सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आधार मनुष्य है, और जब से मनुष्य ने इस ब्रह्माण्ड को देखना-परखना आरम्भ किया, तब से उसके मन में अनेकों विचार पनपने लगे, तब से यह सूर्य क्या है——– यह चन्द्रमा क्या है——–मनुष्य का सृजन क्यों हुआ है—- मनुष्य की उत्पत्ति किस हेतु हुई है, जैसे प्रश्नों को उसने सोचना-विचारना प्रारम्भ कर दिया, तभी से ‘’ध्यान’’ की उत्पत्ति हुई है, क्योंकि ध्यान सम्पूर्ण मानव-जाति के विचार का आधार है।
एक आवश्यक तथ्य यह भी है, कि मनुष्य होना कोई बहुत बडी उपलब्धि नहीं हैं, अपितु मनुष्य बनना अपने-आप में एक श्रेष्ठ उपलब्धि है, और उसके लिये यह आवश्यक है, कि वह निरन्तर ऊपर की ओर उठे, ऊर्ध्वमुखी बने, तभी उसे एक ऐसा जीवन प्राप्त हो सकता है, जिसमें चेतना हो, श्रेष्ठता हो, पूर्णता हो, दिव्यता हो, बुद्धत्व हो। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अनेक प्रकार की समस्यायें, बाधायें, अडचनें, कठिनाईयां और न्यनतायें होती ही हैं। जो कि उसे एक शारीरिक दौर्बल्य एवं मानसिक तनाव युत्तफ़ जीवन जीने पर मजबूर कर देती है, और जब वह शारीरिक रूप से पीडित एवं दुःखी हो जाता है, तो उसकी अवस्था अकथनीय हो जाती है।
विज्ञान की परिभाषा के अनुसार- मानव-मस्तिष्क एक सेकण्ड में तीन लाख विचारों को जन्म देता है, किन्तु जब तीन लाख विचार एक सेकेण्ड में मस्तिष्क पर प्रहार करेंगे, तो ऐसी अवस्था में मस्तिष्क अपने-आप में कमजोर और कुतर्की बनेगा ही—- इससे बचने के लिये मुनष्य के अन्दर श्रद्धा भाव का जाग्रत होना आवश्यक है, जो उसे ध्यान प्रक्रिया की ओर अग्रसर करता है, अतः जहां तनाव मुक्त जीवन है, वहां सुख है, सौभाग्य है, सन्तोष है, पूर्ण मानसिक तृप्ति है, असीम आनन्द की अनुभूतियां हैं—- किन्तु इसके लिये यह जरूरी है, कि हम अपने तर्क को, अपनी बुद्धि को, जो कि मानसिक तनावों को उत्पन्न करती है, और जो जीवन को मृत्यु के द्वार तक घसीटती हुई ले जाती है, उसे एक तरफ रखकर, श्रद्वापूर्वक अपने मन को एकाग्र कर प्रभु-चिन्तन में लीन हो सकें।
मानव-मस्तिष्क हर क्षण गतिशील रहता है, और यह गतिशील रहता है विचारों से, भावनाओं से। जब तक मस्तिष्क में विचार रहते हैं, तब तक बुद्धि अपने-आप में पुष्ट होती रहती है, और जब मस्तिष्क में कई प्रकार के विचार आते हैं, तब मनुष्य कई प्रकार के झूठ, छल, सन्देह के कटघरे में अपने-आप को खड़ा पाता है, इस प्रकार वह एक अधोमुखी जीवन की और अग्रसर होता रहता है। अधोमुखी का अर्थ है, चिन्ताओं, परेशानियों, दुखों तथा पीड़ाओं से ग्रसित जीवन।
परन्तु मानव को चाहिये, कि वह एक ऊर्ध्वमुखी जीवन का निर्माण करे, ऊर्ध्वमुखी का तात्पर्य है, एक प्रकार की श्रेष्ठता, उच्चता, दिव्यता युत्तफ़ जीवन। इसके लिये यह आवश्यक है, कि हमारा मस्तिष्क विचार शून्य हो। विचार शून्य मस्तिष्क का अर्थ है- एक ऐसी प्रक्रिया, जिसके द्वारा मस्तिष्क में कम से कम विचार उत्पन्न हों, जब ऐसा होगा, तब वह बाह्य समाज से कट कर अपने अन्तर्मन में प्रवेश कर सकेगा, क्योंकि अपने अन्तर्मन में प्रवेश करने की क्रिया ही ध्यान है और जब यह ध्यान और गहरा होगा, तभी असीम अनुभूतियां, एवं आनन्द की प्राप्ति सम्भव हो सकेगी और यही प्रक्रिया, जो उस मानव मन को आत्म-तत्व का ज्ञान करा देती है, वह समाधि है। समाधि का तात्पर्य है, बाह्य समाज से कटकर अपने अन्तर्मन से गहराई के साथ उतरने की प्रक्रिया, पूर्णरूप से अन्दर उतरने की क्रिया, अन्दर के ब्रह्माण्ड को देख लेने की क्रिया।
जब व्यक्ति अपने अन्दर इस क्रिया को आरम्भ कर देगा, तब उसे ब्रह्माण्ड के उन सभी प्रश्नों का हल- सूर्य क्या है? चन्द्रमा क्या है? मनुष्य क्या है ? स्वतः ही मिलने लग जायेगा, तब उसे स्वयं अपने ही अन्दर समस्त ब्रह्माण्ड दिखाई देने लग जायेगा और तब उसे यह ज्ञात होगा, कि हमारे अन्दर जो कुछ है, उसका ही छायांकन हम बाहर देख पाते हैं, इसका अर्थ है कि हम अन्दर की ही वस्तु देखते हैं।
अर्थात् जो ध्यानावस्था में चले जाते हैं, उन्हें ये सूर्य और चन्द्रमा नहीं दिखाई देते, क्योंकि वह तो बन्द हो गया है आंखों के भीतर ही, तब बाहर देखने की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है, क्योंकि जो कुछ बाहर पुत्र-पुत्री, बन्धु-बान्धव, पति-पत्नी हमें दिखाई दे रहे हैं, वह सब कुछ तो हमारे हृदय के भीतर समाहित हैं, और देखने की क्रिया अपने-आप में एक अहंमन्यता है, अद्धितीयता है, श्रेष्ठता है।
यह अद्वितीयता, यह श्रेष्ठता मानव को तभी प्राप्त हो सकती है, जब वह अपने मानसिक तनाव से मुक्त होकर विचार शून्य हो सकेगा, और यह विचार शून्यता उसे प्राप्त होती है- ध्यान प्रक्रिया के माध्यम से, क्योंकि इस प्रक्रिया के माध्यम से वह अपने स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करने लगता है और जब ऐसा होता है, तब उसे सांसारिक कष्ट, पीड़ा, दुःख कुछ भी व्याप्त नहीं होता और न ही भौतिक-सुखों का उसके जीवन में कोई अन्य महत्व रह जाता है।
इस प्रकार के आंतरिक ज्ञान की प्राप्ति, इस आत्म-तत्व की अनुभूति प्रज्ञा सिद्धि द्वारा हम उस वास्तविक ज्ञान को अपने अन्दर समाहित करने की प्रक्रिया आरम्भ कर सकते हैं, जो वास्तविक है, जो रहस्यमयी है, जो अलौकिक है। जब मानव के भीतर ज्ञान का, प्राण-ऊर्जा का, प्राणश्चेतना का संचरण होने लगता है, तो वह समाधि अवस्था को प्राप्त कर जीवन की सर्वोच्चता को, जीवन की वास्तविकता को, जीवन के पूर्ण आनन्द को प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है।
किन्तु यह पूर्णता, यह आनन्द, जो वास्तविक जीवन है, यह मनुष्य को तभी प्राप्त हो सकता है, जब वह ब्रह्माण्ड भेदन क्रिया द्वारा मानसिक पीड़ा व तनावों से मुक्त हो, तभी वह ध्यान व समाधि की प्रक्रिया में संलग्न हो सकेगा। प्रज्ञा सिद्धि अपने-आप में एक सर्वश्रेष्ठ साधना है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने देह के भीतरी द्वारों में प्रवेश कर जीवन के आनन्द को प्राप्त कर सकने में समर्थ हो सकता है, तब वह अपने ऊपर छाये संकीर्ण संस्कारों को मिटा सकता है, तब वह अपने छल, झूठ, कपट से भरे जीवन का शुद्धिकरण करने की क्रिया प्रारम्भ कर सकता है, तब वह अपने ऊपर से माया के आवरण को हटा कर आत्म-तत्व से साक्षात्कार कर सकता हैं ।
अगर व्यक्ति अपने इस न्यूनताओं से भरे जीवन में उच्चता को प्राप्त करना चाहता है, अगर व्यक्ति अपने अधोमुखी जीवन से ऊपर उठकर ऊर्ध्वमुखी जीवन को प्राप्त करना चाहता है, तो उसे चाहिये कि वह इस दिव्य, श्रेष्ठ और अद्वितीय साधना को अवश्य ही सम्पन्न करे, क्योंकि इस साधना को सिद्ध करने से वह उस पथ पर गतिशील हो जाता है, जो उसे एक ऊर्ध्वमुखी जीवन प्रदान करता है, जिसे वास्तविक जीवन कहते हैं।
यह साधना 16 जनवरी शनिवार को शक्ति सिद्धि दिवस के विशिष्ट अवसर पर अवश्य ही सम्पन्न करना चाहिये, क्योंकि ऐसी दिव्य साधना के आधार स्वयं गुरूदेव ही होते हैं, और यह विशिष्ट अवसर गुरू चैतन्य सिद्धि दिवस के साथ ही साथ परम पूज्य सद्गुरूदेव के अवतरण दिवस से पूर्णतः चैतन्य है। यह साधना अद्वितीय एवं सर्वश्रेष्ठ है, आध्यात्मिक मार्ग की सफलता के लिये प्रथम आवश्यक है। यह साधना भौतिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की ओर बढ़ने का मार्ग है, इसे किसी भी गुरुवार के दिन भी सम्पन्न किया जा सकता है, किन्तु ऐसे विशिष्ट मुहूर्त में इसे सम्पन्न करने से इसमें सफलता का प्रतिशत कई गुणा अधिक हो जाता है। यह साधना साधक को समय-समय पर करते ही रहना चाहिये।
इस साधना को सिद्ध करने के लिये किसी स्त्री-पुरुष का भेद नहीं है, इस साधना को स्त्री या पुरुष दोनों ही पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ सिद्ध कर सकते हैं।
प्रातःकाल साधक दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर, पूजा कक्ष में ढीले वस्त्र पहिन कर श्वेत आसन पर बैठ जायें, पवित्रीकरण तथा दैनिक साधना विधि सम्पन्न करने के पश्चात् 5 मिनट तक अति तीव्रता से भस्रिका और प्राणायाम क्रिया को सम्पन्न करें, इसके लिये सांस को दोनों नथुनों से बाहर निकालें तथा अपने दोनों हाथों को झटके से आगे फैलायें, फिर सांस को दोनों नथुनों से अंदर भरते हुए अत्यन्त तीव्रता से पीछे की ओर हाथों को खीचें, हाथें को आगे और पीछे ले जाने और ले आने की क्रिया में आपको ऐसा लगना चाहिये, कि जैसे आप किसी भारी वस्तु को ढकेल रहें हैं और अपनी ओर खींच रहे हैं, यह क्रिया बहुत ही तीव्रता से 5 मिनट तक लगातार करें।
इसके पश्चात् सुखासन या पद्मासन किसी भी आसन में, जो आपके अनुकूल हो, आंख को बंद कर निश्चल भाव से बैठ जायें तथा अपना ध्यान भ्रूमध्य में केन्द्रित करें, लगभग 10-15 मिनट के पश्चात् ब्रह्माण्ड शक्ति युक्त सिद्धाश्रम प्राप्ति यंत्र को अपने सामने स्थापित कर दें, इसमें किसी विशेष पूजन की आवश्यकता नहीं है, सामान्य पूजन करें और प्रज्ञा शक्ति माला से निम्न मंत्र का 7 माला मंत्र जप सम्पन्न करें-
साधकों को चाहिये कि मंत्र जप समाप्ति के बाद, वे प्रत्येक 3 माह तक पड़ने वाली पूर्णिमा को इसी प्रकार साधना सम्पन्न करें और तीसरे माह की पूर्णिमा को मंत्र जप समाप्ति के पश्चात् यंत्र और माला को नदी या सरोवर में विसर्जित कर दें।
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