हे तात्! यदि सत्य में तुम्हें मुक्ति की इच्छा है, तो सर्वप्रथम विषयों को विष के समान छोड़ दो और क्षमा, दया, आर्जव तथा सत्य का अमृत के समान सेवन करो।
पिछले प्रश्न में गुरु-शिष्य सम्बन्धों की पावनता और विलक्षणता की व्याख्या की गयी। शिष्य ने जिस आदरणीय भाषा में प्रश्न किया, गुरु ने भी स्नेह भरे स्वर में उत्तर दिया। सम्बोधन का पहला शब्द है तात! अर्थात् प्रिय, संस्कृत में इस शब्द का प्रयोग सम्मान में किया जाता है। अपने उम्र से छोटे व्यक्ति के लिये इस शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता है। लेकिन राजा जनक के आयु वृद्धता के कारण अष्टावक्र ने इस तरह के सम्बोधन का प्रयोग किया। इस संवाद के समय अष्टावक्र किशोर थे, और शास्त्र राजा को ईश्वर का रूप मानता है। यह बात सत्य है कि अष्टावक्र तत्वज्ञानी हैं, लेकिन शास्त्र की मर्यादा का वे सम्मान करते हैं। यह सम्बोधन इस विषय को संज्ञान में रखकर किया गया है, साथ ही तत्वज्ञानी का व्यवहार शास्त्र मर्यादा की अवहेलना नहीं करता।
सम्बोधन के बाद दूसरा शब्द है ‘यदि’ जो किसी शर्त की ओर संकेत करता है, अर्थात् कोई कन्डीशन है। यदि ऐसा चाहते हो तो वैसा करना ही होगा। यदि मुक्ति चाहते हो तो तुम में यह निश्चय होना ही चाहिये कि संसार के सभी विषय विष की तरह हैं और कहीं-कहीं पर उससे भी खतरनाक हैं। विष का तो औषधि के रूप में भी प्रयोग होता है, जबकि विषयों के संदर्भ में ऐसा कुछ नहीं है। इनसे तो केवल मृत्यु ही प्राप्त होगी। विष से प्राप्त मृत्यु शरीर से स्थूल शरीर को समाप्त करती है। हो सकता है, नया शरीर न मिलने पर सुख-दुःख आदि की अनुभूति से कुछ समय के लिये तुम्हें मुक्ति मिल जाये। लेकिन विषय तो हर पल तुम्हें मृत्यु ही देंगे। जीवन देने का भ्रम देंगे, तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुम जी रहे हो, लेकिन तुम्हारी पल-पल मृत्यु होगी। इसलिये यदि तुम मुक्ति की इच्छा रखते हो, मुक्ति का साधन जानना चाहते हो, तो विषयों को विष मानते हुये, ऐसा निश्चय करते हुये उसे सदा-सदा के लिये छोड़ दो। लेकिन इस बात का ध्यान रखना कि सिर्फ छोड़ने से बात नहीं बनेगी।
मात्र निषेध से जीवन की सार्थकता की अनुभूति नहीं होती, उसके लिये कुछ सकारात्मक करना होता है और वह है कि अमृत की तरह क्षमा, आर्जव, दया, संतोष व सत्य का सेवन। उपरोक्त कथन में एक और विचार है। यहां गुरु ने शिष्य को बाह्य साधनों का उपदेश दिया है। शिष्य का पहला प्रश्न ज्ञान के बारे में था। गुरुदेव ने उसकी चर्चा नहीं की, उन्होंने विषयों के प्रति ‘विषवत्’ की वृत्ति बनाओ। कारण? यदि विषयों के प्रति ऐसी वृत्ति नहीं बनी तो विषय ऊपर से छूटे से लगेंगे, ऊपर से लगेगा कि त्याग कर दिया लेकिन मन विषयों में ही रमा होगा।
क्षमा अर्थात् कोई बदले की भावना नहीं। बदला लिया जा सकता है लेकिन कोई लाभ नहीं। अदला-बदला कभी न समाप्त होने वाली प्रक्रिया है। किसी को तो इस क्रम को तोड़ना होगा। क्षमा के अलावा उसे तोड़ने का दूसरा कोई उपाय नहीं। जो क्षमा कर रहा हैं, उसमें करूणा का भाव होना चाहिये। जिसे क्षमा किया जा रहा है उसके प्रति यह भाव होना चाहिये।
अहंकारी क्षमा का नाटक तो कर सकता है, क्षमा नहीं कर सकता। वह दिखायेगा कि कुछ नहीं, कोई बात नहीं, सब भुला दिया, लेकिन अन्दर रखेगा उसे भली-भांति संजोकर। अवसर की तलाश में रहेगा और अवसर मिलते ही बता देगा, तूने भी तो ऐसा किया था, बराबर हो गया।
आर्जव अर्थात् सरलता, कोई लाग-लपेट नहीं। कोई दिखावा नहीं। किसी से मिलते समय कोई आडम्बर नहीं। भगवान राम ने कहा- मोहे कपट छल छिद्र न भावा, जिसकी आदत है, वह किसी से भी छल-कपट भरा व्यवहार करने में नहीं चूकेगा और सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि वह कहेगा, ‘मैंने तो कुछ नहीं किया’ उसे पता नहीं चलेगा कि उसने कब जाल बुन दिया। जितना मुश्किल कपटी के लिये सरल होना है, उतना ही दूभर काम सरल व्यक्ति द्वारा कपट पूर्ण व्यवहार करना है। दोनों ही अपने-अपने स्वभाव के विपरीत करने का प्रयास करेंगे तो तैयारी तो उन्हें काफी करनी पड़ेंगी, लेकिन समय आते ही अपनी-अपनी प्रकृति में आ जायेंगी। सरल को अपनी सरलता के कारण सामने का सब स्पष्ट दिखायी देता है। सरलता प्रतिक्रिया नहीं है, जबकि पाखण्ड प्रतिक्रिया है। सरलता में थकान नहीं है, विश्राम ही विश्राम है, जबकि दिखावा बड़ा थकाने वाला है। तोड़ देता है व्यक्ति को। आज तनाव, थकान, टूटन जो व्यक्ति में, समाज में दिखाई दे रही है, उसका मूल कारण दिखावा ही है।
तो जो सरल है उसे भगवान मिले ही हुये हैं। उसे अपना-अपना ढूंढने में और उसे पाने में बिल्कुल भी कठिनाई नहीं होती। जप-तप आदि तो कुटिलता को हटाने का अभ्यास है केवल और कुछ नहीं। दया- दूसरे को अपना समझने का भाव है। इस शब्द में, जैसे-जैसे स्व का भाव बढ़ता जाता है, दया में निखार आता है। अपनों पर ही दया की जाती है। इसमें तेरे-मेरे का भाव नहीं होता। करूणा से काफी मिलता-जुलता है यह भाव। संतोष- संतोष का अर्थ है जो, जैसा मिल रहा है वह स्वीकार्य है, नहीं मिला, क्यों नहीं मिला इस तरह की कोई शिकायत नहीं है किसी से भी।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान, लक्ष्मी का नाम श्री है लेकिन श्री का अर्थ संतोष है, लक्ष्मी का विद्या से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है। धनवान अज्ञानी भी हो सकता है, जबकि श्रीमान् वही होता है, जो सब प्रकार से संतुष्ट है। जिसकी बुद्धि स्थिर है। स्वयं में स्वयं द्वारा संतुष्ट होता है वह। उसी में समस्त कामनायें ऐसे समा जाती हैं, जैसे समुद्र में छोटी-बड़ी नदियां। उनसे समुद्र में उफान नहीं आता।
संतोष के बारे में आधुनिक विचार रखने वालों का मानना है कि यह विकास के मार्ग में बाधा है। यदि मानव संतुष्ट हो जाये, तो विकास नही हो पाता है। ऐसा आज के लोगों की सोच है, लेकिन ऐसा नहीं है! जिन्होंने मानव के विकास में योगदान दिया, यदि वे संतुष्ट न होते, तो क्या मानव विकास के लिये कुछ करते?
सत्य- इसका आचरण करना लोगों को काफी मुश्किल में डाल देता है। संसार के पदार्थों को लेकर जब सत् की दृष्टि से विचार किया जाता है, तो सब रीतता सा लगता है, ऐसा लगता है कि जो पास था वह भी हाथ से निकल गया। वह उस खोज को बीच में ही छोड़ देता है। सत् का साथ करना, सत् बोलना, सत् का आचरण करना, सत् का श्रवण करना, सत् का विचार करना ये सभी परम साधन हैं। विषयों का भोग करते समय जब सत् की कोई खोज करता है, तब सहज रूप में वह मुक्ति के मार्ग पर चल देता है। सत्यमेव जयते नानृतम् इसे सिर्फ लिख कर टांग लेने से काम नहीं चलता। इसको आवश्यक रूप से अपने जीवन में सम्मलित करने की आवश्यकता है और यह भी कि सत्य रूपी लक्ष्य को पाने के लिये आवश्यक है कि सत्य को ही साधन रूप में अपनाया जाये अर्थात् साधन भी सत् ही हो।
आप न पृथिवी हैं, न जल हैं, न अग्नि हैं, न वायु हैं और न ही आकाश। आप स्वयं को इन महाभूतों का साक्षी चैतन्य रूप आत्मा जानो, यदि मुक्त होना चाहते हो तो। महर्षि ने जनक को क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये, किसका त्याग करना है, किसका सेवन, क्या विष है और क्या अमृत, यह समझाने के बाद ज्ञान का स्वरूप बताया। इन बाह्य साधनों के द्वारा जब व्यवहार शुद्ध हो जाये, अंतः करण पक्ष-पात रहित होकर विवेक करने लगे। आंखों पर से मोह का पर्दा हट जाये, तब मुक्ति के लिये प्रयास करने की योग्यता आती है।
महर्षि अष्टवक्र ने यहां भवान् सम्बोधन किया है। इस शब्द की व्याख्या पूर्व में भी की जा चुकी है। तत्वज्ञानी अर्थात् गुरु समस्त मर्यादाओं से परे होता है, पर तब भी ऐसी अभिव्यक्ति करता है जैसे कोई सामान्य सांसारिक व्यक्ति, ऐसा देखकर शिष्य को भटकना नहीं चाहिये।
मुक्ति के लिये इस बार महर्षि ने सीधा साधन बताया- ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। जैसे-जैसे ज्ञान में वृद्धि होती है, वैसे-वैसे हम मुक्त होते जाते हैं। त्याग की आत्मा है मुक्ति, त्याग बाह्य होता है, जबकि मुक्ति आंतरिक। त्यागने के बाद भी पकड़ने की संभावना है, जबकि मुक्ति कभी भी, किस भी तरह से फिर नहीं बंधता। त्याग किया जाता है, मुक्ति घटित होती है। जो उसे जान लेता है, वह वापस नहीं आता- न स पुनरावर्तते।
सृष्टि के क्रम का वर्णन कुछ ऐसा मिलता है कि वह परम शक्ति एक था, उसने इच्छा की कि मैं जो एक हूं बहुत हो जाऊं, वह एक शक्ति अनेकों नाम, रूपों वाला हो गया। उस एक से आकाश हुआ, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुयी और फिर इन पांचों के मिलने से अण्डज, स्वेदज, उद्भिन, जरायुज इस प्रकार चार प्राणियों की उत्पति हुयी। इसी से मन-बुद्धि, चित्त अहंकार, आदि का निर्माण हुआ। स्थूल सूक्ष्म और कारण तीन शरीरों की रचना हुयी। जब बहुत हुआ, तो उसने स्वयं से सृष्टि की उत्पत्ति की। इस तरह असल में तुम कार्य रूप नहीं हो। तुम पंच महाभूतों से बने शरीर नहीं हो। तुम चैतन्य रूप हो और साक्षी हो। चैतन्य रूप होने का तात्पर्य है कि स्वयं ही प्रकाशवान होना। तुम्हें प्रकाशित होने के लिये अन्य किसी से अपेक्षा रखने की आवश्यकता नहीं है। तुम तमाशा नहीं हो, तुम तमाशा देखने वाले हो। तुम्हारा अपना स्वरूप चैतन्य और साक्षी रूप है, यही ज्ञान है।
क्रमशः अगले अंक में—————-!
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