इसी प्रकार यदि हम आज ईश्वर को पाने के लिये परिश्रम करते हैं तो कल ईश्वर को उपलब्ध होने के पश्चात् उस परमानन्द को, उस शांति को, उस सत्य को अन्य दूसरों में बांटने के लिये व्यग्र होंगे। यही स्थिति भगवान बुद्ध की थी, जिन्होंने स्वयं अनेक-अनेक द्वारों पर जाकर आवाज दी थी। अपने सोये हुये शिष्यों को जगाने के लिये, इसी प्रकार महावीर ने भी अनेक द्वारों पर जाकर स्वयं दस्तक दी थी। तथा इसी प्रकार स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी ने भी तुम्हें आमंत्रित किया, संदेश भेजा एकत्र होने के लिये और इसी प्रकार मैं भी तुम्हें किसी न किसी बहाने से बुला ही लेता हूं अपने समीप। आओ तो कुछ बांटू और आप पाये। वास्तव में सत्य तो यह है कि जो एक बार पा जाता है तो वह पाने के बाद इतना आनन्द पूर्ण नहीं रह जाता जितना आनन्द उसे बांटने में आता है।
जब समुन्दर का जल लहरों के रूप में तट की ओर बढ़ता है तो वह बिखरता ही है। उस तट के समीप जो होते हैं, वह ही सरोबार होते हैं अन्य दूरस्थ स्थानों पर रहने वालें नहीं, बादल यदि जल से भरा हो तो वह भी बरसेगा अवश्य ही। अगर आप आये हैं तो मेरा और आपका मिलन सार्थक अवश्य होगा।
कई बार मुझे आश्चर्य होता है कि जो सिद्धियां सफलता मैने प्राप्त की वह तुम्हें क्यों नही प्राप्त हो, तो सन्देह होता है कि तुम यह सब जान-बूझ कर करते हो, तुम करना ही नहीं चाहते, आंखे होने के पश्चात भी अंधे हो जिस प्रकार यदि सामने पहाड़ हो परन्तु आंख में कचरा पड़ जाये तो पहाड़ तो अपनी जगह खड़ा है, परन्तु आप को दिखाई नहीं देगा। आप कहेंगे कि पहाड़ तो है ही नहीं सब झूठ है। यह हवाओं का स्पर्श, झरनों का संगीत, पक्षियों का कलरव, अष्टगंध की खुशबू, खिलते हुये फूल क्या इन सब में तुम्हें कुछ एहसास नहीं होता? और इसीलिये आयोजन किया जाता है, साधना शिविरों का। जिससे तुम्हारे बहरेपन, अन्धेपन को मिटाने का कुछ प्रयास सक सकूं और आपके इस शरीर में पडे़ हुये निष्क्रिय केन्द्रों को जगाने का एक प्रयास कर सकूं।
जैसे एक बल्ब प्रकाश देता है, यदि उसका तार कट जाये तो प्रकाश आना बन्द हो जाता है, अन्धेरा हो जाता है, बल्ब वही का वही है, परन्तु विद्युत धारा के न रहने पर वह निष्क्रिय हो गयी। अन्धेरा छा गया, प्रकाश न रहा अब बल्ब भी बेचारा क्या करें? उस धारा से, उस शक्ति से तुम्हारा जुड़ना आवश्यक है, उस निष्क्रिय पड़े केन्द्र को जगाना जरूरी है, जिससे आप का तीसरा नेत्र, वह दिव्य-दृष्टि, वह अतीन्द्रिय शक्ति सक्रिय एवं जाग्रत हो और जब वह जाग्रत होता है तो उससे परमात्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है। ब्रह्माण्ड की कोई भी घटना गुप्त नहीं रह जाती हमारे समक्ष कोई रहस्य नहीं रह जाता। परन्तु हमारी जीवन धारा उस केन्द्र तक नहीं पहुंच पाती जिससे वह केन्द्र क्रियाशील नहीं हो पाता। जैसे भी यदि आंखें पूर्ण स्वस्थ हों लेकिन आंखों तक जीवन धारा न पहुंच पाये तो आंखे होना व्यर्थ हो जाता है क्योंकि जिस शक्ति से आंख देख सकती थी वह आंख तक पहुंच नहीं पाती।
हमारे स्वयं के भीतर ही वह केन्द्र स्थित है जिसके जगने पर हम जान सकते हैं ईश्वर को, सत्य को। जहां से बिना किसी वीणा के, बिना किसी बांसुरी के, बिना किसी वाद्य यंत्रें के संगीत उठता है, पहली बार अनिवर्चनीय सुगंध का एहसास होता है, ज्ञात होता है, मुक्ति का द्वार, जहां परम स्वतंत्रता है, जहां कोई दुःख नहीं केवल और केवल आनन्द और आनन्द और परम आनन्द के अतिरिक्त कुछ नहीं है। परन्तु उस केन्द्र तक तुम नहीं पहुंच पाते हो, कोशिश तो अवश्य करते हो उर्जा वहां तक नहीं पहुंच पाती कहीं नीचे ही अटक कर रह जाती है। अतः उस शक्ति को, उस जीवन धारा को उस केन्द्र पर पहुंचाकर उस शिव से मिलन कराने का हमें पुरजोर प्रयास करना है। हो सकता है वह कमल विकसित हो जाये, हमारा आत्मदीप प्रज्ज्वलित हो जाये, वह आंख-जिसे तीसरी आंख कहते हैं वह मिल जाये, वह सुपरसेन्स मिल जाये तो अतीन्द्रिय क्षमता के हम धनी बन जाते है।
परन्तु आप बीज रूप में है जरूरी नहीं कि आप वृक्ष बन ही जाये क्योंकि सभी बीज वृक्ष नहीं बन पाते यह सब नियति के हाथ है परन्तु संभावना है वृक्ष बनने की। इस अनन्त संभावना के अन्तर्गत ही हम उसे पाने का जानने का प्रयास करते है और जब जक हम सब कुछ स्वयं न जान ले तब तक कोई शास्त्र प्रमाणित नहीं कर सकता। कोई व्यक्ति जोर-जोर से चिल्लाकर भी प्रमाणित नहीं कर सकता क्योंकि किसी को जाने बिना हम उस पर विश्वास नहीं कर पाते और यह सही भी है। जिसे हम नहीं जानते उस पर कैसे विश्वास करें। हमें पता नहीं कि भगवान है या नहीं बिना जाने यह कहना कि भगवान है कहना उचित नहीं। परन्तु जिसने जाना है ईश्वर को, उसका दर्शन किया है उस व्यक्ति का जीवन अलौकिक है, लाजवाब है। तुम सब के अन्दर वह शक्ति विराजमान है लेकिन प्रकट नहीं हो पायी क्योंकि जब तक वह वहां उस केन्द्र पर न पहुंच जाये जहां से जाग्रत होने की संभावना है तक तक वह अप्रकट रह जाती है जैसे कोई पहली बार नदी तट पर जाता है और वह कहें मुझे तैरना नहीं आता मैं नदी में नहीं उतरूंगा जब तक तैरना नहीं सीख लूं, वह कहता तो बिलकुल ठीक बात है लेकिन बात सारी उलट है। सिखाने वाला कहेगा कि पहले नदी में उतरो नहीं तो कैसे सीखोगे तैरना, वह कहेगा कूदो, उतरो, बिना उतरे नहीं सीख पाओगे और वह कहेगा नहीं मैं तो सीख कर ही उतरूंगा।
और वास्तविकता यह है कि हम कूदे बिना तैरना नहीं सीख पायेंगे। हालांकि सभी लोग तैरना जानते हैं, सीखना नहीं पड़ता। जो लोग पहले तैरना नहीं जानते थे अब जानते है उन्हे भी पता है कि पानी में गिर जाते है और हाथ पैर फेंकने लगते है उल्टे सीधे। बाद में ढंग से हाथ पैर चलाने लगते है और तैरने लगते है। अतः वे कहेंगे तैरना सीखा नहीं जा सकता यह तो पुनर्स्मरण है। जिस केन्द्र की, जिस चक्र की, जिस सुपरसेन्स की जिस तीसरी आंख की मै बात कर रहा हूं वह हमारे मस्तिष्क में गुप्त रूप से विराजमान है। मस्तिष्क विशेषज्ञ भी यही कहते हैं कि हमारे मस्तिष्क का 95 प्रतिशत हिस्सा निष्क्रिय है। केवल 5 प्रतिशत हिस्सा ही क्रियाशील है। बडे़ से बडे प्रतिभाशाली, जीनियस व्यक्तियों का भी पांच से दस प्रतिशत हिस्सा ही क्रियाशील होता है बाकी हिस्सा निष्क्रिय पडा रहता है। इस निष्क्रिय हिस्से में ही वह गुप्त केन्द्र जिसे हम तीसरी आंख या दिव्य दृष्टि कहते है छुपा हुआ है यदि वह खुल जाये तो हम जीवन को एक नये अंदाज में देखने लगेंगे। हमारा देखने का ढंग, सभी क्रिया कलाप आदि बदल जायेंगे। वह निष्क्रिय केन्द्र हम कैसे सक्रिय करें?
मैने अभी बताया यदि बल्ब की विद्युत धारा कट जाये तो प्रकाश नहीं होगा। यदि विद्युत धारा वहा तक पहुंचे तो बल्ब जल जायेगा। अतः प्रकाश को पाने के लिये बल्ब का होना आवश्यक है तथा विद्युत धारा का होना भी आवश्यक है। अकेले विद्युत धारा से प्रकाश उत्पन्न नहीं हो सकता और न ही अकेले बल्ब प्रकाश नहीं कर सकता। धारा अकेली बहती है तो बहती ही रहेगी प्रकाशित नहीं होगी इसी प्रकार बल्ब भी अकेला प्रतीक्षा करता रहे लेकिन बिना विद्युत शक्ति के प्रकाशित नहीं हो पायेगा। और जब बल्ब में पहली बार विद्युत धारा का संचार होगा तो वह भी गर्व से कह सकेगा अद्भूत है, अलौकिक है, अनिवर्चनीय है। मुझे नहीं पता क्या हो गया अन्धेरे से भरा था अब प्रकाश से भर गया हूं। और बल्ब भी उस प्रकाश को स्वयं में समेट कर नहीं रख सकता संभव ही नहीं है। किरणों का फैलाव होगा, किरणे जहां तक बहेगी, जहां तक जायेंगी, वहां तक प्रकाश होगा ही। अतः जिन्होने दिव्य दृष्टि पायी है वह यह नहीं कह पाते कि हमने अपने प्रयास से पाया है। वह तो यह कहते है कि उसी की कृपा का फल है, उसी का वरदान है, उसी के प्रसाद से सब कुछ है, मेरा कोई प्रयास नहीं है। लेकिन इसका अर्थ यह मत समझ लेना कि प्रयास नहीं करना है। उसको पाने के लिये प्रयास करना है और अथक प्रयास करना है। जब दिव्य दृष्टि मिलेगी तो यही कहोगे कि उसी की कृपा का फल है।
उस केन्द्र को सक्रिय करने का प्रयास क्या है? छोटा सा प्रयास है, कुछ को बडा भी लग सकता है, कुछ को कठिन भी। ईश्वर ने हमें जो यह दिव्य शरीर दिया है, पूरी जीवन व्यवस्था दी है, यह पूर्ण शरीर पांच से सात फीट का है। इस पांच सात फीट की सीमा में ही सब इन्तजाम मौजूद है। उसी में गुप्त केन्द्र है जिससे हम उस ईश्वर का पहुंच सकते है। हमारे काम केन्द्र के पास स्थित कुण्ड में जीवन ऊर्जा एकत्र होती है, जैसे एक पानी का कुण्ड हो। उस ऊर्जा का नाम ही कुण्डलिनी है। उस उर्जा का स्वरूप एक सोये हुये सर्प की भांति है। जो कुण्डल पर कुण्डल मारकर फन को रखकर सोया पड़ा है। परन्तु जैसे सर्प को छेडें तो वह फन उठा लेता है और कुण्डल टूट जाता है। जब वह सर्प पूर्ण रूप से जागता है और उसका फन पूरे व्यक्तित्व को पार कर मस्तिष्क तक पहुंचता है। तब जो हमें मिलता है उसका हमें कुछ भी पता नहीं होता।
और सर्प पूंछ के बल पर ही सीधा खडा हो सकता है और यदि वह खड़ा होता है तो केवल ऊर्जा के सहारे खड़ा है उसके पास कोई ठोस उपाय नहीं है। सिर्फ शक्ति के बल पर खड़ा है संकल्प के बल पर खड़ा है, इसी प्रकार हमारी कुण्डली का स्वरूप भी सर्प का आकार का बताया गया जब हमारी कुण्डली पूरी तरह जागती है तो उसके पास भी कोई ठोस सहारा नहीं होता केवल वह भी ऊर्जा के सहारे खड़ी होती है। सहारा लेना एक बात है, सहारा लिये ही चले जाना बिलकुल दूसरी बात है। सहारा दिया ही इसलिये गया है कि तुम बेसहारे हो सको, सहारा दिया ही इसलिये गया है कि अब तुम्हें सहारे की जरूरत न रहे।
एक बाप अपने बेटे को चलना सिखा रहा है। कभी खयाल किया है कि जब बाप अपने बेटे को चलाना सिखाते है, तो बाप बेटे का हाथ पकड़ता है, बेटा नहीं पकड़ता। लेकिन थोड़े दिन बाद जब बेटा थोड़ा चलना सीख जाता है, तो बाप का हाथ बाप तो छोड़ देता है, लेकिन बेटा पकड़ लेता है। कभी बाप को चलाते देखें, तो अगर बेटा हाथ पकड़े हो तो समझो कि वह चलना सीख गया है, लेकिन फिर भी हाथ नहीं छोड़ रहा है, और अगर बाप हाथ पकड़े हो तो समझना कि अभी चलना सिखाया जा रहा है, अभी छोड़ने में खतरा है, अभी छोड़ा नहीं जा सकता। और बाप तो चाहेगा ही यह कि कितनी जल्दी हाथ छूट जाये, क्योंकि इसीलिये तो सिखा रहा है।
यदि किसी बाप को अपने पुत्र से मोह हो जाय और उसे मजा आने लगे कि बेटा उसका हाथ न छोड़े तो वह बाप नहीं उसका दुश्मन हो जाता है। बहुत गुरु भी ऐसे ही होते है, जिस बात के लिये उन्होंने शिष्यों को सहारा दिया था वह बात वहीं समाप्त हो जाती लेकिन उन्होंने अपने मजे के लिये उनका हाथ न छुड़ाकर उन्हें बैशाखी युक्त कर दिया और अपने मजे के लिये उन्हे बता दिया कि तुम मेरे बैशाखी के बिना चल नहीं सकते। इससे अहंकार को बल मिलता है। तृप्ति मिलती है। परन्तु जिस गुरु को अहंकार की तृप्ति मिल रही हो वह तो गुरु ही नहीं है। लेकिन बेटा पकड़े रख सकता है बाद तक भी क्योंकि वह उसे डर हो सकता है कि कहीं गिर न जाऊं बिना बाप के मैं कैसे चलूंगा? तो गुरु का काम है उसके हाथ को झटक दें और कह दें कि तुम अकेले चलो गिरोगे तो स्वयं को उठ जाना दो चार बार गिर कर उठोगे तो पक्के हो जाओगे आखिर उठने के लिये गिरना भी जरूरी है।
साधक को सुरक्षा से बचना चाहिये। साधक के लिये सुरक्षा सबसे बड़ा मोहजाल है। अगर उसने एक दिन भी सुरक्षा चाही, और उसने कहा कि अब मैं किसी की शरण में सुरक्षित हो जाऊंगा, और किसी की आड़ में अब कोई भय नहीं है, अब मैं भटक नहीं सकता, अब मैंने ठीक मुकाम पा लिया, अब मैं कहीं जाऊंगा नहीं, अब मैं यहीं बैठा रहूंगा, तो वह भटक गया, क्योंकि साधक के लिये सुरक्षा नहीं है। साधक के लिये असुरक्षा वरदान है, क्योंकि जितनी असुरक्षा है, उतना ही साधक की आत्मा को फैलने, बलवान होने, अभय होने का मौका है, जितनी सुरक्षा है, उतना साधक के निर्बल होने की व्यवस्था है, वह उतना निर्बल हो जायेगा।
जिस प्रकार भोलेनाथ शंकर ने सर्प को अपने सिर पर रखा हुआ है उसका कारण सर्प का भोला पन है क्योंकि सर्प अपनी तरफ से कभी किसी को सताने नहीं जाता लेकिन यदि उसके साथ कोई छेड़ छाड़ करें तो वह क्रोधित होकर खतरनाक हो सकता है। यही बात कुण्डलिनी में भी है कुण्डलिनी भी एक भोली-भाली शक्ति के रूप में तुम्हारे अन्दर विराजमान है जो तुम्हें कभी परेशान नहीं करती लेकिन यदि तुम ने उसको छेड़ा तथा गलत ढ़ंग से छेड़-छाड़ की तो फिर तुम्हारी खैर नहीं। अनेकों अनेकों विकार उत्पन्न हो सकते है। लेकिन यदि कुण्डलिनी सही प्रकार अपना रास्ते पकड़ती है और ऊपर उठती है तो फिर तुम्हारे भीतर बहुत गर्मी पैदा होगी, क्योंकि वह तो इलेक्ट्रिक फोर्स है, वह तो बहुत ताप ग्रस्त ऊर्जा है।
जैसा कि मैंने तुमसे कहा कि सर्प एक प्रतीक है, कुछ जगह कुण्डलिनी को अग्नि ही प्रतीक समझा गया हैं वह भी अच्छा प्रतीक था। तो वह आग की तरह ही जलेगी तुम्हारे भीतर और लपटों की तरह ऊपर उठेगी। उसमें तुम्हारा बहुत कुछ जलेगा। तो अत्यंत रूखापन भीतर पैदा हो सकता है कुण्डलिनी के जगने से। इसलिये व्यक्तित्व स्निग्ध चाहिये और व्यक्तित्व में थोड़े रस-स्त्रोत चाहिये।
अब जैसे क्रोधित व्यक्ति है और उसकी कुण्डलिनी जाग्रत हो जाये तो उसके सामने बडी कठिनाईयां होंगी क्योंकि वह पहले से ही एक रूखा आदमी है और एक और अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाये तो उसके भीतर तो बड़ी कठिनाई होगी। यदि प्रेमी आदमी है वह स्निग्ध है उसके भीतर रस की स्निग्धता है कुण्डलिनी जगेगी तो इतनी कठिनाई नहीं होगी। वह कुण्डलिनी उठेगी तो आपके बचने का कोई मार्ग नहीं हो सकता क्योंकि फिर आपका स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। अतः अपने को फना करने की इच्छा मन में हो, अपने को मिटाने कि लालसा मन में हो तो आगे बढ़ना तभी ध्यान की ओर, तभी कुण्डलिनी जागरण की ओर, तभी ईश्वर की खोज में निकलना अन्यथा इश्वर नहीं मिल पायेगा। तथा दोष गुरु को दोगे। यह अहंकार की लडाई है खतरा यह है कि स्वयं का व्यक्तित्व नहीं बचेगा यदि कुण्डलिनी जाग्रत होगी तो सब कुछ परिवर्तित होगा। सब कुछ नया होगा।
कुण्डलिनी जाग्रत होने पर कभी कभी अजीब दशा हो जाती है तथा पूर्ण सफलता नहीं मिलती, इस में तुम्हारा प्रयास पूर्ण मनोयोग से नहीं होता है, केवल आधे-अधूरे अधमने मन से क्रिया मंत्र जप आदि करते हैं, जिससे बीच में अटक जाते हैं। पूर्ण शक्ति से, पूर्ण एकाग्रता से, प्रबल इच्छा से हम संकल्प पूर्वक उस कर्म क्रिया साधना को नहीं कर पाते। इसलिये पूर्ण सफलता मिलते-मिलते रह जाती है। हम नदी तट पर जाकर भी नदी में कूदना नहीं चाहते और तैरने का मजा लेना चाहते है। ऐसा नहीं हो सकता। इस तैरने का मजा लेने के लिये नदी में कूदना ही पडेगा। कोई भी साधना, मंत्र जप पूर्ण क्षमता के साथ करना किसी भी तरह का कोई भाग्य बाधा या पूर्व जन्मों के कर्म हमारे सामने टिक नहीं पायेंगे आप अवश्य ही सफल होंगे। यदि फिर भी सफलता नहीं मिले तो पुनः प्रयास करें। पुनः प्रयास करें तो आप देखेंगे आप सफलता के कितने निकट है। पूरे एक बार सफलता मिले तो संपूर्ण जीवन उज्ज्वलमय होगा, कोई घिसा-पिटा जीवन नहीं रह जाता।
और मेरी बातों को सौ प्रतिशत कोई साधक शिष्य अपने हृदय में बिठा नहीं सकता, कोई एक आध बिरला ही मेरी बातों पर अमल कर सफलता के शिखर पर पहुंच सकता है। और वास्तव में मन्त्र योग वास्तविक विज्ञान है। ‘मननात् जायते इति मन्त्रः’ जिसके मनन के द्वारा जन्म मृत्यु के चक्र से त्रण मिलता है वही मन्त्र है।
हर मन्त्र के लिये एक ऋषि है जिसने उस मन्त्र को संसार को प्रदान किया, साथ ही मात्र, देवता, बीज-जो मन्त्र को विशेष शक्ति प्रदान करता है, शक्ति तथा कीलक हैं। मन्त्र ईश्वर है। मन्त्र तथा उसके अधिष्ठाता देव एक ही हैं। मंत्र देवता है। मन्त्र देवी शक्ति है जो शब्द-शरीर से प्रकट होती हैं। श्रद्धा, भक्ति शुद्धता के साथ सतत मन्त्र का जप करने से साधक की शक्ति बढ़ती है, मन्त्र-चैतन्य का जागरण होता है तथा साधक को मन्त्र-सिद्धि मिलती है। उसे ज्ञान, मुक्ति, शान्ति, नित्य-सुख तथा अमृतत्व की प्राप्ति होती है।
मन्त्र के सतत जप करने से साधक मन्त्र के अधिष्ठाता देवता के गुणों तथा शक्तियों को प्राप्त करता है। सूर्य मन्त्र के जप से स्वास्थ्य, दीर्घायु, वीर्य, तेज की प्राप्ति होती है। यह शरीर तथा चक्षु के सारे रोगों को दूर करता है। शत्रु कुछ भी हानि नहीं पहुंचा सकते। प्रातः काल आदित्य-हृदय का पाठ कर राम ने रावण पर विजय प्राप्त की। मन्त्रों में देवताओं की स्तुति अथवा करूणा या सहायता की याचना है। कुछ मन्त्र बुरी आत्माओं को रोकते या अनुशासित करते हैं। शब्दों के लय-पूर्ण स्पन्दन से आकृतियों की उत्पत्ति होती है। मन्त्रों के उच्चारण से उनके देवता विशेष की आकृतियाँ निर्मित होती हैं। और तीसरे नेत्र का जागरण मन्त्र द्वारा भी संभव है तथा योग के द्वारा भी जागरण किया जाता है तथा तीसरे गुरु कृपा द्वारा दीक्षायें प्राप्त कर जागरण किया जा सकता है। गुरुद्वारा प्रदत्त मन्त्र द्वारा भी कुण्डलिनी जागरण कर दिव्य दृष्टि प्राप्त की जा सकती है। योग के द्वारा भी तीसरा नेत्र जाग्रत किया जा सकता है। योग की सारी विधियों के लिये यम, नियम आधार है। दुर्गुणों का निषेध तथा सद्गुणों का विकास योग की पहली सीढ़ी है। राजयोग में इसे यम-नियम कहते हैं। योगाभ्यास के द्वारा मनुष्य उन असाधारण शक्तियों को प्राप्त कर लेता है जिन्हें कोई भी मशीन या यंत्र उत्पन्न नहीं कर सकता साथ ही यम-नियम के कारण उन शक्तियों का दुरूपयोग भी असंभव है। मन की चंचलता योग साधना में सब से बडी बाधा है। मन स्वभावतः ही बहिर्मुखि है, यह सदा अस्थिर है, मन को दृढ़ता पूर्वक नियंत्रण कर इसकी शक्तियों को लक्ष्य की ओर केन्द्रित करने की आवश्यकता भर है।
योगी के मार्ग में बहुत सी बाधायें आया करती है। निराशा, उदासी, रूग्णता, अवसाद, शंका, अनिश्चय, शारीरिक तथा मानसिक शक्ति की कमी, आलस्य, अस्थिरता, विषय सुखों की तृष्णा, गलती यह सब बाधायें है। योग मार्ग में हमें हतोत्साहित नहीं होना चाहिये। इन सभी बाधाओं पर विजय प्राप्ति के लिये पतंजलि के अनुसार एकतत्वाभ्यास अर्थात् एक ही वस्तु पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करना चाहिये इससे उसमे स्थिरता तथा शक्ति आयेगी। दैनिक आत्म विश्लेषण तथा आत्म परीक्षण योगी के लिये अनिवार्य है, तभी योग का साधक अपने दोषों को दूर करके आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर हो सकता है। जिस प्रकार एक माली प्रति दिन अपने नये उगने वालों पौधों की देख-रेख करता है तथा प्रति दिन खरपतवार निकाल फेंकता है तथा निश्चित समय पर पानी देता है तब वे शीघ्रता से फलते-फूलते हैं तथा फल देते है। ठीक उसी प्रकार योगाभ्यासी को भी नित्य आत्मनिरीक्षण करके अपने दोषों को उचित उपाय द्वारा दूर करने का प्रयत्न करें। यदि एक तरीके से सफलता नहीं मिले तो अन्य प्रकार से प्रयास करना चाहिये। ओर आपके लिये जानना भी आवश्यक है कि जितने भी योग के आसन है, वह सब ध्यान की स्थितियों में अचानक प्राप्त हुये है। उन्हें किसी ने सोच कर नहीं बनाई। उन्हें किसी ने बैठ कर तैयार नहीं किया। ध्यान की इस स्थिति में जाने पर ऋषियों ने देखा कि शरीर किस स्थिति में गया है। तब धीरे धीरे पता चला कि जब शरीर इस प्रकार की दशा में होता है तो मन इस प्रकार की दशा में चला जायेगा। जैसे कि हमें पता है कि हमारे भीतर की स्थिति करूणा से परिपूर्ण है तो आंख में आसू भर आते है। अगर आंख में आंसू आ जाये तो भीतर रोने का भाव आता है। यदि क्रोध आता है तो हमारे दांत और मुट्ठियां भिंच जाती है, आंखे लाल हो जाती है। अगर किसी पर प्यार आता है तो कुछ और ही भाव-भंगिमा बनती है। उसे हम कह सकते हैं ध्यान में जाने के लिये भी शरीर की अपनी एक अलग व्यवस्था है।
यदि उस व्यवस्था के अनुरूप हम अपने शरीर को ढ़ाल लें तो ध्यान की पराकाष्ठा पर पहुंच कर समाधि में लीन हो सकते है। इसी प्रकार मुद्राओं का भी बडा प्रचलन है जिस प्रकार किसी को आदर पूर्वक प्रणाम करने पर हमारे हाथ स्वतः जुड जाते है। इस प्रकार अनेकों मुद्राओं का भी विशेष अवस्थाओं में पता चला और एक मुद्रा शास्त्र भी बन गया। जिससे बाहर से देख कर भी कहा जा सकता है कि आप ध्यान में है या नहीं। शरीर की मुद्राओं, आसनों के साथ-साथ और बहुत कुछ प्रकट होता है। यह हो सकता है कि जब ध्यान लगाने पर आपकी ऊर्जा जग जाये आपके अन्दर के सभी प्राण झंकृत होकर आपका शरीर नाचने को उद्धत हो तो आप शरीर को न रोकें। आप अपने आस-पास का कोई ख्याल या भय मन में न लायें कि पास में मेरी पत्नी, बेटा, पिताजी, मित्र आदि बैठे हैं वह क्या सोचेंगे। आप जी भर कर नाचना रोना है तो जी भर कर रोना, हंसी आये तो जी भर कर हंसना अर्थात् जो भी भाव आये उसे पूर्ण रूप से निकल जाने देना। यह आपकी ऊर्जा जो उठ रही है उसके साथ सहयोग होगा। उस वक्त जो भी क्रिया हो शरीर में होने देना चाहिये। रोकना नहीं तो कुण्डलिनी वर्तुल बनाते हुये ऊपर उठती है और जागरण हो सकता है।
और तीसरा उपाय गुरु द्वारा शक्तिपात से ऊर्जा का नियंत्रित करना, इसमें कोई न कोई दूसरा शिष्य रूप में सहयोगी चाहिये जिसके भीतर तीव्रता बढ़ायी जा सकें। मूल बात तो यह है कि शक्तिपात सहयोगी को ही हो सकता है परन्तु वह मूल सम्पत्ति नहीं है साधक की। शक्तिपात से तुम्हारी सम्पत्ति नहीं बढ़ सकती है, केवल तुम्हारी क्षमता का विकास हो सकता है। तुम्हें एक बार अनुभव हो जाये साधना सिद्धि की झलक मिल जाये तो फिर तुम्हारे कदम डगमगाते नहीं इच्छा प्रबल हो जाती है कि तुम भटक नहीं रहें हो, विश्वास हो जाता है कि तुम्हें सफलता मिलेगी। इसीलिये बार-बार शक्तिपात करने से बार-बार झलक मिल सकती है। लेकिन अंतिम परिणाम तक तुम्हें स्वयं पहुंचना होगा। शक्तिपात गुरु द्वारा स्विच दबाया जाकर प्रकाश उत्पन्न करना है। इस जीवन में जो भी घटता है उसका कोई और निर्माता नहीं है सिवाय तुम्हारे। तुम अपने भाग्य के स्वयं निर्माता हो। तुम रोज अपना भाग्य निर्मित करते हो। तुम्ही अपनी किस्मत रोज प्रतिपल लिखते हो। यदि तुम ध्यान की ओर अग्रसर हो अपने मन में मंदिर बनाओ तो गुरु या परमात्मा स्वयं आ जाता है वह तो युगों युगों से प्रतीक्षा कर रहा है कि कब मंदिर बनाओगे कब निमंत्रण दोगे और कब भाव विह्नल होकर पुकारोगे।
और आप सब साधनायें करें लेकिन उसका अनुभव, उसकी अनुभूति जो भी आपको हो वह केवल आप मुझसे ही बतायें। किसी अन्य से नहीं अन्य का मतलब अपने पत्नी को भी नहीं या पति को भी नहीं क्योंकि जो अनुभव आपको हुये हैं, वही अनुभव अन्य किसी को होना आवश्यक नहीं है। आपके बताने पर दूसरा कोई नकारात्मकता आपको दे देगा कि ऐसा नहीं होता मुझे ऐसा हुआ है तुम्हें भी ऐसा ही होना चाहिये। जब कि सभी को एक जैसा परिणाम अनुभूति नहीं होती यह सब अपनी-अपनी स्वभाव व प्रकृति पर निर्भर होता है। आप अपने जीवन में जाग्रत अवस्था को प्राप्त कर सके, पूर्ण रूप में चैतन्य होकर अपनी ऊर्जा शक्ति को उर्ध्वमुखी बना सको, यही शुभ आशीर्वाद् है!
कैलाश चन्द्र श्रीमाली
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