यदि प्रार्थना शुभ के लिये और शुद्ध भाव के साथ की जाये तो हमारी प्रार्थना हमारे ईष्ट, गुरु, परमात्मा तक अवश्य पहुंचती है और हमारी मनोकामना पूर्ण होती है। प्रार्थना में साधक के उच्चतम शिखर पर पहुंचने पर भगवान से, गुरु से, मिलन होता है।
किसी न किसी रूप में प्रार्थना प्रत्येक धर्म, सम्प्रदाय में प्रचलित है। प्रार्थना सामूहिक रूप से अथवा अकेले भी की जाती है। मस्जिदों में पांच वक्त की नमाज अदा करना प्रार्थना का ही स्वरूप है। गुरुद्वारों में भी गुरु वाणी का पाठ प्रार्थना के क्रम में आता है। ईसाई धर्म का आधार ही प्रार्थना है। हिन्दू धर्म में आरती, स्तोत्र, स्तुति, मंत्र जप, साधना आदि भगवान से की गयी प्रार्थना का ही एक रूप है। सामूहिक प्रार्थना में एक ही विचार के अनेक व्यक्ति एकत्र होकर ईश्वर को एक ही समय में पुकारते हैं। जिससे शक्तिशाली भाव तरंगों का निर्माण होता है और प्रार्थना शीघ्र ही फलित होता है।
कई बार ऐसे लोग भी देखने को मिलते हैं, जिन्हें प्रार्थना करने में झिझक अथवा शर्म महसूस करते हैं। लेकिन प्रार्थना और याचना में विशेष अंतर है। भगवान से यदि हम कुछ मांग रहे होते हैं तो वह याचना नहीं कही जा सकती क्योंकि ईश्वर तो महा- बलशाली, महाधनवान एवं करूणा का सागर है। यह सारा जगत उसी का है, उसी ने हमें जन्म दिया, हम उसी के हैं। उन परमपिता से हमारी प्रत्येक मांग उपयुक्त है। उससे मांगना हमारा अधिकार है। जिस प्रकार एक पुत्र अपने माता-पिता से अधिकार पूर्वक मांग करता है। इसी प्रकार ईश्वर भी हमारा सर्वस्व है।
याचना में तो हम किसी अपने ही समकक्ष या अधिक धनी, अधिक बलशाली व्यक्ति के सामने गिड़गिड़ा रहे होते हैं, कुछ मांग रहे होते हैं अथवा अपनी गलतियों की क्षमा मांग रहे होते है। प्रार्थना में ऐसा नहीं होता।
प्रार्थना में बुद्धि का प्रयोग नहीं होता। इसमें तो केवल हृदय भाव की ही उपयोगिता होती है और भगवान से तो केवल भाव के माध्यम से ही बातचीत हो सकती है। श्रद्धा से परिपूर्ण हो कर ही अपनी प्रार्थना भगवान तक पहुंचायी जा सकती है। शास्त्र कहते है- श्रद्धया सत्य माप्यते श्रद्धा से सत्य प्राप्त होता है।
प्रार्थना के समय जब हृदय के भाव होठों से, आंखों से और शरीर के अंग-अंग से निःसृत होते हैं तो एक दैवीय शक्ति हमारे अन्तः करण में प्रवेश करती है। हमारा सम्पर्क, स्पर्श उपस्थिति उसके समक्ष होती है। तब वह परम पावन ऊर्जा हमारे मन-मस्तिष्क पर, हमारे अस्तित्व पर छा जाती है। जिससे हमारे शरीर में आन्तरिक एवं बाह्य दोनों रूपों में आनन्द, चेतना के स्त्रोत फूट पड़ते हैं। हमारे जीवन में एक परिवर्तन आता है, विकृतियां नष्ट होती हैं, व्याधियां समाप्त हो जाती हैं, समस्याओं के हल मिलने लगते हैं और हम रोग मुक्त हो जाते है और आनन्द युक्त हो जाते है।
विज्ञान की दृष्टि से प्रार्थना का विज्ञान अलग प्रकार का है। प्रतिदिन की जीवनचर्या में व्यक्ति का सम्पर्क अलग- अलग मनोवृत्ति के व्यक्तियों से, विभिन्न स्थानों पर होता है। वर्तमान में जिस प्रकार वातावरण में नकारात्मक व दूषित तत्वों की बाहुल्यता है, उन तत्वों के सम्पर्क में आना स्वाभाविक बात है। यही नकारात्मकता हमारे विचारों पर, हमारी जीवन शैली पर प्रभाव डालती है और हमारे विचार, चिंतन भी उसके प्रभाव में आ जाते हैं, जिससे हम उन्हीं भाव-विचारों के शिकार हो जाते हैं और हमारा दृष्टिकोण बदल जाता है। इस दृष्टिकोण का परिणाम हमारे आस-पास के वातावरण तथा हमारे सम्बन्धों पर पड़ता है। आपस में तनाव पैदा होने पर पहले मन रोगी होता है तथा फिर तन रोगी होता है।
रुष्ट हुये को मनाना, मनुहार करना भी प्रार्थना के अन्तर्गत ही आता है। बुजुर्गों, आत्मीयों को प्रार्थना के द्वारा मनाना हमारे अन्दर एक संतुष्टि का भाव पैदा करता है। जिससे बड़ों को एक आत्मिक प्रसन्नता की अनुभूति होती है, जिससे उनके प्रसन्न हृदय से निकले आशीर्वाद हमारे लिये वरदायक सिद्ध होते हैं।
कभी-कभी हमारा स्वभाव चिड़चिड़ापन होने लगता है, स्वयं को बीमार व शक्तिहीन अनुभव करने लगते हैं, इसका कारण उस दैवीय शक्ति से हमारा सम्पर्क टूट जाने के कारण होता है। जो हमारे ईष्ट होते हैं। लेकिन पुनः उस दैवीय शक्ति से सम्पर्क बनाने के लिये प्रार्थना ही एक माध्यम है। दैवीय शक्ति ही दूषित तत्वों को नष्ट करने में सक्षम होती है। बहुत से ऐसे कार्य हैं, जिन्हें पूर्ण करना हमारे लिये असंभव होता है परन्तु ईश्वर के लिये कुछ भी असंभव नहीं है, उनसे सब कुछ संभव है। बहुत से असाध्य रोग, कठिन कार्य प्रार्थना के द्वारा संभव होते हैं।
हम अपने कार्य की पूर्णता के लिये प्रतिदिन भगवान को पुकारते हैं तो पुकार धीरे-धीरे सघन होती जाती है तथा परिपूर्ण होकर एक नई चेतना के रूप में, एक नई दैवीय शक्ति के रूप में मनुष्य के अन्तस में उतर कर उसे एक नई ऊर्जा से भर देती है। तब वे अपनी खोयी हुयी आत्मशक्ति को पुनः प्राप्त कर लेते हैं।
प्रार्थना कभी भी सशर्त नहीं की जाती है। सशर्त प्रार्थना करना किसी भी रूप में उचित नहीं है। यह एक तरह से सौदेबाजी होती है और हम अपने ईष्ट, ईश्वर, गुरु से प्रेम के वशीभूत, दाता स्वरूप, उनकी दयालुता, करूणा के सामने नतमस्तक होकर उनसे प्रार्थना के स्वरूप में अपने जीवन में आनन्द, प्रेम, धन-धान्य, सुख की अपेक्षा रखते हैं, उन्हें किसी भी तरह से हम विवश नहीं कर सकते हैं, ना ही दबाव बनाया जा सकता है और ना ही भगवान हमारी पूजा, पाठ, लड्डु, प्रसाद अथवा चढ़ावा से प्रसन्न होते हैं, ये सभी सामग्री सिर्फ ईश्वर के प्रति भाव प्रकट करने का भाव है। अर्थात् भाव ही भगवान के लिये सर्वपरि है।
चेतनावान सिद्ध साधक नियमित अभ्यास द्वारा अपना हृदय पक्ष जाग्रत कर लेते हैं। साथ ही जन कल्याण के लिये, जीवों पर दया स्वरूप, विश्व कल्याण हेतु ईश्वर से प्रार्थना किया करते हैं। जो पूर्णतः फलित व सिद्ध होती है।
प्रार्थना अनेक प्रकार से की जा सकती है। आरती, मंत्र-जप, स्तोत्र पाठ, विगलित कंठ से स्तुति, भजन एकाग्रचित होकर ध्यान में बैठ कर, मानसिक रूप से अर्थात् मन ही मन ईश्वर का ध्यान करना आदि रूपों में प्रार्थना की जाती है।
सभी साधनायें भी प्रार्थना का एक अभिन्न स्वरूप है। एक निश्चित कर्म तथा विधि-विधान अपना कर हम देवताओं को प्रसन्न करें तो हम साधना में सफलता प्राप्त कर सकते है। प्रार्थना किसी भी व्यक्ति को करने का अधिकार है। अनुचित और गलत कार्यो में लिप्त व्यक्ति भी प्रार्थना करते हैं। लेकिन जब वे कठिनाई में होते हैं, तभी उनके हृदय से प्रार्थना निकलती है। ऐसे व्यक्तियों के पिछले कर्मों के पश्चाताप तथा आगे के जीवन कर्म में किये जाने वाले कर्मों के अनुसार उनकी भी प्रार्थना सफल होती हैं।
प्रार्थना करने वाले व्यक्ति को थोडा धीरज रखना आवश्यक है, प्रार्थना स्वीकार होने तक। क्योंकि भगवान तो प्रार्थना को स्वीकार कर लेते हैं लेकिन उसका फल उचित समय आने पर ही देते हैं। जिस प्रकार एक वृक्ष समय आने पर ही फल दे पाता है, उसी प्रकार भगवान की तरफ से भी प्रत्येक कार्य की एक व्यवस्था होती है। इसलिये हमें सच्चे हृदय से पुकार कर प्रार्थना करनी चाहिये और उस करूणाशील, कृपालु, दयावान परमात्मा रूपी सद्गुरु की शरण में जो भी जाता है, उसे सद्गुरु नारायण प्रभु क्षमा ही नहीं करते अपितु उसकी सभी मनोकामनायें पूर्ण भी करते हैं।
निधि श्रीमाली
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