तीर्थ यात्रा के महात्म्य का धर्म शास्त्रों में सुविस्तृत वर्णन मिलता है। चारों धाम, सप्त पुरी, द्वाद्वश ज्योतिर्लिंग तथा अनेक दिव्य धार्मिक स्थल, मन्दिर, आश्रम आदि तीर्थ की श्रेणी में आते हैं। इन विशिष्ट स्थलों पर जप-तप, दर्शन, पूजन, अर्चन, साधना, दीक्षा आदि क्रियाओं द्वारा अपने जीवन को सुस्थितियों से युक्त करने की कामना पूर्ति के भावों को लेकर भक्त, धर्म अनुयायी साधक, शिष्य, जाते हैं।
तीर्थ स्थलों का पौराणिक महत्व है, इन दिव्य स्थानों पर देव शक्तियों, ऋषि-मुनि, दिव्य महापुरुषों के ज्ञान, ऊर्जा, चेतना, तप शक्ति का पूर्णता से वास होता है। ऐसे दिव्य स्थलों के वातावरण में श्रद्धालु व भक्तों में देवमय आत्म ऊर्जा का समावेश होता है। इसीलिए ऐसे दिव्य स्थलों को सिद्धपीठ भी कहा जाता है अर्थात् इन सिद्ध पीठों पर देव- शक्तियों से युक्त होने का भाव- चिंतन प्रारम्भ होता है और इसी से जीवन की मनोकामनाओं में सफलता प्राप्त होती है।
तीर्थ यात्रा का तात्पर्य हर स्वरूप में जीवन की मलिनता दूषितता को पूर्ण रूप से समाप्त करना है, तीर्थ में जाने से जीवन की दुर्गंन्धमय स्थितियों से निवृत्ति प्राप्त होती है। साथ ही अलौकिक शांति, संतुष्टि, आनन्द, प्रसन्नता को आत्मसात करते हैं। सांसारिक मनुष्यों के जीवन का भाव चिंतन भी यही रहता है कि मैं हर स्वरूप में प्रसन्नता, आनन्द, सुख-शांति से जीवन को गतिशील करूं।
चार धाम तीर्थ यात्राओं में सर्वश्रेष्ठ गंगोत्री धाम जहां पावन पवित्र गंगा भगवान विष्णु के चरणों से निकल कर भगवान शिव के जटाओं से होते हुए पृथ्वी पर अवतरित हुयी है। इसीलिए देव लोक से आती गंगा को देवगंगा या देवनदी भी कहा जाता है। इसे भागीरथी गंगा भी कहा जाता है क्योंकि राजा भगीरथ की कठोर तपस्या के फलस्वरूप ही गंगा भूलोक में अवतरित हुयी।
गंगा अवतरण का विस्तृत वर्णन श्रीमद्रामाण में प्रतिपादित हुआ है। श्री गंगा की उत्पत्ति के विषय में जो विवरण मिलता है वह कहीं विष्णु जी से उत्पन्न होना और कहीं शिव जी की जटा से और कहीं हिमालय पर्वत से उत्पन्न होने का मिलता है। ये सभी वर्णन गंगा के आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक भावों को दर्शाते हैं।
हिमालय पर्वत से गंगा का निकलना आधिभौतिक भाव का वर्णन है। शिव जी के मस्तक से गंगा का निकलना आधिदैविक भाव है और श्री विष्णु के द्रव स्वरूप होने पर प्रकट होना अध्यात्म स्वरूप का वर्णन है। गंगा जी में दैवीय शक्ति का प्रकाश शिव जी के आश्रय से हुआ था, क्योंकि शिव महाशक्ति के स्वामी हैं, इसीलिए दैवीय शक्ति के आधार भी कहे जाते हैं। यही कारण है कि उनकी जटाओं से निकली हुई गंगा अनन्त दैवीय शक्तियों से युक्त और त्रिलोक-तारिणी, पतितपावनी भी है। जिनके स्पर्श से सगर-वंश के शापग्रस्त साठ हजार पुत्रें का उद्धार हुआ।
पद्म् पुराण में कहा गया है- भगवान विष्णु सर्वदेव स्वरूप हैं और गंगा विष्णु रूप है, इसलिये कलियुग में गंगोत्री में उपासना, पूजा, साधना, दीक्षा सम्पन्न करने से सभी पाप-दोष क्षीण हो जाते हैं, गुरुतर पापों का नाश होता है और पितृ तर्पण करने से विशाल-विशाल महापातकों के समूह नष्ट होते हैं।
बृहन्नारदीय पुराण में वर्णित है-
अर्थात् सतयुग में सभी तीर्थों का प्रभाव रहता है, त्रेता में पुष्कर का विशेष माहात्म्य हो जाता है। द्वापर में कुरुक्षेत्र का और कलियुग में गंगोत्री (गंगा) का विशेष माहात्म्य है। कलियुग को आते देख सभी तीर्थ स्वाभाविक रूप से अपनी-अपनी सामर्थ्य गंगा में विसर्जित कर देते हैं, पर गंगा अपना सामर्थ्य कहीं भी और कभी भी नही छोड़तीं।
अर्थात् किसी व्यक्ति को सभी पाप लगे हों, वह महापातक ही क्यों न हो, शास्त्रीय परम्परा तथा नियम से गंगोत्री तट पर गंगा स्नान करने से सभी पाप-ताप, संताप-दोष दूर हो जाते हैं, साथ ही सभी पुनीत साधनात्मक क्रियाओं का कोटि-कोटि गुणा फल प्राप्त होता है।
अर्थात् गंगोत्री की माटी को तिलक स्वरूप में धारण करने से सैकड़ों कुलों का उद्धार होता है और अज्ञान तमोनाश के लिये यह क्रिया सूर्य देव को सिर पर धारण करने के समान है।
सहस्र बार चान्द्रायण व्रत करने से जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, वही पुण्य गंगा के उद्गम स्थल गंगोत्री धाम में चरणामृत ग्रहण करने से सहस्र गुणा फलित होती है।
गंगोत्री मंदिर प्रांगण में अपने इष्ट, कुल-देवता अथवा सद्गुरु सानिध्य में बिल्व पत्र से जो भक्त शिव पूजन, आराधना, अभिषेक सम्पन्न करता ह,ै उसे शिवत्व और मोक्ष का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
यज्ञ, दान, तप, जप, देव पूजा, तर्पण, श्राद्ध गंगोत्री तट पर करने से करोड़ों गुणा फलित होते हैं।
पौराणिक कथा अनुसार भगवान श्रीराम के पूर्वज रघुकुल के चक्रवर्ती राजा भागीरथ ने गंगोत्री के एक पवित्र शिलाखण्ड पर बैठकर भगवान शिव की प्रचण्ड तपस्या की थी, जिसके फलस्वरूप गंगा स्वर्ग से प्रथम बार इसी स्थान पर धरती को स्पर्श करती है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार पांडवों ने भी महाभारत युद्ध में मारे गए अपने परिजनों की आत्मिक शांति के निमित्त इसी स्थान पर आकर एक महान विशाल देव यज्ञ सम्पन्न किया था।
उद्गम स्थान गंगोत्री से प्रवाहित होती गंगा उत्तर काशी, हरिद्वार, प्रयाग, वाराणसी आदि स्थानों से होती हुई सागरमय बन जाती है। गंगा का तात्पर्य निर्मल, अलौकिक आनन्द, अविरल गति का भाव प्रदान करना है, माँ स्वरूप में गंगा सांसारिक मनुष्यों को यही प्रेरणा देती है कि जीवन को अविरल रूप से क्रियाशील करके ही आनन्दमय स्थितियों की प्राप्ति संभव हो पाती है।
गंगा हर-हर की अहोरात्र गर्जना के साथ जिस स्थान पर अवतरित होती है, हिमालय स्थित उस उद्गम स्थान की कल्पना मनुष्य के अति क्षुब्ध, अशान्त, व्यथिततामय अन्तः करण को क्षण मात्र में विलक्षण शान्ति का अनुभव करा देती है। यदि ऐसे दिव्य स्थल पर पूजा-अर्चना, साधना सम्पन्न की जाये तो जीवन हर स्वरूप में सुखमय बन जाता है।
गंगोत्री से गंगा सागर तक गंगामय प्रवाह का जीवन रूपी पथ है। गंगा के पुण्य सलिल में स्नान, आचमन, अर्घ्यं आदि परम पवित्र क्रियाओं का लाभ प्राप्त करने के लिये गंगा प्रवाह का यह सम्पूर्ण पथ मनुष्यों के नगरों से बसा हुआ है। भू-लोक की गंगा का यह पथ गंगा सागर में जाकर अपने विराट् सागर स्वरूप को धारण कर लेती है।
भू-लोक में गंगा का यही प्रवाह गंगा सागर में प्रथम दृष्टतया ऐसा प्रतीत होता है कि समाप्त हो गया है, परन्तु गंगा तो सतत् प्रवाहित है, अविरल रूप से गतिशील है। जिस प्रकार गंगोत्री केवल उद्गम स्थान नहीं कहा जा सकता है, उसी तरह गंगासागर केवल संगम स्थल नहीं है, क्योंकि यहीं से गंगा वाष्प रूप धारण कर द्यु-लोक में चली जाती है। इस प्रकार गंगा सागर से द्यु-लोक तक गंगा का दूसरा पथ निर्मित होता है।
द्यु-लोक में उसका प्रवाह तीसरा पथ है, जिसे स्वर्गगंगा कहते हैं। इस प्रकार गंगा त्रिपथगामिनी है। इस तरह अन्तरिक्ष से होकर आने वाली गंगा का भू-लोक में प्रवाहित होने वाली गंगा के साथ संगम होता है और यहीं से भूर्गंगा का उद्गम होता है। गंगा सागर में भूर्गंगा का द्यु-लोक जाने वाली गंगा के साथ संगम होता तथा भुवर्गंगा का उद्गम होता है और इस भुवर्गंगा का द्यु-लोक में प्रवाहित गंगा के साथ संगम होता है तथा स्वर्गंगा का उद्गम होता है।
यथार्थ में गंगा तो एक ही है, परन्तु द्युलोक में उनका स्वरूप अति सूक्ष्म तेजोमय वाष्प रूप है, जो हिमालय में हिम रूप को प्राप्त होता है और भूलोक में यह जल रूप है। ये तीन पथ हैं और यह त्रिपथव्यापिनी गति कहीं से भी अवरुद्ध नहीं होती है। जैसे भू-लोक में प्रवाह सतत है, वैसे ही अन्तरिक्ष में भी प्रवाह सतत है और द्युलोक में भी प्रवाह सतत है। कहीं से भी इस त्रिपथगामिनी गंगा का पथ खण्डित नहीं हुआ है। इसके प्रवाह का प्रत्येक कण और प्रत्येक क्षण सतत प्रवाहित है- सतत त्रिपथगामी है।
कहा जाता है गंगा सकल पाप विनाशिनी है, जो मनुष्य की बद्ध दृष्टि को भेदकर अपना निर्बन्ध मुक्त स्वरूप का अखण्ड रहस्य बता रही है, वह प्रतिक्षण अपने प्रत्येक प्रवाहशील कण से अपना त्रिपथगामी निर्बन्ध प्रत्येक भावुक के हृदय में भर रही हैं। गंगा के इस स्वरूप का जो चिंतन करते हुए उपासना करता है, वह मुच्यते सर्वपापेभ्यः अर्थात् विष्णुलोकं स गच्छति सब पापों से मुक्त होकर भू-लोक में आसीन संसारिक मनुष्य विष्णु लोक सा आनन्द, शांति अनुभव करता है।
इस प्रकार त्रिपथव्यापिनी भगवती गंगा सर्व स्वरूप में मनुष्य के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती हैं और जीवात्मा के जन्म के पूर्व, जन्म काल और जन्म के पश्चात् भी उसकी सहभागी बनी रहतीं हैं, उसके जीवन को त्रि-पथ स्वरूप में प्रवाह प्रदान करतीं हैं, अर्थात् सांसारिक जीवन में पाप-ताप, संताप से मुक्त कर सुख, शांति, समृद्धि प्रदान करती हैं, मृत्यु पश्चात् तर्पण, श्राद्ध अन्य क्रियाओं द्वारा मुक्ति मार्ग प्रशस्त करती हैं और द्युलोक में जीवात्माओं को पुनः अपना आश्रय प्रदान कर जीवन के अन्य क्रम का मार्ग दर्शाती हैं।
गंगोत्री तीर्थ उत्तराखण्ड राज्य के उत्तरकाशी जिले से 100 किमी की दूरी पर स्थित है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह चार धाम यात्राओं में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है। यह मंदिर 3100 मीटर ( 10 हजार 2 सौ फीट) की ऊंचाई पर ग्रेटर हिमालय के क्षेत्र में स्थित है। गंगा का उद्गम स्रोत गंगोत्री से 24 किमी दूर गंगोत्री ग्लेशियर 4225 मीटर की ऊंचाई पर होने का अनुमान है। यह मन्दिर भारत के प्रमुख मन्दिरों में एक है, जिसमें भगवती गंगा की दिव्य चैतन्य प्राणवान स्वर्ण मूर्ति विद्यमान है, प्रकृति की गोद में हरी-भरी हिमालय की वादियों के बीच एक विशाल परिसर में स्थित यह देवमय मन्दिर सर्वोत्कृष्ट दिव्य चेतना का पूर्ण स्रोत दृष्टिगोचर होता है। गंगोत्री में गंगा मन्दिर, सूर्य, विष्णु व ब्रह्म कुण्ड और पांडव गुफा, भागीरथी शिला आदि पवित्र चैतन्य स्थल हैं।
गंगोत्री में भगवद्पाद् शंकराचार्य ने गंगा देवी की मूर्ति स्थापित की थी। जिस स्थान पर मूर्ति स्थापित की गई थी, उसी स्थान पर वर्तमान में मंदिर स्थित है। मंदिर का निर्माण 18 वीं शताब्दी में किया गया था। यहां पर शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में एक नैसर्गिक चट्टान गंगा नदी में जलमग्न है, यह दृश्य अत्यधिक मनोहर, आत्म संतुष्टि व शांति प्रदान करता है। नैसर्गिक चट्टान के दर्शन से दैवीय शक्ति की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। गंगोत्री मंदिर के समीप शाम होते ही जब गंगा नदी का जल स्तर कम हो जाता है, उस समय चेतनावान शिवलिंग के दर्शन होते हैं।
गंगोत्री स्थित गौरी कुण्ड को देखने से स्वतः ही आभास होने लगता है कि अपनी विशाल जटाओं की शिखा से भगवान शिव ने बहुत ही प्रेमभाव के साथ सम्पूर्ण आभामय गंगा को सभी जीवों के कल्याणार्थ व जीवनी शक्ति हेतु पृथ्वी पर उतारा था। यहां से हर-हर अहोरात्र करती हुई, विशाल-विशाल पहाड़ों को पार करती हुई गंगा सभी जीवों के कल्याण हेतु आगे की ओर अग्रसर होती है, भक्तगण इस मनोहरम दृश्य को देखकर भाव-विभोर हो जाते हैं और शास्त्रों के कथन की प्रामाणिकता स्पष्ट रूप से अनुभव करते हैं।
अनादि काल से सिद्ध स्थल स्वरूप में प्रतिष्ठित बद्रीनाथ धाम जिसके अधिपति भगवान नारायण और उनकी नारायणी शक्ति लक्ष्मी हैं। हजारों-हजारों देवमय ऋषि, महर्षि, संत, संन्यासियों द्वारा पूजित इस बैकुण्ठमय स्थल की गरिमा सर्वश्रेष्ठ स्वरूप में विद्यमान है। स्कन्द पुराण में उल्लेखित है कि- कैलाश पर्वत में शिव-पार्वती की जो गरिमा है, उससे अनन्त गुनी अधिक फलप्रदायक बद्रीनाथ धाम है। जहां पाप-दोष मुक्ति प्रदाता अग्निदेव तप्त कुण्ड स्वरूप में विद्यमान हैं। ब्रह्म कपाल- यहां अलकनन्दा तट पर स्थित कपाल मोचन तीर्थ पर पिण्ड दान, तर्पण करने से पूर्व की दस पीढि़यां और आगे की दस पीढि़यां तृप्त होकर वंशजो को चेतनावान बनाने का मार्ग प्रशस्त करती है। साथ ही तंत्र, श्राप, पितृ आदि पाप-दोषों से जीवन मुक्त होता है।
केशव प्रयाग- अलकनन्दा व सरस्वती संगम स्थल केशव प्रयाग जहां मनुष्य अग्नि में एक भी आहूति प्रदान कर दे, तो उसका जीवन देवमय बन जाता है और सरस्वती ज्ञानमय अनंग कामशक्ति से युक्त होता है। कहा जाता है इस स्थल पर सरस्वती नदी के जल के स्पर्श मात्र से ही साधनारत साधकों के शरीर का दसवां द्वार जो ज्ञान चक्षु होता है, वह निश्चिन्त रूप से जाग्रत हो जाता है।
गणेश गुफा- श्रीमद् भागवद् अभ्युदय तीर्थ स्थल गणेश गुफा जो ज्ञान, कर्म, बुद्धि, रिद्धि-सिद्धि शुभ-लाभ व सर्वमंगलमय चेतनाओं से युक्त है, इस स्थल पर सांसारिक जीवन के सभी कर्तव्यों, कलाओं से युक्त महाकाव्य श्रीमद् भागवद् की रचना हुई थी, जो सद्चेतना, कर्मशक्ति, जीवट शक्ति व सर्व लाभमय प्रदायक तीर्थ है।
दरिद्रता नाशक माणा गांव- माणा गांव को भगवान सदाशिव महादेव का वरदानमय आशीर्वाद् प्राप्त है, कि जो भी मनुष्य इस गांव में प्रवेश करेगा, वह कभी भी अपने जीवन में अभावों से युक्त नहीं होगा। उसका जीवन सभी सांसारिक सुस्थितियों से युक्त हो सकेगा।
वास्तव में बद्रीनाथ धाम सर्वदेवमय तीर्थ स्थल है, जिसकी भूमि के कण-कण में देव-शक्तियों का वास है, ऐसे दिव्यतम स्थल पर बार-बार सद्गुरु सानिध्य में साधना, पूजन, जप-तप, दीक्षा आदि क्रियायें सम्पन्न करने से जीवन नारायण पुरुषोत्तममय लक्ष्मी शक्तियों से युक्त होता है।
पूर्ण ओजस्वी-तेजस्वी क्रियाओं के साथ दो वर्ष तक सम्पन्न हुए बद्रीनाथ धाम अमृत महोत्सव के उपरांत परम पूज्य सद्गुरुदेव की असीम अनुकम्पा से वर्ष 2019 में दिव्य शिव-गौरीमय शक्तियों से आलोकित गंगोत्री धाम व लक्ष्मीमय बद्री नारायण धाम की यात्रा का आयोजन कैलाश सिद्धाश्रम साधक परिवार की व्यवस्था में हो रहा है।
शिव-शक्ति और विष्णु-लक्ष्मी की दिव्य चेतना से आपूरित इन धामों की यात्रा को सम्पन्न करने का कारण यह है कि सृष्टि संचालन, वृद्धि और कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने में यही दोनों विशिष्ट देवमय धाम साधनात्मक व आध्यात्मिक स्वरूप में सर्वश्रेष्ठ है, जिनके साथ आद्या शक्ति अपने विभिन्न स्वरूपों में भक्तों, शिष्यों, साधकों के कलुष पूर्ण जीवन का हरण कर जीवन में सर्वमंगलता का संचार करती हैं।
आप सभी परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद व शक्ति स्वरूपा भगवती के चेतनामय आशीर्वाद और परम पूज्य सद्गुरुदेव के दिव्य सानिध्य में दोनों धामों की यात्रा के अक्षुण्ण लाभ प्राप्ति के भागीदार बन सकें और अपने जीवन को सभी प्रकार से सुव्यस्थित कर सर्व सफलता, कामना पूर्ति से युक्त करने की क्रियाओं में सम्मिलित हों, आपकी दृढ़ इच्छा शक्ति, संकल्प, भावना, श्रद्धा निश्चय ही आपको इन धामों की यात्रा कराने में पूर्ण सहयोगी होंगे, सभी बाधाओं, समस्याओं, अड़चनों को पार करते हुये आप इस दिव्य धाम यात्रा के भागीदार बनें, आप सभी हृदय भाव से आमंत्रित हैं—!!!
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