पहचान सकते, वे तो गुरू तो पूर्ण अवतार है ही, गुरू तो पूर्ण अंशावतार है ही। वे तो एक विशेष उद्देश्य को लेकर यदा-कदा पृथ्वी लोक पर आएगें ही और अपने कार्य को संपन्न कर पुनः किसी अन्य लोक में विचरण करने के लिए प्रस्थान करेगें।
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