आठवें प्रकरण में अष्टावक्र बन्ध व मोक्ष की व्याख्या करके इस प्रकरण में वे शान्ति का उपाय बताते हुये कहते हैं कि संसार के प्रति उदासीन होकर या उसकी उपेक्षा कर अपने स्वभाव (आत्मा) में स्थित हो जाने से ही शान्ति उपलब्ध होगी, अन्यथा नहीं। वे कहते हैं कि जो कर्म किये जा चुके हैं वे वासना एवं अहंकार से किये गये हैं अतः उनका फल तो भोगना ही पड़ेगा। उनसे छूटने का कोई उपाय नहीं है। ये बिना भागे शान्त नहीं हो सकते अतः ये तो बन्धन हैं ही किन्तु जो कर्म अभी नहीं किये गये हैं वे भी बन्धन हैं क्योंकि उनके करने की वासना भीतर विद्यमान है, विचार भीतर विद्यमान है। मनुष्य कर्मों से अधिक अशान्त नहीं है, वह विचारों से अधिक अशान्त है। कर्म के वनिस्वत विचारों का महत्व सर्वाधिक है क्योंकि वे ही कर्म के कारण हैं। विचारों की तरंग उठते ही भीतर मलिनता प्रविष्ट हो जाती है। यही पाप हो गया, यही बन्धन बन गया, उपद्रव शुरू हो गया। अपराध करना ही पाप नहीं है, अपराध के विचार आना ही पाप है क्योंकि ये विचार ही मनुष्य को पापी बना देते हैं। इसी से मनुष्य सुख-दुःख, का अनुभव करता है। संसार द्वन्द्वात्मक है।
यह सुख-दुःख, लाभ-हानि, प्रेम-घृणा, हिंसा-अहिंसा, ग्रहण-त्याग, राग-विराग, जीवन-मृत्यु आदि द्वन्द्वों के आधार पर ही चलता है। संसार की गति ही द्वन्द्वात्मक है। ये द्वन्द्व एक ही सिक्के के दो पक्ष की भाँति हैं जिनमें एक का ग्रहण व दूसरे का त्याग किया ही नहीं जा सकता। या तो दोनों रहेंगे या दोनों नहीं रहेंगे। अष्टावक्र इसीलिये कहते हैं ये किये और अनकिये कर्म तथा द्वन्द्व किसी के शान्त नहीं हो सकते, ऐसा निश्चित जानकर इस संसार के प्रति उदासीन होकर त्यागपरायण और अव्रती होना ही शान्ति प्राप्त करने का तरीका है। व्रत ले-ले कर, कसमें खा-खा कर, इनको भोगने में तो अशांति है ही उनको छोड़ने की जिद्द से और नई अशांति पैदा हो जाती है। इन दोनों प्रकार की अशांति को दूर करने का एक ही उपाय है स्वाभाविक रूप से जो हो रहा है उसे स्वीकार करना एवं अनाग्रहपूर्वक जीवन जीना।
आत्मा निर्दोष है, ज्ञानमय है, उत्पत्ति और विनाश से रहित है, शांत है, आनन्दमय है किन्तु लोक-चेष्टा इससे भिन्न है।
लोक की उत्पत्ति है, विनाश है, वह द्वन्द्वात्मक है, इसमें वासना है, कामना है, भोग है। यह अनित्य है, सदोष है, अज्ञानजनक है, अशांत है, दुःखमय है किन्तु उस परमानन्दस्वरूप आत्मा के अज्ञान के कारण ही इस लोक में संसार की जीने की कामना, भोगने की वासना एवं इस संसारी ज्ञान को प्राप्त करने की इच्छा कभी शांत नहीं होती। वह इस लोक में अधिक से अधिक पाने एवं भोगने की इच्छा करता है, वह इसी में सभी सुख मानता है किन्तु जिसने आत्म-तत्व का स्वाद चख लिया उसे ये सांसारिक भोग, वासनायें, जीने की इच्छायें, इसका ज्ञान सब अनित्य एवं क्षणिक तथा सदोष ज्ञात होने लगता है इसलिये वह संसार के प्रति उदासीन हो जाता है, उसे संसार से वैराग्य हो जाता है क्योंकि उसे परमानन्द का स्थाई, नित्य, निर्दोष सुख प्राप्त हो गया। फिर वह क्षणिक की इच्छा नहीं करता। अष्टावक्र कहते हैं कि आत्म-अज्ञान के कारण ही सांसारिक व्यक्ति की इस लोक में जीने की कामना, भोगने की वासना एवं ज्ञान की इच्छा कभी शांत नहीं होती। इजारों में से कोई एक-आध ही ऐसा भाग्यशाली होता है जिसे इस आत्म-सुख की उपलब्धि होती है और उसी की ये सब सांसारिक वासनायें शान्त होती हैं। अन्य की नहीं। ऐसे व्यक्ति को ही संसार से वैराग्य होता है। केवल घर छोड़ देना व लंगोटी लगा लेना वैराग्य नहीं है। यदि यह वैराग्य होता तो ये नंगे-भूखे व भिखारी सभी वैरागी कहलाने के अधिकारी होते।
निश्चित ही आत्म-ज्ञानी ही वैराग्यवान है एवं वही जीवन-मुक्त है।
अष्टावक्र ज्ञानी हैं, आत्मानन्द के सुख में अवस्थित हैं जो नित्य है, निर्दोष है अतः उनको ये अनित्य, क्षणभंगुर सुख प्रिय नहीं लगते। सूरदास ने कहा है ‘जिन रसना अंबुज फल चाख्यो, क्यों करील फल खावे।’ इसलिये वे कहते हैं कि ये सांसारिक सुख, भोग सब अनित्य हैं, सदा रहने वाले नहीं हैं, चार दिन की चाँदनी मात्र है, ये विनाशी हैं, नष्ट होंगे ही, ये आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक तीनों प्रकार के तापों से दूषित हैं, इनमें सार कुछ भी नहीं है। बार-बार जन्म लेना व मर जाना, बार-बार उन्हीं कर्मों को भोगना, यश-अपयश, लाभ-हानि, सुख-दुःख, पीड़ा, क्लेश आदि का हर जन्म में हिसाब रखना, वही बचपन, जवानी, बुढ़ापा, स्त्री, पुत्र, सगे सम्बन्धियों का अच्छा-बुरा अनुभव करना इसमें क्या सार है? इसलिये जो सारहीन है उसे प्रशंसनीय कैसे कहा जाये? वह तो निन्दा के योग्य है, हेय है, इसकी कोई उपयोगिता नहीं है। जिस व्यक्ति को ऐसा निश्चय हो जाता है वही आत्म-ज्ञान का अधिकारी है एवं आत्म-ज्ञानी को ही शांति प्राप्त होती है। जो संसार के विषयों में रूचि लेता है, जो इनके भोगों से आनन्दित है, जिसे यह संसार ही सारभूत दिखाई देता है, जो संसार की भौतिक उन्नति को ही उपयोगी समझता है वह उस आत्मज्ञान के सुख से वंचित रह जाता है। ऐसे व्यक्ति को सब कुछ मिल जाने पर भी शांति प्राप्त नहीं हो सकती। वह अशांत, उद्विग्न ही रहता है। आत्मज्ञान ही शांति प्राप्त करने का उपाय है।
सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-हानि, संघर्ष-शांति, पुरूष-प्रकृति, जड़-चेतन आदि अनेक प्रकार के द्वन्द्व सृष्टि में दिखाई देते हैं। अष्टावक्र कहते हैं कि यह सृष्टि द्वन्द्व पर ही आधारित हैं यह विपरीत ध्रुवों के सहयोग से ही चलती है। ये द्वन्द्व किसी भी काल में (भूत, भविष्य, वर्तमान) तथा किसी भी अवस्था में कभी भी शान्त नहीं हुये हैं, ये सदा रहेंगे ही। ये द्वन्द्व एक ही सिक्के के दो पक्षों की भाँति हैं, या तो दोनों रहेंगे या दोनों हटेंगे। एक को मिटाकर दूसरे को रखना संभव नहीं है। इन द्वन्द्वों का सृष्टि में अस्तित्व नहीं है बल्कि मनुष्य की वासना, तृष्णा, स्वार्थ आदि के कारण वह सृष्टि का अच्छे-बुरे में भेद करता हैं वह बुरे को हटाकर अच्छा लाना चाहता है इसीलिये संघर्ष, अशांति, लोभ, मोह आदि अनेक बुराइयों का आरंभ होता है।
अच्छा बुरे के कन्धों पर ही खड़ा है। यदि बुरा न हो तो अच्छों का भी अस्तित्व मिट जायेगा। मरीजों के कारण ही डाक्टरों का अस्तित्व है, चोरों-डाकुओं के कारण ही पुलिस एवं न्यायालय हैं, पापियों के आधार पर ही संत-महात्मा टिके हुये हैं, मृत्यु पर ही जीवन टिका है। नैतिक आदमी दोनों में भेद करके चलता है, बुरे को हटा कर अच्छे को लाना चाहता है किन्तु सृष्टि में दोनों संयुक्त हैं। इनको हटाया ही नहीं जा सकता। इसलिये अध्यात्म दोनों को ईश्वरीय मान कर उन्हें स्वीकार करने की बात कहता है कि ये भेद मनुष्य के मन के कारण दिखाई देते हैं। मन के पार कोई भेद नहीं है, सभी भेद समाप्त होकर एकत्व का अनुभव होने लगता है। यही ज्ञान है। जब तक भेद दिखाई दे तब तक अज्ञान है। इसलिये अष्टावक्र कहते हैं कि इनकी उपेक्षा कर यथाप्राप्य वस्तुओं में सन्तोष करने वाला ही आत्म-सिद्धि को प्राप्त होता है, उसी को आत्म-ज्ञान होता है। सृष्टि में भेद-दृष्टि रखने वाले ज्ञान के अधिकारी नहीं हैं। बुद्ध ने भी ‘उपेक्षा’ शब्द का ही प्रयोग किया है, तन्त्र कहता है सब कुछ ईश्वरीय समझकर कर लेना है, भक्त कहता है अच्छा-बुरा, सुख-दुःख सब उसी का है, वही देता है अतः हमें उसकी आज्ञा समझकर स्वीकार करना है। भाषायें भिन्न-भिन्न हैं किन्तु अर्थ एक ही है कि द्वन्द्व को स्वीकार करना ही मुक्ति का मार्ग है।
दुनियाँ में विभिन्न प्रकार के मत हैं, विभिन्न मान्यतायें हैं, विभिन्न प्रकार के सिद्धान्त हैं, विभिन्न क्रिया-पद्धतियाँ एवं साधनायें हैं किन्तु इनमें सत्य कहीं भी नहीं है। सत्य एक ही है एवं इसे उपलब्ध व्यक्ति भी सब एक ही मत के हो जाते हैं। बुद्धि एवं तर्क से कुछ भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। दर्शन शास्त्रों के अध्ययन से एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सकता। यदि इनमें सत्य होता तो इतने मत नहीं होते। सत्य सभी मतों, मान्यताओं, सिद्धान्तों के पार हैं ये मान्यतावादी, सिद्धान्तवादी, तर्कवादी सब बुद्धि को भ्रान्त करने वाले हैं इसीलिये ज्ञान के मुमुक्षु को इन सबसे बचना चाहिये। अष्टावक्र ने पूर्व के सूत्र में द्वन्द्वों की उपेक्षा की बात कही तथा इस सूत्र में वे शास्त्रों एवं विभिन्न मतों की भी उपेक्षा की बात कहते हैं कि इन महर्षियों, साधुओं तथा योगियों के विभिन्न मत हैं।
इसलिये ज्ञान-प्राप्ति की इच्छा रखने वालों को इन सबकी उपेक्षा करनी चाहिये तभी शांति संभव है। सत्य न शास्त्रों में है, न सिद्धान्तों में। वह स्वयं के भीतर है, जिसे पाना ही ज्ञान है। उसी से होगी शांति। विभिन्न मतों एवं मान्यताओं के आधार पर बने हुये विभिन्न सम्प्रदाय अध्यात्म के लिये विष के समान है जो घाणी के बैल की भाँति निरंतर अपने धर्म एवं सम्प्रदाय के घेरे में ही घूम रहे हैं पहुंचते कहीं नहीं हैं। ज्ञानी इन सब घेरों से ऊपर उठकर एक आत्मा का अनुभव करता है तभी उसे शांति मिलती है।
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