माता भगवती भगवान सच्चिदानन्द जी के कहे गये शब्दों के अनुसार – वे आद्या शक्ति भगवती नित्य लीला विहारिणी योग माया के प्रकाश कण का बिंदु है वे आद्याशक्ति के रूप और उसकी योग माया का सूक्ष्म स्वरूप है। बहु को मैं आद्याशक्ति के रूप में नमन करता हूं। माता भगवती ने 16 अक्टूबर 2017 दीपावली से तीन दिन पहले अपने भौतिक शरीर का परिवर्तन क्यों किया? ऐसे ही कुछ प्रश्न सभी शिष्यों के मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ रहे हैं।
आद्या शक्ति के लिये काल क्षणों को अधिक बढ़ाने अथवा घटाने के लिये कोई बड़ी बात नहीं थी, परन्तु माँ का हृदय केवल और केवल संतान का हित ही सोच सकता है। उनके मानस पुत्र उन्हें अपनी आराध्य शक्ति स्वरूप मानते रहे है। माता जी के मन में यह बात थी कि वे दीपावली पर्व में स्वयं भगवती आद्याशक्ति लक्ष्मी के ज्योति स्वरूप में शिष्यों के हृदय में समाहित हो सकूं और जीवन में उन सब के लिये प्रेरणा स्त्रोत बन सकूं और दीपावली ज्योति पर्व होने के कारण इससे अच्छा श्रेष्ठमय अवसर नहीं मिलेगा और सद्गुरुदेव निखिलेश्वरानन्द जी का बुलावा बार-बार आ रहा था। जिसकी अनदेखी माताजी शिष्यों के प्रेम वश कर रही थी, लेकिन सिद्धाश्रम चैतन्य धाम का भी बुलावा आ गया था और सभी साधको का प्राण प्रिय सिद्धाश्रम की बात को अनदेखी करना माताजी के लिये दुष्कर था। अतः उन्होंने शिष्यों के हित के साथ-साथ सद्गुरुदेव की बात का भी मान रखा।
यह एक ऐसा ज्योति पर्व शिष्यों के लिये होगा जिसमें शिष्यों को बाहर तो घोर अंधकार दृष्टिगोचर हो रहा था लेकिन कहीं दूर अपनी स्वयं के अंदर एक ज्योर्तिंमय प्रकाश का दर्शन हो रहा था। उस प्रकाश में भगवती-नारायण की दिव्य छवि उन्हें अपने हृदय कमल में बार-बार दिखाई दे रही थी। यह ऐसा अमिट प्रकाश था जो कालजयी बना। जिसे प्रत्येक शिष्य अपनी बाहरी आंखों को बन्द कर अपने अन्तर्चक्षुओं से स्वयं के अन्दर जब चाहे तब देख सकता है। यह ज्योर्तिंमय सा दीपक दीपावली पर बाहर जलने वाले दीपक से भिन्न था जो भयंकर आंधी तूफानों से कंपायमान नहीं होने वाला है, क्योंकि इस दीपक की ज्योति में स्वयं भगवती एवं सद्गुरु नारायण विराजमान है।
परम वन्दनीय माता जी नारायण तत्व में विलीन हो गई। भगवती नारायण में समा गई विधाता ने स्वयं रची हुई लीला के एक युगांतकारी दिव्य ज्योति युक्त सिद्धाश्रम की चेतना अक्षुण्ण वृद्धि से लाखों, करोड़ों शिष्यों को हतप्रभ सा कर दिया। परम वन्दनीय माता जी भले ही वर्तमान में हमारे बीच सशरीर नहीं हैं, पर वे हमारी आत्मा में तथा प्राणों में समाहित हो गई है। क्रूर काल खण्ड का सत्य तो यह है कि अब आश्रम के मंदिर में शिशुवत रूपी शिष्यों को मातृवत् स्नेह से अभिषेक करती हुई माँ भगवती अब हमें साकार रूप में नहीं आयेगी और यह भी सच है कि तुलसी के पौधे को आंगन में सींचने के लिये उनके आने का समय हमें उनके शक्तिमंत अद्वितीय चरण कमलों का अब हम प्रत्यक्ष रूप में स्पर्श न कर सकेंगे न ही दर्शन और यह भी सच है कि माँ भगवती अपने पुत्रवत शिष्यों को प्रेम से झिड़की देती हुई एक और मिठाई खिलाने की जिद्द करती हुई भौतिक स्वरूप में दर्शन नहीं देंगी।
उनका इतना शीघ्र हमसे बिछोह उन्होंने अपने अनगिनत पुत्र-पुत्रियों की दैहिक-भौतिक पीड़ाओं को अपने ऊपर ले रखा था। आखिर वे माँ जो थी और माताओं का यह स्वभाविक गुण है कि वह संतान को अश्रु युक्त नहीं देख सकती।
उनकी दिव्य देह जो सभी को प्रिय थी जिनकी वाणी बार-बार आशीर्वाद शब्द से सब को आप्लावित कर मुर्दा देह में भी स्पन्दन कर देती थी। आज स्वयं स्पन्दन से रहित हो गई। जिन हाथों का स्पर्श पाकर अचेतन मनुष्य भी चैतन्यता प्राप्त कर लेता था। आज वे हाथ चेतना रहित हो गये जिनकी प्रिय वाणी को सुन कर शिष्य समुदाय उमंग, जोश व तरंगित हो उठता था। आज बार-बार बुलाने पर भी वाणी न फूट सकी। यह शिष्यों के लिये ही नहीं अपितु इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिये अपूरणीय क्षति है जो अब पता नहीं शिष्यों के लिये किस स्वरूप में पूर्ण होंगी।
उनके जीवन का प्रत्येक क्षण प्रेम से सरोबार था। शक्ति का समाहितीकरण तपस्या के बल पर होता है और उनका सम्पूर्ण जीवन तप करते हुये ही बीता। सद्गुरुदेव के समय में भी उन्होंने गुरुदेव की आज्ञा अनुसार शिष्यों के हित चिंतन के लिये सर्वाधिक समय दिया। और वे इतनी दयालु थी कि दूसरों के लिये स्वयं को कठिनाईयों में डाल लिया करती थी। एक दिन मंदिर से आते हुये घन-घोर सर्दी में अपने गरम शाल व स्वेटर एक असहाय गरीब को दे कर स्वयं सर्दी में ठिठुरते हुये आकर सर्दी से पीडि़त हो गई। दूसरों के लिये वे सदैव पीड़ा उठाने के लिये तत्पर रहती थी। दूसरों के दुःख में शीघ्र ही दुःखी हो जाना उनका करूणामय स्वभाव था। साधनात्मक नियमों के अनुसार सद्गुरुदेव शिष्यों पर अनेक नियम व खान-पान का प्रतिबन्ध लगा देते थे। परन्तु माँ भगवती को पता चलते ही वे अपने शिष्यों को प्रेमपूर्ण झिड़की दे कर उन्हें पेट भर खिला देती थी तथा सद्गुरुदेव की नाराजगी को स्वयं सहन कर लेती थी। उनके प्रेम के आगे प्रत्येक शिष्य नतमस्तक था। ऐसे अनेकों ममतामय भाव उदित होते रहें हैं।
यह सत्य है कि सिद्धाश्रम माँ भगवती आद्या शक्ति के बिना अधूरा व मृत प्राय था। स्वामी सच्चिदानन्द जी तथा गुरुदेव निखिल ने उन्हें बार-बार बुलाया था। काल के वह अमिट क्षण जहां पृथ्वी तल पर शिष्यों के हृदय में हाहाकार मचा हुआ था, सांसारिक दूरी के कारण अश्रुधार बह रही थी, तो वहीं सिद्धाश्रम स्थित ऋषि- मुनि, यति-योगी, देवी-देवता, अप्सरायें आदि प्रेम-आनन्द भाव से उनका स्वागत कर रहे थे। यह ऐसा अमिट क्षण था, तो कहीं उनके आगमन के अभिनन्दन में आंखे छल-छला रही थी। सभी को जुदाई सहन नहीं हो पा रही थी तो वहीं सिद्धाश्रम मिलन के स्वागत में उल्लासमय हो रहा था, क्योंकि वन्दनीय माता जी भौतिक देहमय स्वरूप में नही होकर देव-शक्तियों स्वरूप में विद्यमान हैं। अतः देवगणों की मृत्यु नहीं होती वे तो भक्तों के रोम-रोम में निवास करते हैं और उसी के फलस्वरूप साधक और भक्त अपने जीवन को संवारता है।
इस पृथ्वी तल पर जिन विशिष्ट कार्यों के लिये माता जी को भेजा गया था। उस कार्य की आधार शिला को स्वयं सद्गुरुदेव रख गये थे और उसे आगे का विस्तार स्वयं माता जी ने अपनी सहयोगी शक्ति स्वरूप पुत्रों के द्वारा किया यह सब कार्य अब अबाध गति से गतिशील हो रहा है। तब ही उन्हें सिद्धाश्रम में अपने पास बुला लिया। यह शिष्यों के अश्रु ही तो प्रेम और बिछोह का गीत गा रहें हैं। संसार के शिष्यों को देख कर सिद्धाश्रम स्थित स्वामी सच्चिदानन्द जी तथा सद्गुरुदेव निखिल व सभी ऋषि-मुनि योगी आदि इस बात का अहसास कर रहे थे कि शायद ‘माँ’ का वहां अपने शिष्यों के बीच में रहना ही हितकर था और उन्होंने यह सब सोच विचार कर संकेत भी कर दिया। जिस प्रकार राम-कृष्ण बन कर, सती-पार्वती बन कर अवतरित हुई। उसी प्रकार माँ भगवती भी अपने आद्या शक्ति स्वरूप में अवश्य ही शिशुवत् साधकों और शिष्यों को अपने पूर्ण ज्ञान शक्ति स्वरूप में भौतिक और आध्यात्मिक चिंतन का वरद हस्त बनाये रखेगी तथा उसी तरह साकार रूप में आशीर्वाद प्रदान होता रहेगा।
जय भगवती माता!!
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