परन्तु प्रश्न यह है कि मानवता का यह महल कैसे तैयार होगा? मकान बनाना हो तो पहले नींव भरी जाती है। उसी तरह इस देह रूपी महल के लिये भी नींव की आवश्यकता है, आधार स्तम्भों की आवश्यकता है।
हमारे पूर्वजों ने, ऋषि-मुनियों ने मनुष्य के समक्ष यह आधार भी रखा, मनुष्य के सोलह संस्कारों में तीन संस्कार जन्म से पूर्व किये जाते हैं, तेरह जन्म के पश्चात्, जातकर्म जन्म के पश्चात् सबसे पहला संस्कार है। यह संस्कार बच्चे के जन्म के पश्चात् उसका पिता अथवा कोई वयोवृद्ध सोने की सलाई को शहद से लगाकर बच्चे की जिह्ना पर ओम् (ऊँ) लिख कर करता है और उसके कान में वेदोऽसि तू वेद है कहता है। अब आप कहेंगे, यह संस्कार क्या हुआ? छोटा सा बच्चा अभी-अभी उत्पन्न हुआ, वह इस ओम् को और वेद को क्या समझेगा? परन्तु स्मरण रखो, बच्चा भी समझता है। हमारे पूर्वज मनोविज्ञान के विशेषज्ञ थे। उन्हें पता था कि बच्चे को अच्छे या बुरे संस्कार उस समय से मिलने लगते हैं, जब वह गर्भ में ही होता है। इसलिये उन्होंने कहा- बच्चा जब गर्भ में हो तो उसकी माता, उत्तम पुस्तकों को पढ़े, अच्छे विचारों को सोचे, उत्तम लोगों की संगति में रहे। माता जो कुछ, सुनती, सोचती या खाती-पीती है, उसका प्रभाव गर्भ के भीतर बच्चे पर होता है। इसलिये उन्होंने यह जातकर्म संस्कार निश्चित किया। बच्चा इस संसार में आता है, तो पिता उसे कहता है- ओ नन्हीं सी जान! संसार का सफाचट वन, यहां घने जंगल हैं, मरूस्थल है, लम्बे-चौड़े मैदान हैं, कठिन घाटियां हैं, यहां अन्धकार भी है, तूफान भी आते हैं। इस वन में डाकू और लुटेरे भी रहते हैं, चोर और उचक्के भी घूमते हैं, यहां हिंसक पशु भी हैं, उन सबका सामना करने के लिये तुझे एक सहारा देता हूं, उसका नाम है ¬!
ऊँ को आदर के स्थान पर रखों, ओम् का स्मरण करो। यह तुम्हारा सहारा है, यह मनुष्य का आधार है और यह मनुष्य है इसको कोई न कोई सहारा चाहिये, क्योंकि वह स्वयं अपूर्ण है। अपूर्ण होने के कारण वह कोई न कोई सहारा ढूंढता है। जो लोग ईश्वर को नहीं मानते वे भी कोई न कोई सहारा खोज लेते हैं। किसी का आश्रय लेना शुरू कर देते है। बुद्ध भगवान वास्तविकता की खोज में एक जंगल में जा पहुंचे, एक वृक्ष के नीचे बैठ गये, समाधि लगा ली। अपने अन्दर उन्होंने देखा इन्द्रियों से आगे बढ़े, मन तक पहुंच गये। मन से आगे नहीं जा पाये बुद्ध भगवान्, इसीलिये उन्होंने कहा मन ही सब कुछ है- मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्ष्योः। मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष कारण है, इसी के कारण वह जन्म और मरण के चक्र में पड़ता है। इसी के कारण वह सुख और दुःख उठाता है। इसी से मुक्ति प्राप्त करना है। बस मन तक पहुंचे भगवान् बुद्ध, इससे आगे आत्मा-परमात्मा तक वे पहुंच नहीं सके।
बर्मा देश का नाम आपने सुना होगा, वहां बौद्ध मत राजकीय धर्म है। स्थान-स्थान पर बुद्ध भगवान के मन्दिर हैं। वहां के बौद्ध भिक्षु बहुत विद्वान हैं। भगवान बुद्ध की सभी शिक्षाओं का उन्होंने बर्मी भाषा में अनुवाद किया है। माण्डले में एक मन्दिर है, बहुत बड़ा, उसके अन्दर भगवान बुद्ध की सभी शिक्षायें, सभी ग्रन्थ पत्थरों पर खोद-खोदकर लिख दिये गये हैं, जिससे यदि कभी सब नष्ट हो जायें, तो भी पत्थरों पर लिखी ये पुस्तके विद्यमान रहें। एक और मन्दिर है शोदे गांव पेगोडा, वहां भगवान बुद्ध की बड़ी-बड़ी मूर्तियां है। एक मूर्ति ठोस सोने की है। शेष मूर्तियों पर सोने का पानी चढ़ा है। बौद्ध लोग मन्दिर के अन्दर जाते हैं, तो जूता उतारकर नहीं जाते, जूते को पहन कर भी नहीं जाते, जूते को अपनी बगल में दबा लेते हैं, मुंह में सिगार के कश लगाते हुये, मूर्तियों के सामने पहुंचते हैं। हाथ जोड़ते हैं, सिर झुकाते हैं और मन्नत मांगते हैं। उन्होंने भी सहारा बना लिया है। बुद्ध भगवान को ही ईश्वर की भांति आधार बना लिया है और कम्युनिष्ट के गुरु एन्जल और कार्ल मार्क्स ईश्वर को मानते ही नहीं थे। रूस में जब कम्युनिस्ट-राज्य शुरू हुआ तो उन्होंने ईश्वर को देश-निकाला दे दिया, कहा- हमें ईश्वर की आवश्यकता नहीं। हम बिजली और भाप से सब कार्य कर लेंगे। परन्तु कुछ वर्ष पश्चात् रूस वालों ने ईश्वर को तो अपने देश से निकाल दिया परन्तु मनुष्य की निर्बलता को नहीं निकाल सके। प्रत्येक नगर में रूसी नेताओं के बड़े-बड़े बुत हैं, श्वेत संगमरमर के बुत। रूसी लोग इन बुतों के गले में फूलों की माला पहना जाते हैं। इनके सामने मोमबत्तियां जला जाते हैं। इनके सामने खड़े होकर सिर झुकाते हैं, मन्नत मांगते हैं।
यह अवस्था है मनुष्य की! कोई न कोई सहारा उसे अवश्य चाहिये। परन्तु वास्तविक सहारा कौन सा है? ये मूर्तियां बहुत देर नहीं रहतीं टूट जाती हैं। श्री गुरु गोविन्द सिंह ने ठीक कहा- जो मूर्तियां अपने लिये कुछ नहीं कर सकतीं, वे तुम्हारे लिये क्या करेंगी, तो फिर वास्तविक सहारा क्या है? वास्तविक सहारा केवल एक है, वह ईश्वर, वह परम पिता परमात्मा का है।
जिसके बिना केवल मृत्यु है, मृत्यु का अर्थ केवल मौत नहीं अपितु दुःख, शोक, रोग, निर्धनता, पराजय इन सबका नाम मृत्यु है। उसका सहारा ले लो, यह सब कुछ दूर हो जाता है। उसका सहारा न लो, यह सब कुछ विद्यमान रहता है। जो ईश्वर को, सद्गुरु को अपना आधार बनाता है, अपने मानवता रूपी महल की नींव बनाता है, उसे अमृत मिलता है। इसलिये इस नींव को रख के तो देखो, नींव के बिना भवन बनता नहीं। दिल्ली में एक बहुत बड़ा भवन बना रहा है, कई मंजिला भवन, सबसे पहले रखी जायेगी उसकी नींव, क्योंकि नींव के बिना भवन बनेगा नही, और मनुष्य रूपी यह भवन तो उससे बहुत बड़ा भवन है, तो फिर इस भवन की भी नींव बनाना ही पड़ेगी।
जो लोग विकासवाद को मानते हैं, डारविन के चेले हैं और मानते हैं कि बन्दर और लंगूर से मनुष्य बना, वे भी यह मानते हैं कि मनुष्य इस विकास की सबसे अन्तिम कड़ी है। मनुष्य से बड़ा और कोई प्राणी हो नहीं सकता और हमारे शास्त्र तो कहते ही हैं।
मनुष्य से बढ़कर कोई प्राणी नहीं। जो इतना बड़ा है, उसकी नींव भी बहुत बड़ी होनी चाहिये और मैने कहा, यह नींव केवल परमात्मा है। इस भवन की आधार शिला बना लो तो भवन पक्का बनेगा। नहीं तो अधूरा और कच्चा रहेगा। ऐसा न हो तो मनुष्य रोता है, चिल्लाता है, पुकारता है। कभी-कभी समय आता है, जब वे सारे सहारे छूट जाते हैं, जिन्हें मनुष्य गलती से अपना समझ लेता है, अपने पराये हो जाते हैं, पराये शत्रु हो जाते हैं। शरीर काम नहीं करता। जेब के पैसे समाप्त हो जाते हैं। चहुं ओर अन्धकार दृष्टिगोचर होता है।
अरे भाई! आसरा तो है, तुम ही उसका आसरा लेते नही। वह आधार हर समय तुम्हारे संग-संग है। सोते में, जागते में, प्रत्येक स्थान पर है, प्रत्येक दशा में है। जीवन में, मृत्यु में, मृत्यु के पश्चात् भी वह विद्यमान है। तुम यदि स्वयं ही उसको सहारा ना बनाओ, उससे दूर खड़े रहे तो इसमें दोष किसका है? एक बार उसका सहारा लेकर देखो! उसके होकर तो देखो, फिर पता लगेगा, कि इसमें कितना आनन्द है। आज-कल कुछ लोग कहते हैं- आप बार-बार ईश्वर का सहारा लेने को कहते हैं, लेकिन वह तो कहीं दिखाई ही नहीं देता, फिर उसका सहारा कैसे लें? मैं कहता हूं, वह दिखाई देता है। उसके लिये मन की आंखे खोलने की आवश्यकता है। हृदय के पट खोलने की आवश्यकता है। जिसकी यह आंख खुल जाती है वह दावे के साथ कहता है-
जिसके हृदय में विश्वास है, जिसमें प्रभु-विश्वास है और जिसने प्रभु-प्रेम के रास्ते पर अपना पग रख दिया है, उसको भगवान की सारी क्रियायें अच्छी लगती हैं। वैसे भगवान कोई बुरी बात करता नहीं, किसी का बुरा वह चाहता नहीं, परन्तु फिर भी कुछ लोगों को कुछ बातों से कष्ट हो जाता है, इसलिये कहता हूं कि प्रीतम से प्यार हो तो बुराई में भी अच्छाई दिखाई देती है। देखिए कही तूफान आ जाते है, कहीं बाढ़, कहीं आंधियां, कहीं पर ऐसी अनावृष्टि हो जाये कि फसल नष्ट हो गये, पशु घास के लिये तरसे। परन्तु यह दृष्टि-दृष्टि की बात है, सम्यक् दृष्टि से देखो तो यह सब अच्छा भी प्रतीत होगा, इससे हमारा कौन-सा पाप कटता है, कौन-सी भलाई होती है, यह हम कैसे जान सकते हैं? जानने वाला जानता है।
बहुत दिन पहले की बात है। एक जहाज जा रहा था समुद्र में, यात्री आनन्द में मग्न थे, कोई ताश खेल रहा था, कोई शतरंज। कोई खाना खा रहा था, कोई शराब के प्याले से दिल बहला रहा था। तभी आ गया भयंकर तूफान। बादल गर्ज उठे, आंधी चीख उठी। समुद्र की लहरें, इस प्रकार ऊपर-नीचे होने लगीं जैसे भूकम्प आ गया हो, कप्तान ने इस अवस्था को देखा तो खतरे की घण्टी बजायी, सबको कहा, जहाज खतरे में है, बचने की कोई आशा नहीं दिखती। सब लोग हतसंज्ञ हो गये, चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं। कई लोगों ने रोना शुरू कर दिया। परन्तु एक यात्री था वहां। उसने यह सब कुछ सुना तो जोर से हंसने लगा। लोगों ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। कुछ लोगों ने उसकी पत्नी से कहा, तुम्हारा पति क्या पागल है? वह बोली- नहीं जी! पागल क्यों होगा, चंगा-भला है। लोगों ने कहा- तब वह हंसता क्यों है? हम सब तो मुत्यु को सामने देखकर व्यथित हो रहें हैं? पत्नी ने अपने पति के पास जाकर कहा- आप हंस क्यों रहें? लोग समझते हैं कि आप पागल हो गये हैं! पति ने यह बात सुनी तो और भी जोर से हंसने लगा। पत्नी ने पूछा- आपको क्या हुआ है? पति हंसता हुआ केबिन की ओर गया। वहां से लम्बा छुरा उठा लाया, अपनी पत्नी के गर्दन पर रख दिया छुरा और बोला, अब तू बचेगी नहीं, देख मैं तेरी गर्दन काटने वाला हूं, उसकी पत्नी मुस्कराई। पति बोला अरे! मैं तेरी गर्दन काटने लगा हूं, तू मुस्कराती क्यों है? वह बोली- मेरा देवता! मेरा पति ही मेरी गर्दन काट दे तो इससे बड़ा सौभाग्य मेरे लिये क्या हो सकता है? पति ने कहा- इसीलिये मैं भी हंसता हूं। मैं तेरा पति हूं, वह भगवान सारे संसार का पति है, जो मेरा पति है, यदि वह चाहे कि मैं इस समुद्र में जल-समाधि लेकर शरीर को छोड़ दूं, तो मैं रोऊँ किस लिये? यह तो प्रसन्नता की, हंसने की बात है।
इसे कहते हैं विश्वास–! कई लोग ऐसे भी हैं, जो कहते हैं- कि हमने तो ईश्वर के भक्तो को सदा रोते हुये देखा है, कष्ट, दुख और विपत्तियों से घिरा देखा। सत्य है, लेकिन इसमें भी रहस्य है, उसे समझना होगा- लोग बहुत अच्छे वस्त्र का सूट सिलवाते हैं। कुर्त्ता, पगड़ी अथवा कोई अन्य वस्त्र बनवाते हैं। बहुमूल्य ऊन लेकर उससे स्वेटर बनाते हैं। जब किसी दिन वह वस्त्र किसी प्रकार मैला हो जाये, उस पर धब्बा लग जाये, उसे साबुन लेकर रगड़ते हैं, उसे डण्डे से कूटते भी हैं, उसे भट्टी पर भी चढ़ा देते हैं। नीचे तेज जलती हुयी अग्नि, ऊपर बर्तन, उस पर खौलते हुये पानी में वस्त्र, उस समय कोई पूछे- इस वस्त्र को इतना कष्ट क्यों देते हैं। तो आप कहेंगे- उसकी मैल को दूर कर रहें हैं। कपड़ा बहुमूल्य है, बार-बार बनवाया नहीं जाता। परन्तु यदि वह वस्त्र मूल्यवान नहीं, यदि आरम्भ से ही मैला-कुचला, फटा-पुराना है, थोड़ा और मैला हो जाये, तो उसका क्या करते हैं? उठाकर उसे एक ओर रख देते हैं और किसी दिन मशाल की आवश्यकता हो, तो उस वस्त्र को एक लाठी पर बांधकर, तेल में भिगोकर आग लगा देते हैं। केवल मूल्यवान वस्त्रों को साबुन लगाया जाता है, उसे डण्डों से साफ किया जाता है, उसको भट्टी पर चढ़ाया जाता है, फटे-पुराने वस्त्रों को नहीं।
प्रभु का भक्त भी बहुमूल्य वस्त्र है, उत्तम वस्त्र है, उस पर कहीं किसी प्रकार की मैल लग गई तो दुःखो, कष्टों और क्लेशों के साबुन से ईश्वर उसको धोता है कि वह फिर चमक उठे, तुम समझते हो कि ईश्वर उस पर अत्याचार कर रहा है।
और आजकल के ये बच्चे हैं न? बड़े शरारती हैं। कई लोग इनकी शरारतों से तंग आकर कहते हैं- कितने शरारती हो गये हैं ये बच्चें। मैं कहता हूं, तुम अपना समय भूल गये। अपने समय में प्रत्येक बच्चा शरारती होता है। हां, आजकल के बच्चे प्रतिभावान शरारती है। अब एक बच्चा कीचड़ में खेलता हुआ कहीं लथ-पथ हो गया। मिट्टी लग गयी शरीर पर, केशों पर, चेहरे पर। होली के दिन थे, तो रंग भी लग गया। अब उसकी मां क्या करती है? पकड़ती है बच्चे को, लेती है साबुन और उसे रगड़ना शुरु करती है। बच्चा रोता है, चीखता है, परन्तु माँ उसे साबुन लगाना, धोना और रगड़ना नहीं छोड़ती। एक बार के साबुन से मैल न उतरे तो दूसरी बार लगाती है, तीसरी बार लगाती है। एक पड़ोसिन ने कहा- बहन यह क्या करती हो, बच्चा रो रहा है। शेष मैल कल उतार लेना, माँ कहती है- नहीं आज ही उतारूंगी यह मैल, यह मेरा लाडला बच्चा है, इसे मेरे साथ मेरी गोद में सोना है।
यह माँ अपने बच्चे का बुरा नहीं, भला कर रही है। ऐसी ही हमारी वह ममतामयी माँ, वह सच्ची माँ जब दुःखों, कष्टों, क्लेशों और आपत्तियों के साबुन से हमारे अन्तः करण के मैल को धोती है, तो हमारे बुरे के लिये नही, अपितु भले के लिये ऐसा करती है। मैं आपको एक कसाई की बात बताता हूं- कसाई ने एक कुत्ता पाल रखा था, जो पहरा भी देता था, रक्षा भी करता था। उसके साथ-साथ उसने एक बकरा भी पाल रखा था। बकरे को वह अच्छे-अच्छे भोजन देता था, घास देता था, दाना देता था। कुत्ते को कभी कोई हड्डी, कभी कोई सूखी रोटी डाल देता था। कुत्ते के मन में आया कि कसाई तो बड़ा अन्यायी है। मैं इसके लिये पहरा देता हूं, दुकान और मकान की रक्षा करता हूं, मुझे यह सूखी रोटी देता है और इस बकरे को जो कुछ नहीं करता, दिन-भर खूंटे के साथ बंधा रहता है, बिल्कुल निखट्टू है, एक पैसे का भी काम करता नहीं, इसको भांति-भांति की वस्तुऐं खिलाता है, बिस्कुट भी खिला देता है, कभी-कभी दूध भी पिला देता है। मैं दिन-प्रतिदिन सूखता जाता हूं, यह बकरा दिन प्रतिदिन मोटा हुआ जाता है। निश्चय ही यह कसाई अन्याय कर रहा है। यह अच्छा नहीं है, परन्तु तभी ईद का दिन आ गया, बकरा हो गया बहुत मोटा। कसाई ने छुरी पकड़ी और उसकी गर्दन पर फेर दी, उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये, उसका मांस बेच डाला। तब उस कुत्ते ने कहा-भला हो तेरा भगवान कि तूने मुझे बकरा नहीं बनाया।
यह है प्रभु का न्याय! जितने पल रहें हैं बकरे, सावधान हो जायें! भगवान की छुरी चल सकती है, स्मरण रखना–! यह मैं ईश्वर-विश्वास की बात कह रहा हूं। जिसने इस विश्वास की चट्टान पर पांव रख दिया, उसके लिये चहुं ओर सौन्दर्य जाग उठता है, माधुर्य जाग उठता है। उसे दुःख में भी सुख मिलता है, शोक के समय भी प्रसन्नता अनुभव होती है, क्योंकि वह जानता है, कि यह सब-कुछ उसके भले के लिये है।
जो व्यक्ति अपने-आप को प्रभु को समर्पित कर देता है, परमात्मा उसको अच्छे मार्ग पर ले जाता है। मनुष्य जब कोई उत्तम काम करने का विचार करता है, तो उसके अन्दर उत्साह उत्पन्न होता है, आनन्द उत्पन्न होता है और साहस उत्पन्न होता है, और जब कोई बुरा कार्य करने को तैयार होता है, तो उसके मन में शंका, भय और लज्जा उत्पन्न होती है। यह सब जीवात्मा की ओर से नहीं अपितु परमात्मा की ओर से है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर बैठा हुआ वह परम पिता उत्तम काम करने वालों को कहता है- तूने जो विचार किया मेरे बच्चें, वह बहुत अच्छा है। आगे बढ़, अवश्य कर, तुझे प्रसन्नता होगी और बुरा कर्म करने वाले को कहता है- न ऐसा काम न कर! यह कार्य गलत है।
इसका परिणाम दुःख और अपमान है, कष्ट और संकट है। यह परमात्मा की आवाज है, उनकी प्रेरणा है। परन्तु वह प्रेरणा मिलती किसको है? उनको ही मिलती है, जिनहोंने अपने आप को प्रभु को अर्पण कर दिया है, उसका सहारा ले लिया है, उसे अपना लिया है।
और आप इस भाव को, इस चिंतन को अपने जीवन में धारण कर सकें, अपने जीवन का सहारा सद्गुरु को बना सकें, उनकी प्रेरणा शक्ति को अनुभव कर सकें, मैं आपके लिये यही मंगल कामना करता हूं—–शुभार्शीवाद्–!!
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