महान गुरुओं ने कभी भी अपनी शक्ति का दुरुप्रयोग नहीं किया और न ही अपनी शक्ति के चमत्कारिक प्रदर्शन किये, क्योंकि उन्हें ज्ञान था, कि यदि पूरे समाज का उत्थान करना है, समाज के सामने नया आदर्श देना है, शिष्य के जीवन से अज्ञान रूपी परत हटानी है तो उसे एक साधारण रूप में अपने पास बिठा कर अपने हाथ से ज्ञान का अमृत प्याला पिलाना पड़ेगा, उसे अपने साथ रख कर कुछ सिखाना पड़ेगा, अन्यथा प्रभाव केवल ऊपर-ऊपर ही रहेगा, और शिष्य वास्तविक अनुभूति प्राप्त नहीं कर सकेगा, इसके लिए उन्होंने सबसे पहले स्वयं शरीर की, देह की क्षमता को मापा, तपस्या के बल पर अपने आपको उस स्तर पर पहुंचाया कि वे जो भी बात कहें वह एक ठोस आधार लिये हो, स्वयं की देखी परखी, अनुभव की हुई हों, स्वयं के भीतर संशय की कोई गुंजाइश नहीं रहे, क्योंकि यदि स्वयं के भीतर ही संशय है तो जो वाणी उच्चारित होगी उसमें आधार नहीं होगा।
गुरु के पावन चरणों में मानव अपने संचित पुण्यों को लेकर जब दीक्षा का सौभाग्य प्राप्त करता है, तो गुरु का मिलन दिव्य वात्सल्य और ममता युक्त पिता और माता का शिशु में आत्म मिलन जैसी मनोहारी दृश्य पैदा कर देता है, जब गुरु शिष्य को सीने से लगाकर उसे प्यार से दुलारते हुए बेटा का उच्चारण करते हैं, गुरु अपने हाथ से स्पर्श से आंखों के तेज से शिष्य को नया जीवन, नया चिन्तन, नया दर्शन प्रदान करते हैं तो यही तो ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की पादाम्बहुज कल्प कथ्य है।
भारतीय चिंतन में यदि कर्त्तव्यबद्ध होना उत्सव है, तो कर्त्तव्यमुक्त होना भी, क्योंकि जीवन न तो कर्त्तव्यों को ढोते रहने का नाम है और ना उससे उदासीन होने का। यही संन्यास की भावभूमि है, जो गृहस्थ आश्रम के बाद प्रारम्भ होती है।
पूज्यपाद गुरूदेव के सम्बन्ध में यद्यपि इस व्यवस्था का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि वे कालचक्र के बंधनों से सर्वथा मुक्त व्यक्तित्व हैं, फिर भी जितने अर्थों में उन्होंने इस भौतिक जीवन को धारण किया है, उतने ही अर्थों में हम उनके प्रति इसी प्रकार कुछ कहने की इच्छा रखते हैं। भौतिक जीवन में होते हुये भी वे इस भौतिकता में जो अध्यात्म का पुट रखते हैं, उनका पूर्ण आध्यात्मिक स्वरूप तो केवल संन्यस्त शिष्य के समक्ष ही स्पष्ट हो सका है।
हमारे गुरू भाई-बहनों के मध्य कई अद्वितीय प्रतिभायें छिपी पड़ी हैं, वे उनका सदुपयोग कर सकते हैं और भले ही उनके नगर, ग्राम या कस्बे में संस्था की विधिवत् स्थापना न हुई हो, फिर भी वे संस्थागत रूप में कार्य कर सकते हैं। संस्था तो व्यक्तियों से बनती है, साइनबोर्डों या भवनों से नहीं, लेकिन आपने ऐसा नहीं किया। मुझे आपकी भावनाओं पर कटाक्ष करने में खेद है, किन्तु उससे भी अधिक पीड़ा है पूज्यपाद गुरूदेव का चिन्तन अपनी क्षमता भर करने के उपरान्त।
प्रत्येक वर्ष ही तो वे इस प्रकार आपको अपने समीप बुलाने की क्रिया करते हैं, जीवन के नये आयाम समझाने की क्रिया करते हैं आपको, आपके स्तर तक उतर कर रिझाते जैसा हैं—किन्तु फिर वही, कि शिविर समाप्त हुआ और अपने-अपने बंधन—बंधन तो आपसे ज्यादा पूज्यपाद गुरूदेव को हैं – शारीरिक रूप से भी, मानसिक रूप से भी और आत्मिक रूप से भी, किन्तु फिर भी वे आपसे अधिक गतिशील और सचेतन क्यों हैं?
इसका उत्तर है – उनके हृदय में बहता ‘स्नेह का अजस्र प्रवाह’, जो उन्हें घोर शारीरिक पीड़ा में भी उठकर आप तक आने के लिये बाध्य कर देता है – और आप है, कि मकान, दुकान की समस्या में आज से जैसे दस वर्ष पहले पीडि़त थे, उसी प्रकार आज भी पीडि़त अपने आपको बता रहे हैं। क्योंकि यह आपका ही जन्म दिवस है – पूज्यपाद गुरूदेव पिछले कई वर्षों से इसी तथ्य को दोहराते आ रहे हैं।
इसके उपरांत भी हम आशा संजोये हैं, कि हमारे जीवन में सुख, शांति, वैभव और कुण्डलिनी जागरण जैसी स्थितियां संभव होंगी। हमने आधार तो पुष्ट किया ही नहीं और स्वप्न-महल कई मंजिलों में खड़ा कर दिया! यह ढह जायेगा, यदि निर्मल मन से प्रेम की नींव डाले बिना कुछ बनाया भी गया—और प्रेम आयेगा तभी सुख आयेगा, तभी शांति आयेगी, तभी निर्भयता आयेगी और तब जाकर कहीं कुण्डलिनी जागरण की भावभूमि बनेगी।
परम्परागत ढंग से आने और लौट जाने से न तो कुछ घटित हुआ है, न घटित होगा, अतः यदि इस बार आप आयें, तो इसी भाव से आयें। आपको स्वयं ही बिना किसी निमंत्रण के आना चाहिये। जब कोई शिशु भोलेपन से, बिना किसी निमंत्रण के अपनी मां के पास जाकर चुपचाप खड़ा भर हो जाता है, तो एक ही क्षण में उसके असीम स्नेह का पात्र बन जाता है। जिस दिन शिष्य भी इसी प्रकार गुरूदेव के समीप उपस्थित होना सीख जायेगा, उस दिन बिना कुछ कहे, बिना कुछ मांगे ही बहुत कुछ प्राप्त कर ही लेगा।
शायद आपको यह अतिशयोक्ति लगे, किन्तु यह सत्य भी है, कि भावनाओं की उच्च दशा आ जाने पर फिर सिद्धियां ही उपस्थित होती हैं और विनम्र मनुहार करती हैं, कि साधक उनका वरण कर लें। संन्यासियों की मस्ती का यही तो रहस्य है। काश! आप सब यह समझ सकें, कि पूज्य गुरूदेव जिस तथ्य की ओर बार-बार संकेत करते हैं, कि समय कम है, उसका भावार्थ क्या है? गुरूदेव तो चित्त स्वरूप हैं। कब वे अपने चित्त से उसी पवित्र भावभूमि पर वापस चले जायेंगे, जिसे सिद्धाश्रम कहा जाता है, यह कोई नहीं जानता। आप इस भ्रम में मत रहिये, कि वे सशरीर ही सिद्धाश्रम जायेंगे। शरीर उनका अनुचर है, वे शरीर के नहीं। इसी से इस पवित्र अवसर पर प्रेम की शीतल फुहार में भीगने के लिये, स्वच्छ, निर्मल और उदात्त होने के लिये आप सभी का हृदय से आवाहन है, क्योंकि-
बस चंद दिनों की ही बात है कि आओ पास बैठें, फिर वही तो दुनिया में मोहब्बत की नजीर होगी। आध्यात्मिकता और संन्यास का अर्थ यदि पूज्य गुरूदेव से सम्बन्धित हुआ है, तो इसका अर्थ ठीक वही नहीं होता, जो सामान्य व्यक्ति से सम्बन्धित होता है। उनकी आध्यात्मिकता का अर्थ है – अब पूज्य गुरूदेव सक्रिय जीवन से कुछ विमुख होकर उन कार्यों को करेंगे, जो आने वाली पीढि़यों के लिये प्रकाश स्तम्भ का कार्य करेंगे। ये सौभाग्यशाली क्षण तो सृष्टि में तब आते हैं, जब शिष्यों की, जीवात्माओं की अनन्त काल की बेचैन वेदना से द्रवित हो उठते हैं उसके अंशी, उसके गुरु, उसके अपने ही प्राणाधार, और तब अपना शिवत्व त्याग कर वे चले जाते है, एक जीवात्मा की तरह, हमारी तरह हममें ही रच-बस जाने के लिए ताकि हम अपने गन्तव्य को पहिचान सकें, उनके शरीर से निःसृत होती पप्रगन्ध का अहसास कर सकें, उनके चरणों में बैठ कर अनन्त काल से प्यासी अपनी आत्मा की प्यास बुझा सके, भावनाओं के नेत्रों के माध्यम से उस अमृत पथ की पगडण्डी को सराबोर कर दें।
गुरु और शिष्य की धड़कने जुदा-जुदा नहीं होती, शिष्य के रोम-रोम में गुरु की छवि समाहित रहती है, आंखों में गुरु का तेजस्वी स्वरूप नाचता है, हर पल, हर क्षण, उठते-बैठते, सोते-जागते शिष्य गुरु में ही खोया रहता है, उसका संसार गुरुमय हो जाता है, उसकी हर क्रिया गुरु को अर्पित होती है, अपना स्वयं का अस्तित्व गलती हुई बर्फ सा गलता जाता है, और एक क्षण जीवन में वह आता है कि समस्त क्रियाओं के प्रति उसका कर्त्ताभाव सदा-सदा के लिए तिरोहित हो जाता है, वह गुरु की परछाई सा बन गुरुतुल्य हो जाता है और यही क्षण होता है कि गुरु अपने शिष्य को दोनों बाहों में समेट सीने से लगा कर सब कुछ समाहित कर देता है अपने शिष्य में, गुरु पाद सेवा और गुरु युगल चरण शिष्य की धरोहर बन कर साकार हो उठती है, ज्ञान के विराट पुंज में बोध के उन्मुक्त वातायनी क्षणों में, जहां व्यापकता ही व्यापकता है, सत् चित् आनन्द का मधुर मिलन शिष्य का व्यापक जीवन बन जाता है और इसीलिए शिष्य गुरु को प्राणाधार मानते हुए अनायास स्वीकार कर लेता है।
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