स्वामी विवेकानन्द ने आठ वर्ष की उम्र में ईश्वर चंद विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया। 1879 में नरेन्द्र ने अपनी मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॅालेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम डिवीजन से उत्तीर्ण होने वाले एकमात्र छात्र के रूप में प्रवेश किया। एक वर्ष बाद उन्होंने कलकत्ता के स्कॅाटिश चर्च कॅालेज में दाखिला लिया और फिलॅासफी का अध्ययन प्रारम्भ किया। यहां उन्होंने पश्चिमी तर्क और यूरोपियन देशों के इतिहास के बारे में ज्ञानार्जन किया।
विवेकानन्द जी दर्शन शास्त्र, धर्म, इतिहास तथा सामाजिक विज्ञान आदि कई विषयों के अध्ययन के साथ ही वेद, उपनिषद, रामायण, गीता, पुराण तथा हिन्दू शास्त्रों में उनकी गहन रूचि थी। उन्हें शास्त्रीय संगीत का भी ज्ञान था। सन् 1884 में उन्होंने बैचलर ऑफ आर्ट की डिग्री प्राप्त की। उनकी मजबूत स्मरण शक्ति के कारण उन्हें लोग श्रुतिधरा भी कहते थे। बढ़ती उम्र के साथ उनका तर्क और भी प्रभावी होता जा रहा था। युवा अवस्था तक उनके मन में ईश्वर के अस्तित्व की बात और भी गहरी हो गयी और वे ब्रह्म समाज से जुड़ गये।
ब्रह्मसमाज से जुड़ने के बाद नरेन्द्र को ब्रह्म समाज प्रमुख देवेन्द्रनाथ टैगोर से मिलने का अवसर मिला, उन्होंने देवेन्द्रनाथ टैगोर से पूछा- क्या आपने ईश्वर को देखा है? देवेन्द्रनाथ टैगोर जबाव देने की जगह उनसे कहा- बेटा तुम्हारी नजर एक योगी की है। इसके बाद भी नरेन्द्र की खोज जारी रही।
अपने अध्ययन काल 1881 में वे दक्षिणेश्वर के रामकृष्ण परमहंस से मिले। रामकृष्ण परमहंस काली मन्दिर के पुजारी थे। वे बहुत बड़े विद्वान तो नहीं, परन्तु माँ काली के परम भक्त थे। जब नरेन्द्र उनसे मिले तो अपनी जिज्ञासा और खोजी प्रवृत्तिवश पूछा कि क्या आपने ईश्वर को देखा है? रामकृष्ण परमहंस ने उत्तर दिया कि- हां मैंने ईश्वर को देखा है और बिलकुल वैसे ही जैसे मैं तुम्हें देख रहा हूं।
नरेन्द्र को ऐसा उत्तर देने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे और नरेन्द्र को उनकी बात की सत्यता का आभास भी हो रहा था। नरेन्द्र को पहली बार किसी व्यक्ति ने इतना प्रभावित किया था। इसके बाद भी नरेन्द्र अनेक बार रामकृष्ण परमहंस से मिलते रहे और जब उन्हें लगा कि उनकी जिज्ञासायें यहां शांत हो जायेंगी, तो नरेन्द्र ने रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु स्वीकार कर लिया और उनके सानिध्य में 5 वर्ष तक अद्वैत वेदांत का ज्ञान प्राप्त किया।
1886 में रामकृष्ण परमहंस के पंचतत्व में विलीन हो जाने पर नरेन्द्र मठ की अनेक जिम्मेदारियां स्वयं निर्वहन करते हुए मठवासी बन गए। सन् 1890 में नरेन्द्र ने लम्बी यात्राएं की, उन्होंने लगभग पूरे देश का भ्रमण किया, उन्होंने वाराणसी, अयोध्या, आगरा, वृन्दावन और अलवर आदि अनेक नगरो की यात्रा की। यात्राओं के दौरान अच्छे-बुरे कर्मो में भिन्नता दर्शाने और अपने विचार स्पष्ट रूप से रखने के कारण खेत्री महाराज ने उन्हें स्वामी विवेकानंद कहकर सम्बोधन किया, यहीं से नरेन्द्र स्वामी विवेकानन्द के रूप में प्रतिष्ठित होने लगे। इस यात्रा में वे राजाओं के महलों में भी रूके और गरीब, असहाय लोगों के झोपड़ी में भी। वे सभी जाति-धर्म, सम्प्रदाय से मिले और जात-पांत, भेदभाव जैसी समाज की अनेक बुराईयों से परिचित हुये। जिसके बाद उन्होंने निश्चय किया कि यदि भारत को विकसित बनाना है, तो इन बुराईयों को समाप्त करना होगा। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने भिक्षा भी मांगी।
1893 में शिकागो (अमेरिका) में स्वामी विवेकानन्द ने भारत का प्रतिनिधित्व करते हुये विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लिया और अपने सुप्रसिद्ध ओजस्वी वक्तव्य से सभी धर्मो के अनुयायियों को अभीभूत कर दिया। उन्होंने पहली बार इतने बड़े मंच से भारत के सनातन संस्कृति को उसके मूल स्वरूप में व्यक्त किया और पूरे विश्व ने विविध संस्कृति वाले भारत की विशिष्टता स्वामी विवेकानन्द के माध्यम से पहचानी और उनके मधुर प्रभावशाली व्यक्तित्व में झलकते भारत की अति प्राचीन विशिष्टता को स्वीकार भी किया।
विवेकानन्द का शिकागो में दिया गया भाषण अमेरिका के बहनों और भाईयों, आपके स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको संसार की सबसे प्राचीन ऋषि परम्परा की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, सम्प्रदाय के लाखों, करोड़ो हिन्दुओं की ओर से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से कहा कि संसार में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने संसार को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृत का पाठ पढ़ाया है। हम केवल सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।
मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के पीडि़त, शोषित लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में इजाराइल निवासियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखा है, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़कर खण्डहर बना दिया था और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उनका पालन-पोषण कर रहें हैं।
भाइयों! मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा, जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया है और जो प्रतिदिन करोड़ो लोगो द्वारा दोहराया जाता है। जिस तरह अलग-अलग स्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद्र में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरुप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें पर सभी भगवान तक ही जाते हैं। वर्तमान सम्मेलन आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से एक है, गीता में बताए गये इस सिद्धांत का प्रमाण है कि- जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुने, आखिरी में मुझ तक ही पहुंचते हैं।
सांप्रदायिकता, कट्टरता और हठधर्मिता के कारण हमारी पृथ्वी लम्बे समय से रक्त-रंजित हो रही है, ऐसे कृत्य करने वालों ने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार यह धरा रक्त से लाल हुई है और कितनी ही सभ्यताओं का विनाश कर दिया है और न जाने कितने देश नष्ट हो गये हैं।
यदि इस धरा पर इस तरह के राक्षस प्रवृत्ति के लोग नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नतवान होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी आशा है कि इस महा-सम्मेलन के शंखनाद से सभी हठधर्मियों का अत्याचार चाहे वह तलवार से होता हो या कलम से समाप्त होगा और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।
वास्तव में स्वामी विवेकानन्द का सम्पूर्ण जीवन सनातन संस्कृति को प्रतिष्ठित और राष्ट्रीयता को जागृत करने की प्रेरणा से भरा था। उनमें मानवता के प्रति अपार प्रेम और दयाभाव था। वे एक दूरदर्शी विचारधारा के महापुरुष थे, उनके विचार, आध्यात्मिक ज्ञान, सांस्कृतिक अनुभव से हर व्यक्ति प्रभावित होता था। उन्होंने भारत के लोगों में उदारता का भाव जाग्रत किया और वे आज भी भारत में सभी वर्गो के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।
उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक साहित्यों का लेखन किया और जनमानस में अपने वक्तव्य से सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने में भी सफल रहे, उनका सबसे चर्चित विचार था- उठो, जागो और तब तक नहीं रूको जब तक लक्ष्य प्राप्त ना हो जाये उनका मानना था- जब तक आप स्वयं पर विश्वास नहीं करते आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते। साथ ही उन्होंने कहा- संभव की सीमा जानने का केवल एक ही तरीका है अंसभव से भी आगे निकल जाना।
पूरा नामः नरेन्द्रनाथ विश्वनाथ दत्त
जन्मः 12 जनवरी 1863
जन्म स्थानः कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
पिताः विश्वनाथ दत्त
माताः भुवनेश्वरी देवी
भाई-बहनः 9 (नौ)
गुरुः रामकृष्ण परमहंस
शिक्षाः 1884 में बी-ए- परीक्षा उत्तीर्ण
संस्थापकः रामकृष्ण मठ, रामकृष्ण मिशन
दर्शन शास्त्रः आधुनिक वेदांत, राज योग
साहित्यः राज योग, कर्म योग, भक्ति योग, मेरे गुरु।
महत्वपूर्ण कार्यः न्यूयार्क में वेंदात सिटी की स्थापना
कैलिफोर्निया में शांति आश्रम की स्थापना
अल्मोड़ा-भारत में अद्धैत आश्रम।
प्रसिद्ध कथनः उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।
महाप्रयाण तिथिः 4 जुलाई 1902
महाप्रयाण स्थानः बेलूर, पश्चिम बंगाल, भारत
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