गुरु पूजा के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसी क्रिया या साधना नहीं है, जिसके द्वारा अज्ञान से छुटकारा पाया जा सके।
गुरु प्रदत्त ज्ञान, साधना एवं सिद्धि समस्त दोषों से सर्वथा मुक्त है, अतः शिष्य को चाहिये कि वह गुरु अभीष्ट सिद्धि अपने पूर्ण समर्पण के माध्यम से प्राप्त करे।
गुरु के चरण युगल ही सहस्त्रार में स्थित हैं और जो इनकी उपासना करता है, उसकी स्वतः ही कुण्डलिनी जाग्रत होकर सहस्त्रार भेदन की क्रिया सम्पन्न हो जाती है।
साधक को निरन्तर यह चिन्तन करना चाहिये, कि गुरु अजर, अमर एवं वार्धक्य आदि से रहित हैं, क्योंकि गुरुत्व आदि और अंत से रहित, विकार हीन, चिदानन्दमय स्वरूप है, यह अणु से अणु और महान से महान है।
शिष्य को निष्काम कर्म करना है, निष्काम कर्म के द्वारा मन अहंकार रहित तथा निर्मल हो जाता है, तभी उस दिव्य ज्ञान की उत्पत्ति संभव हो पाती है।
शिष्य को अपने अंदर निहित गुरुत्व को पहिचानना चाहिये, और उनके प्रति नित्य विनम्र और श्रद्धायुक्त बने रहना चाहिये, जिससे वह कामना रहित हो, अपने दायित्वों को पूर्ण करते हुये, अपने मूल लक्ष्य गुरु-सेवा करने का सुअवसर प्राप्त कर सके।
गुरु की साधना, आराधना साधक को हर संभव प्रयास करके करनी चाहिये, यही शिष्य के कल्याण का एकमात्र सोपान है।
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