लेकिन शिविर में आने का मिलने का साधना करने का दीक्षायें प्राप्त करने का महत्व तभी है जब साधक शिष्य उन्हें आत्मसात कर लें। तथा उनसे एकाकार हो सकें उसी के लिये सद्गुरुदेव के कालजयी वचन – मैं देखने की वस्तु नहीं हूं, मेरे चरण या मेरा शरीर मात्र छूने भर का पिण्ड नहीं है, मैं तो ‘एक सुगन्ध का झोंका हूं, जो देखने की चीज नहीं है।, जो पहिचानने का पदार्थ नहीं है, यह तो एक ऐसा दिव्य झोंका है, जिसे अपने प्राणों में भरने की जरूरत है, शरीर के रोम-रोम में, नस-नाडि़यों में और रक्त की एक-एक बूंद में आत्मसात करने की सहज प्रक्रिया है, जब तुम यह सीख लोगे, तब गुरु एक दर्शनीय वस्तु नहीं रह जायेगा, वह तुम्हारी प्रसन्नता का एक भाग बन जायेगा, वह तुम्हारी जिन्दगी का एक हिस्सा बन जायेगा, वह तुम्हारे रक्त का एक कतरा बन जायेगा।
और यही तो होना चाहिये, जो नहीं हो रहा है, यही तो करना चाहिये, जो हम नहीं कर रहे हैं, हम दुःखों और तनावों की दुर्गन्ध में इतने अधिक रच-पच गये है, कि हमें दिव्य सुगन्ध का परिचय ही नहीं रहा। हम समाज की उस दुर्गन्ध से इतने अधिक परिचित हो चुके हैं, कि उससे हट कर यदि कोई दूसरा झोंका एक क्षण मात्र के लिये आता भी है, तो हम उसे पहिचान नहीं पाते, और वह झोंका इमारी जिन्दगी के पास से निकल जाता है, और हम फिर उन्हीं परेशानियों और तनावों की दुर्गन्ध में रम जाते हैं, क्योंकि यही हमारी नियति बन गई है।
और मैं पिछले कई जन्मों से तुम्हारे साथ हूं, मैं तुम्हारा गुरु हूं और तुम मेरे शिष्य हो, तुम शरीर हो, तो मैं तुम्हारी धड़कती हुई आत्मा हूं, प्राणों का स्पन्दन हूं। बिना प्राणों के शरीर का क्या मूल्य रह जाता है, घर वाले भी बिना प्राण वाले शरीर को जल्दी से जल्दी श्मशान में ले जाने को आतुर होते हैं। और बिना गुरु स्पन्दन के तुम्हारा शरीर भी एक खोखला, प्राण रहित, मात्र रक्त मज्जा का शरीर रह गया है, ऐसा शरीर चलता-फिरता तो है, पर जिसमें आनन्द नहीं है, ऐसा शरीर जो परिवार से उपेक्षित है, न बेटे को जरूरत है, न सगे-सम्बन्धियों को इसकी अनिवार्यता है, क्योंकि यह शरीर प्राणश्चेतनाहीन है, ऐसे शरीर को ढोना तुम्हारी मजबूरी बन गई है, ऐसे शरीर को धीरे-धीरे घसीटते-घसीटते श्मशान तक ले जाने के लिये तुम प्रयत्नशील हो, और तुम्हारे चारों तरफ का समाज तुम्हें कार्य में सहायता दे रहा है।
तुम्हारी इस मृत देह को प्राणों का स्पन्दन चाहिये, और यह तभी हो सकता है, जब मेरे प्राणों से अपने प्राण जोड़ सको, मेरे हृदय से अपने हृदय को एकाकार कर सको, मेरे अन्दर अपने-आप को समाहित कर सको, मेरे इस आनन्द के प्रवाह में मस्ती के साथ स्नान कर सको।
शायद तुमको प्राण शब्द का अर्थ ही नहीं पता होगा, तुमको प्राण वायु का भी अर्थ पता नहीं होगा, तुमको यह भी पता नहीं होगा कि तुम अपने नथुनों से जो आक्सीजन खींच रहे हो वह अधिक से अधिक तुम्हारे शरीर को ही जीवित बनाये रख सकती है। यूं तुम्हें आक्सीजन भी कहां शुद्ध मिल रही है? किन्तु शरीर कोई हाड़ मांस का पिंड भर नहीं होता! वह प्राणों का एक समुच्चय होता है, भावनाओं का और संवेदनाओं का घनीभूत स्वरूप होता है जिसका स्पन्दन प्राण वायु से ही संभव हो सकता है लेकिन यह प्राण वायु तुम्हें मिलेगी कहां से? क्या तुम्हारे इकट्ठा किये हुये चांदी के ठीकरों से या अपने उन रिश्ते नातेदारों से जिनसे तुम्हारा सम्बन्ध केवल स्वार्थ पर ही आधारित है, किसे कहते हो तुम परिवार, सम्बन्ध केवल स्वार्थ पर ही आधारित है, किसे कहते हो तुम परिवार। एक सामाजिक समायोजन भर ही तो होता है परिवार, यही तो कहते हैं तुम्हारे समाजशास्त्री भी, व्यर्थ है उनसे उम्मीद करना कि वे तुम्हें प्राण वायु देंगे। प्राण वायु तो तुम्हें वही दे सकता है जो स्वयं प्राण स्वरूप हो और गुरु को तुम भले ही भौतिक रूप से देखो लेकिन वह तो होता है प्राणों का घनीभूत स्वरूप, जहां से होता है तुम्हारा नवीन सृजन, तुमको द्विज बनाने की घटना, इसी कारण तो गुरु को मातृ-पितृ स्वरूप दोनों ही कहा गया है।
मैं तुम्हारा परिवार, तुम्हारा परिवेश छीनना नहीं चाहता तुम्हें उसी में सुरक्षा अनुभव होती है तो मैं उसमें बाधा नहीं बनूंगा। मैं ऐसा चाहूंगा ही नहीं कि तुम्हारे मन में कोई घुटन रह जायें लेकिन इतना अवश्य चाहुंगा कि जिस प्रकार से तुम मेरे पास आये थे उसी प्रकार से वापस न जाओ और यह तो तुम स्वयं जानते ही हो कि जब तुम मेरे पास आते हो तो कैसे होते हो। मैं तो चाहता हूं कि तुम मेरे पास कुछ क्षण भी रहो तो वह मधुर स्मृतियां तुम्हारे जीवन की धरोहर रहें।
इसीलिये मैं कह रहा हूं कि तुम्हें मृत नहीं होना है, तुम्हें अपनी जिंदगी घिसटते हुये नहीं बितानी है, तुम्हें तो सुगन्ध से ज्ञान एवं चेतना के सुगंध से अपने प्राणों को तरोताजा कर अपने समाज में लौट आना है तथा अन्य लोगों को भी इस सुगंध का अहसास कराना है। उन लोगों की देह में भी एक चेतना, एक उमंग और साधना का प्रवाह करना है और यह तुम कर सकते हो क्योंकि तुम दैविक सुगंध के भण्डार से, साधनाओं के समुद्र से जुडे हुये हो और साधनाओं के मार्ग पर चल कर ही समाज में परिवर्तन लाया जा सकता है। समाज को सुखी बनाया जा सकता है तथा उनकी सडी-गली मान्यताओं पर प्रहार भी कर सकते हो, साधनाओं के प्रति उनका दृष्टिकोण बदल सकते हो तथा उन्हें नवीन आनन्द से भर सकते हो।
इसीलिये तो मैं कहता हूं कि तुम अनेक जन्मों से मेरे साथ रह कर भी इस जन्म में किसी न किसी स्थान पर अटक गये हो। और समाज की पगडंडियों की भूल-भुलैया में अपने आपको भटका दिया है। अब ज्यादा भटकने की अपेक्षा मेरे पास आना ही बेहतर होगा और एक बार में ही सब कुछ दांव पर लगाकर सब कुछ प्राप्त कर लेना है। और अपने शरीर को, अपने प्राणों को, मेरे ज्ञान की सुगंध से, मेरी चेतना के स्पंदन से स्वयं को भर लेना है। अपने जीवन को प्रफुल्लित और तरो-ताजा बना देना है।
और मैं तुम सबसे अच्छी तरह परिचित हूं क्योंकि मैने ही तो किया है तुम्हारा सृजन। गुरु ही तो सही अर्थों में सृजन करता है किसी भी मानव का। जननी तो केवल उसे भौतिक देह देने का एक माध्यम भर ही बनती है, शेष कार्य तो तब सम्पन्न होता है जब वह गुरु के सम्पर्क में आता है, सही अर्थों में द्विज बनता है और केवल द्विज ही नहीं वह इससे भी अधिक शुभ्र, श्वेत, शीतल, स्निग्ध बन कर हंस और हंस से राजहंस बनने की ओर अग्रसर बन जाता है। मैं जानता हूं तुम्हारे जीवन के अर्थ की गाथा मुझे पता है तुमने जीवन कहां से शुरू किया है और कहां के लिये प्रयाण किया था, क्योंकि मेरे ही मानस की तो एक सृजना थे तुम। अन्तर केवल ये हो गया कि मैं तुम्हें उडान भरने को तत्पर करता रहा और तुम जमीन पर बिखरे कंकड पत्थरों को चुनने में खो गये।
और मैं हर क्षण तुम्हें अपने साथ मुक्त आकाश में उड़ने के लिये सन्नद्ध कर रहा हूं और यह विश्वास रखों आकाश में विचरण करते समय, मैं प्रतिक्षण, प्रतिपल तुम्हारे साथ हूं, किसी भी हालत में तुम्हें नीचे नहीं गिरने दूंगा, किसी भी स्थिति में तुम्हारे शरीर को लहूलुहान नहीं होने दूंगा। किसी भी स्थिति में तुम्हारा साथ नहीं छोडूंगा। यदि हमने जीवन में गुरु के प्रति श्रद्धा व विश्वास के दीप को संजो रखे हैं तो यह दीप एक दिन सूरज बनता ही है। जिस क्षण गुरु रूपी सूर्य की तेजस्विता प्राप्त कर लेंगे वहां आपके जीवन में व्याधियां, आंधियां व अंधेरा, निश्चिन्त रूप से समाप्त होगा ही और जीवन में चंद्रमा के समान शीतलता, आनन्द, धन लक्ष्मी की निरंतर प्राप्ति होती ही है।
ऐसे ही भावों की प्राप्ति हेतु श्रेष्ठ साधना उत्सव 21 अप्रैल का सुअवसर गृहस्थ साधकों के लिये अत्यन्त लाभकारी है, क्योंकि शाश्वत रूप में गुरु समस्त बाधाओं का संहार करने में समर्थ हैं। वे पूर्ण गृहस्थ होते हुये भी निर्लिप्त एवं निराकार है। गृहस्थ व्यक्ति सुख-सौभाग्य के लिये, स्त्रियां अखण्ड सौभाग्य प्राप्ति के लिये, कुमारियां श्रेष्ठ वर प्राप्ति के लिये, वहीं योगी, यति, संन्यासी पूर्णत्व देव शक्तियों की प्राप्ति के लिये उनकी आराधना करते हैं। सद्गुरुदेव शिव रूप में भिन्न-भिन्न स्वरूपों में सभी की मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं। वह महामृत्युंजय रूप में क्लिष्ट रोगों के हर्ता हैं।
साथ ही भक्त को कुबेराधिपति बनाने में समर्थ हैं। बस आवश्यकता है उनका सानिध्य ग्रहण करना उन्हें नेत्रों के माध्यम से हृदय में उतारने की क्रिया हैं और यह सब आपके द्वारा सपरिवार आगमन से ही पूर्ण रूपेण संभव हो सकेगा। अक्षय तृतीया धन लक्ष्मी दिवस व सद्गुरु जन्मोत्सव 21 अप्रैल को प्रातः बेला में 04:13 से 06:50 के मध्य सदगुरुमय जीवन प्राप्ति युक्त अक्षय लक्ष्मी, पूर्ण दीर्घायुमय सौभाग्य शक्ति, सम्पन्नता, धन वैभव की दीक्षा साधना सिद्धाश्रम के दिव्य मंत्रों से सद्गुरुदेव स्वयं साधको प्रदान करेंगे।
सर्व मनोकामना पूर्ण करने वाली महामाया की तपोभूमि रायगढ़ में सभी सुविधाओं युक्त रामबाग कोटरा रोड में पूर्ण जीवन्त जाग्रत दर्शन, प्रवचन, साधना, दीक्षा, हवन, अकंन, साक्षीभूत अभिषेक सद्गुरुदेव कैलाश श्रीमाली जी व वन्दनीय माता जी के सानिधय में सम्पन्न होगा, जिससे साधक भौतिक कामनाओं की पूर्णता के साथ बल, बुद्धि और सद्गुरुदेवमय शिव स्वरूप तेजपुंज चेतनाओं से युक्त हो सकेंगे। ज्ञानी साधक के लिये निखिल जन्मोत्सव में सद्गुरु की सानिध्यता प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ सुन्दर सुअवसर है। चन्द्रहासिनी ज्योतिर्मय की चैतन्य देव भूमि पर आगमन होने से निश्चिन्त रूप से अनेक-अनेक जन्मों के पाप संताप पूर्ण रूपेण भस्म हो सकेंगे । सद्गुरुदेव जी से व्यक्तिगत रूप से मिलकर उनके सानिधय में अमृत कुम्भमय शिव गौरी शक्ति महामाया अहम् ब्रह्मास्मि अक्षय शक्तियों से युक्त हो सकेंगे। आपके आने से नारायण स्वरूप में सद्गुरु की कृपा अवश्य प्राप्त होगी ही।
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