अक्सर यह सुना जाता है, कि आज मेरा मूड ठीक नहीं है, इस काम में मेरा मन नहीं लग रहा, आज खाना खाने की इच्छा नहीं है, आज मेरा हृदय काफी व्यथित है आदि। अतः यह निश्चित है, कि व्यक्ति का व्यवहार उसकी मनः स्थिति पर निर्भर करता है। जैसी मन की स्थिति होती है, शरीर वैसा ही व्यवहार करने लगता है। मन के प्रसन्न होने से व्यक्ति प्रसन्न होता है, मन के दुःखी होने से व्यक्ति दुःख अनुभव करता है। जब मन किसी वस्तु की इच्छा करता है, कोई कामना करता है, कुछ प्राप्त करना चाहता है, कुछ छोड़ना चाहता है, हर्ष अनुभव करता है, दुःखी होता है, तो निश्चय ही यह मनुष्य को बन्धन युक्त करता है।
आलस्य और प्रमाद भी मन के ही उत्पाद हैं, अहंकार भी मन में ही उत्पन्न होता है, जैसा मन कहता है, वैसा ही शरीर करता है और ऐसा इसलिये होता है, क्योंकि हमारा मन पर नियन्त्रण नहीं है, मन हमारे काबू में नहीं है, अपितु हम उसके दास हो गये हैं और वह हमारा स्वामी।
ऐसी स्थिति में हम अपने विवेक से निर्णय नहीं ले पाते, क्योंकि सामान्य मनुष्य का मन चंचल होता है और वह उसे इद्रिंय जनित विषय-वासनाओं की ओर अग्रसर करता है तथा व्यक्ति उसका गुलाम बन कर उन विषय-वासनाओं में लिप्त हो जाता है। मन ही मोह उत्पन्न करता है, कि यह मेरा पुत्र है, यह मेरी पुत्री है, यह मेरी पत्नी है, ये मेरे स्वजन हैं, मन ऐसा मानता है और व्यक्ति को उन बन्धनों में जकड़ लेता है, जो सामाजिक बन्धन कहलाते हैं, जो सांसारिक बन्धन कहलाते हैं।
मन जब कामासक्त होता है, तो व्यक्ति को कामान्ध बना देता है, जब मन क्रोध युक्त होता है, तो व्यक्ति को क्रोधी बना देता है, जब मन में लालच समा जाता है, तो व्यक्ति को लालची बना देता है, जब मन संशयग्रस्त होता है, तो व्यक्ति को अविश्वासी बना देता है, जब मन आलस्य से ग्रसित होता है, तो व्यक्ति को आलसी बना देता है अर्थात् मन ही वह कारण है, जो व्यक्ति के शरीर को, उसके व्यवहार को नियन्त्रित करता है।
इससे यह स्पष्ट है, कि यदि इन काम, क्रोध आदि बुराइयों पर विजय प्राप्त करनी है, तो पहले मन पर विजय प्राप्त करना होगा। और जब व्यक्ति मन को नियन्त्रित कर लेता है, तो वह काम, क्रोध, लोभ मोह, अहंकार आदि स्थितियों पर भी नियन्त्रण प्राप्त कर लेता है, फिर ये सब उसके जीवन में, उसके व्यवहार में, उसके आचार-विचार पर प्रभावी नहीं हो पाते, वह काम, क्रोध आदि की परिधि से परे हो जाता है, वह आसक्ति से परे हो जाता है, वह कुछ प्राप्त करने या त्याग करने की स्थितियों से भी ऊपर उठ जाता है।
अतः वह सुख-दुःख, हानि-लाभ आदि प्रवृत्तियों से ऊपर उठ जाता है, वह न सुख अनुभव करता है, न दुःख, वह न क्रोध अनुभव करता है, न पीड़ा, न वह सम्मान प्राप्त होने पर प्रसन्न होता है, न अपमानित होने का उस पर कोई प्रभाव पड़ता है। इसीलिये ज्ञानी पुरूषों ने कहा है, कि कामनाओं का त्याग कर मन को निर्विचार बनाओ। जब मन निर्विचार होगा, तो इच्छाओं पर नियन्त्रण प्राप्त हो सकेगा, तभी आसक्ति का नाश होगा, जब आसक्ति का नाश होगा, तभी हर्ष और विषाद, सुख और दुःख की प्रवृत्तियों से वह बच सकेगा। अतः मन को निर्विचार और निर्विकार बनाना ही बन्धन मुक्त होना है।
जब व्यक्ति के मन में सोच-विचार नहीं हो, कामना नहीं हो, सुख-दुःख का अनुभव नहीं हो, कुछ प्राप्त होने पर प्रसन्नता नहीं हो, कुछ खो जाने पर शोक नहीं हो, तो यह स्पष्ट है, कि वह व्यक्ति मुक्ति या मोक्ष की ओर अग्रसर हो रहा है। आसक्ति ही बन्धन है तथा अनासक्ति मोक्ष का मार्ग, इसलिये आवश्यकता आसक्ति का त्याग कर मन को निर्विचार बनाने की, क्योंकि आसक्ति ही पुनर्जन्म लेने का कारण है, आसक्ति के कारण ही व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है, बार-बार जन्म लेता रहता है। जब मन स्थिर होगा, व्यक्ति के नियन्त्रण में होगा, तभी व्यक्ति ईश्वर के चिन्तन में रत हो सकेगा।
साधक का यह प्रथम कर्त्तव्य है, कि वह मन पर नियन्त्रण प्राप्त करने का प्रयत्न करें, आसक्ति को दूर करने का प्रयत्न करें। यद्यपि यह अत्यन्त कठिन है, क्योंकि मन की चंचलता को समाप्त कर उसे स्थिरता प्रदान करना सहज क्रिया नहीं है।
परन्तु –
सतत् प्रयत्न के द्वारा ही मन पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है। यह स्पष्ट है, कि व्यक्ति के स्वयं के हाथ में ही है, कि वह बन्धन युक्त रहना चाहता है या बन्धन मुक्त। जब तक वह देह को अपना सब कुछ मानता रहेगा, इन्द्रिय जनित सुख के अधीन रहेगा, चूंकि इन्द्रियां मन के अधीन हैं, मन के अधीन होने के कारण वह बन्धन युक्त रहेगा। जब व्यक्ति देह बोध से ऊपर उठता है, मन धीरे-धीरे उसके नियन्त्रण में आने लगता है और मन के पूर्ण नियन्त्रित होते ही वह सभी बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
जब मन पूर्ण रूप से नियन्त्रित होगा, तभी इन्द्रियां भी पूर्णतः नियन्त्रित हो सकेंगी, क्योंकि सभी इन्द्रियां मन के ही अधीन हैं। जब मन नियन्त्रित होगा, जब उसकी चंचलता समाप्त होगी, तभी व्यक्ति साधनाओं या यौगिक क्रियाओं को पूर्णता से सम्पन्न कर सकेगा, तभी वह साधक की वास्तविक भावभूमि पर अपने पैर रख सकेगा, तभी वह इष्ट से साक्षात्कार कर सकेगा।
मन पर नियन्त्रण प्राप्त करने के लिये सबसे पहला आवश्यक तथ्य है, कि इसे शुभ संकल्प युक्त बनाया जाये। व्यक्ति के सामने ईश्वर प्राप्ति का लक्ष्य हो और वह उसको पूर्णता से प्राप्त करने के लिये जुट जाये।
जब यह संकल्प दृढ़ होगा, तो व्यक्ति किसी भी सांसारिक स्थिति से विचलित नहीं होगा। ऐसा ही संकल्प ले कर योगी जन जंगलों में, पर्वत की कन्दराओं में भी सर्दी, गर्मी, धूप, वर्षा आदि परिस्थितियों का सामना करते हुये, कन्द-मूल खा कर भूख मिटाते हुये, झरनों के जल से प्यास बुझाते हुये भी पूर्ण आनन्द अनुभव करते हैं और इससे हीन व्यक्ति को पेट भरा होने पर भी, कोमल गद्दे पर सोने पर भी रात भर नींद नहीं आती।
व्यक्ति सर्वप्रथम दृढ़ संकल्प युक्त हो, कि उसे साधना के पथ पर बढ़ना ही है, चाहे कितनी भी विषम परिस्थितियां आयें, चाहे कितना भी विरोध सहना पड़े, चाहे कितनी भी बाधा आये, वह हर बाधा को तोड़ता हुआ इस पथ पर अग्रसर होगा ही।
मन पर नियन्त्रण प्राप्त करने के लिये दूसरा तथ्य यह है, कि व्यक्ति इस वास्तविकता को जानने का प्रयत्न करे, कि देह बोध क्षण भंगुर है, अनित्य है, विनाशशील है, नष्ट होने वाला है। जो देह बोध के सम्बन्ध हैं, जो इन्द्रिय जनित सुख है, वह कभी भी समाप्त हो जायेगा। पुत्र, पुत्री, पत्नी, स्वजन, मित्र, भवन, भोग-विलास की वस्तुयें, यहां तक कि व्यक्ति का स्वयं का शरीर भी, सब कुछ समाप्त हो जाने वाला है।
यह सम्पूर्ण विश्व एक रंगमंच मात्र है, यहां जो भी दिखाई दे रहा है, वह सब अनित्य है, कल्पित है। जिस प्रकार सिनेमा के पर्दे पर फिल्म चलती है, हम भिन्न-भिन्न दृश्य, व्यक्ति या क्रिया-कलाप देखते हैं, लेकिन फिल्म के समाप्त होने पर वहां कुछ भी शेष नहीं रहता, उसी प्रकार जीवन रूपी रंगमंच पर भी विविध फिल्में चलती हैं, लेकिन अंत में कुछ भी शेष नहीं रहता। इसे जान कर व्यक्ति अपने देह बोध को त्यागता हुआ, आसक्ति को समाप्त करता हुआ निर्लिप्त होने का प्रयत्न करे तथा ईश्वर, जो कि नित्य है, शाश्वत है, उसका चिन्तन-मनन करे, उसे प्राप्त करने का साधन करे।
मन पर नियन्त्रण प्राप्त करने का तीसरा तथ्य यह है, कि व्यक्ति इष्ट और गुरु के चरणों में पूर्ण समर्पण का भाव रखे। समर्पण के बारे में गीता में कहा गया है- सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरण व्रज अर्थात् सभी धर्मों का त्याग कर एकमात्र मेरी ही शरण में आओ! यही समर्पण की परिभाषा । अपने सभी धर्मों का, सभी कर्मों का, सभी कामनाओं का त्याग कर मन को आसक्ति और विषय वासनाओं से मुंह मोड़ते हुये इष्ट या सद्गुरु के चरणों में ही पूर्ण रूप से लगाना ही समर्पण है। और जब समर्पण होता है, तब सांसारिक दायित्वों के प्रति केवल मात्र कर्त्तव्य बोध ही शेष रह जाता है, लगाव या आसक्ति नहीं रहती- न पत्नी, न पुत्र, न बन्धु, न मित्र, न भवन, न ही स्वयं का देह बोध।
गुरु चरणों में पूर्ण समर्पण होने के पश्चात् तो गुरु आज्ञा पालन के अलावा कुछ करने के लिये शेष रह ही नहीं जाता, फिर तो यह सद्गुरु का कर्त्तव्य हो जाता है, कि वे उसे पूर्णता प्रदान करें, उसे ज्ञान प्रदान कर आत्म बोध कराते हुये ब्रह्म से साक्षात्कार करायें, उसे ब्रह्म ज्ञान प्रदान करें। इस प्रकार व्यक्ति सभी बन्धनों से मुक्त हो सकता है, तब उसे विषम परिस्थितियों पर नियन्त्रण और दृढ़ संकल्प युक्त हो कर चित्त को ईश्वर और गुरु चरणों में लगाने की क्षमता प्राप्त होती है। इसीलिये कहा गया है –
मन ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है और मन का नियन्त्रण ही समस्त ब्रह्माण्ड का नियन्त्रण है।
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