‘मैं एकमात्र सभी प्रकार के विकारों से परे ज्ञान रूप हूं’ ऐसा निश्चय कर, और इस निश्चय रूपी अग्नि से अज्ञान के घने विशाल वन को जलाकर (भस्म कर), सभी प्रकार के शोकों से मुक्त होकर सुखी हो।
महर्षि अष्टावक्र का अभिप्राय यह है कि तू सदैव से मुक्त आत्मा है और केवल अकेला ही है, अकेला ही आया है तेरी यात्र अकेले की ही है। तू अपनी पहिचान सांसारिक वस्तुओं से जोडकर मत कर। तुझ जैसा न कोई है और न कोई होगा, केवल अपने जैसा तू स्वयं ही है और तू पूर्ण परिशुद्ध है और विकार रहित है, तेरी शुद्धता से ही सब पवित्र है, तू तो ज्ञान का स्वरूप है।
प्रकाश का अंधकार से क्या सम्बन्ध क्योंकि जहां प्रकाश होता है वहां अन्धकार नहीं हो सकता। अतः उनका सम्बन्ध, उनका मिलन किस प्रकार हो सकता है, क्योंकि जहां प्रकाश होता है वहां अन्धकार ठहर ही नही सकता, इसी प्रकार जहां ज्ञान होता है वहां अज्ञान का क्या काम। इस प्रकार के दृढ़ संकल्पबल से अज्ञानरूपी विशाल घने वन को नष्ट कर दे जिस प्रकार अग्नि घने वन को जला देती है।
वे समझाना चाहते है कि तू सजातीय, विजातीय और स्वगत भेद से रहित है, तेरे अंदर कोई विजातीय प्रवेश नहीं कर सकता। तू एक विशुद्ध आत्मा है और तुझ जैसी आत्मा कोई दूसरी नहीं है।
एक आम के वृक्षका, दूसरे आम के वृक्ष से सजातीय भेद है, जबकि नीम के वृक्ष से विजातीय, और आम वृक्ष की शाखाएं उसका स्वगत भेद कहलायेगी। तू एक आत्मा है तेरी कोई शाखा-प्रशाखा आदि नहीं है, तेरे गुणों की विरोधी भी कोई आत्मा नहीं है, इस प्रकार से तू एक है, अकेला है तभी कालों, देशों, वस्तुओं में सदैव समान रूप से व्याप्त है इसीलिए भी एक है।
ज्ञान अग्नि का एक रूप है, जिस प्रकार वृक्ष के साथ-साथ उसके फल-फूल को भी जला देती है उसी प्रकार ज्ञान की अग्नि भी – अज्ञान रूपी बीज में पड़ी हुई सभी सम्भावनाओं को भून देती है अर्थात् भुनने के पश्चात् बीज दिखाई तो पड़ता है लेकिन उसमें उगने की शक्ति समाप्त हो जाती है, जब तू ऐसा करता है तभी तेरे समस्त शोक समाप्त हो जाते हैं, तब शोकों से वह दुःखी नहीं होता, वह सुखी हो जाता है जब तक हानि-लाभ, जीवन-मरण, और यश-अपयश शोक दे रहे हैं तब तक सुखी कहां, इसलिए अपने स्वरूप का निश्चय कर शोकों से पार हो सुखी हो जा।
जिस आनन्द-परमानन्द व ज्ञान रूप अधिष्ठान (किसी पदार्थ पर कुछ और होने का भ्रम) में यह संसार प्रतीत होता है, वैसे, जैसे कि रस्सी में सर्प, वह अधिष्ठान रूप तुम हो। इसलिए सदैव (परम) सुख में रहो- परमसुख में विचरण करो।
महर्षि विश्व के स्वरूप को देखने के लिए कहते है, यह वेदान्त का व्यवहारिक पक्ष है, रस्सी में सर्प की तरह इसका भाव यह है कि अन्धकार एवं प्रकाश के मिश्रण में भ्रम उत्पन्न होता है यदि अन्धकार ही पूर्णरूप से छाया हो तो भी भ्रम उत्पन्न नहीं होता। जब कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा अर्थात कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा तो भ्रम कैसे होगा, यदि प्रकाश ही प्रकाश है तो सब कुछ स्पष्ट प्रकार से दिखाई पड़ता है तो भी भ्रम किस बात पर।
कुछ तो है, पर क्या है? यह स्पष्ट नहीं है, संस्कारों की परिणाम स्वरूप जिससे सदृश्यता महसूस की गई उसे समझ लिया गया। कभी सर्प को कहीं देखा था उसकी आकृति, उसका अक्श हमारे जेहन में था वैसी ही आकृति जेहन में रस्सी को दूर से देखकर कौंधती है और रस्सी को सर्प मानकर डर गये, रोमांचित हो गये, पैर आगे नहीं बढ सके, वहीं लक्षण परिलक्षित हो गये जो सर्प को देखकर स्वभाविक है।
जब लगा कि सर्प है, उस समय रस्सी नहीं थी हालांकि यह बात सत्य नहीं है परन्तु भय से आकुल आंखो को देखकर ही कहा जा सकता है कि रस्सी सर्प बन गई। लेकिन वास्तव में रस्सी में कोई बदलाव नहीं है, सर्प रस्सी का परिणाम नहीं था, यहा दृष्टांत में रस्सी अधिष्ठान है और सर्प अधिष्ठेय। दोनों में किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है लेकिन फिर भी दोनों का कार्य-कारण का सम्बन्ध बन गया, ऐसा ही सम्बन्ध है ब्रह्मरूपी अधिष्ठान का जगत रूप अधिष्ठेय के साथ, यह संसार ब्रह्म में, आत्मा में वैसे ही संस्कार जन्य कल्पित है जिस प्रकार रस्सी में सर्प का होना दृष्टिगोचर हुआ था। जगत दुखरूप है जबकि तेरी आत्मा आनन्द-परमानन्द स्वरूप हो, वहीं तुम हो तत्वसि।
इसलिए तुम भी आनन्द-परमानन्द रूप हो, ज्ञान रूप हो। तो फिर कैसा द्वन्द्व। इस जगत में सुख पूर्वक विचरण कर। भ्रम में पड़े हुए अन्य जीवों को जब रस्सी में सर्प देख भय, दुख हो रहा हो तब तू सुखपूर्वक इस संसार में विचरणा, अधिष्ठान रूप स्वयं का अनुभव करता हुआ।
मुक्ताभिमानी मुक्त है और ‘बंधा हूं’ ऐसा अभिमान करने वाला बंधन में है। संसार में यह बात जो कही जाती है कि ‘जैसी मति वैसी गति’ वह अक्षरशः सही है।
महर्षि अष्टावक्र कहते है कि बन्धन और मुत्तिफ़ तुम्हारे विचारों के अनुसार होती है यदि तुम्हारा विचार इस प्रकार से पुष्ट हो कि मैं बन्धन में हूँ तो तुम स्वयं को बंधा हुआ ही अनुभव करोगे यदि तुम्हारा विचार यह अनुभव करेगा कि मैं तो मुक्त हूँ तो तुम स्वयं को मुत्तफ़ ही समझोगे।
तुम्हारे विचारों के अनुरूप ही तुम्हे परिणाम मिलेंगे अर्थात व्यवहारिक रूप से यह बात प्रचलित है ‘जैसी मति वैसी गति होती है’ अर्थात जिस व्यक्ति की जैसी मति होती है जिस प्रकार से अपनी सोच रखता है उसकी गति वैसी ही हो जाती है, यह बिल्कुल सत्य है।
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