इस दिन कार्तिक स्वामी के दर्शन से ऐश्वर्य, विद्या व धन की प्राप्ति होती है। शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास में व्रत रखकर स्नान करने का विशेष महत्व बताया गया है। ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान कर के माता तुलसी का पूजन किया जाता है। कार्तिक पूर्णिमा से शुरू कर हर मास की पूर्णिमा का व्रत रखने को चांद्रायण व्रत कहा जाता है। कार्तिक पूर्णिमा में इसकी पूर्णता पर व्रत का उद्यापन करने का विधान है। इससे मनोकामना की पूर्ति होकर सिद्धि प्राप्त होती है।
कार्तिक पूर्णिमा पर सामर्थ्य अनुसार अन्न, वस्त्र, आभूषण, सोने, चांदी, घी आदि का दान करने से संपत्ति में वृद्धि होती है। व्रत रखकर भगवान विष्णु का जप और हवन आदि करने से सूर्य लोक की प्राप्ति होती है। इस दिन कन्यादान करने से अनंत फलों की प्राप्ति होती है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन व्रत रखते हुये सायंकाल में आंगन में तुलसी के पौधे के पास, देवालयों, जलाशयों के किनारे और पीपल के वृक्षों के पास दीप जलाएं जाते हैं। नदी में दीपदान किए जाते है, इससे पूर्व जन्मों के कष्टों व पापों से मुक्ति मिलती है।
इसी दिन सिक्खों द्वारा गुरु नानकजी का जन्मोत्सव और प्रकाशपर्व मनाया जाता है। कार्तिक पूर्णिमा पर पुष्कर, काशी, उज्जैन, प्रयागराज, हरिद्वार आदि तीर्थ स्थानों के साथ ही गंगा और नर्मदा नदी के तट पर मेलों का आयोजन होता है। यहां श्रद्धालु पवित्र नदियों में स्नान, दान, धर्म आदि तथा भगवान सत्यनारायण का व्रत पूजन करके पुण्य अर्जित करते हैं।
कार्तिक माह हिन्दू पंचाग के 12 महीनों में आठवें क्रम पर आता है। इसी माह दीपावली सहित अन्य प्रमुख त्योहार भी आते हैं। इस अर्थ में कार्तिक उत्सव और आराधना के साथ कर्म के लिए शीघ्र जाग्रत होने का महीना है। कार्तिक महीने में प्रातःकाल शीत ऋतु के बावजूद जल्दी उठकर नदी, तालाब आदि में स्नान कर पुण्य लाभ लिया जाता है। कार्तिक हमें सिखाता है कि किस तरह हम ऋतु के अनुकूल अपनी दिनचर्या अपनाएं। साथ ही अपना अधिकांश समय सद्कर्म, अध्ययन और आराधना के साथ उत्सव में व्यतीत करें।
कार्तिक इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हिंदू पंचाग के 12 महीनों में इतने सारे और इतने महत्वपूर्ण पर्व कार्तिक के अलावा और किसी माह में सुलभ नहीं होते हैं। शरद पूर्णिमा के ठीक अगले दिन से कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष का आरंभ हो जाता है। माना जाता है कि इसी के साथ शरद ऋतु का आरंभ होता है। कार्तिक मास शुरू होते ही क्रमशः पर्वों और त्योहारों का क्रम शुरू हो जाता है।
कृष्ण पक्ष की चतुर्थी करवा चौथ होती है। पति की लंबी उम्र की कामना के लिए किए जाने वाले इस व्रत का महिलाओं को सालभर इंतजार रहता है। इसके बाद कालाष्टमी, गोवत्स द्वादशी, धनतेरस, रूप चौदस, दीपावली आती है। इसके साथ कृष्ण पक्ष खत्म होता है। शुक्ल पक्ष में गोवर्धन पूजा, भाई दूज, आंवला नवमी, देव प्रबोधिनी एकादशी, वैकुंठ चतुर्दशी और फिर कार्तिक महापूर्णिमा होती है।
शास्त्रानुसार कार्तिक विष्णु पूजन के लिए तय किया गया महीना है। इसी माह तुलसी विवाह भी किया जाता है। सर्वाधिक व्रत-उपवास का यह मास एक ओर साधना और संयम का संदेश देता है। वहीं दूसरी ओर यह उत्सव प्रियता की ओर उन्मुख करता है। इस माह विष्णु का पूजन सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाला होता है। इस समय भगवान विष्णु का पंचामृत स्नान कराना चाहिए, इसके उपरांत कमल, मालती अगस्त्य के फूलों से उनका पूजन करना चाहिए। पूजा में तुलसी दल अवश्य चढ़ाएं। सुगंधित इत्र के साथ पूजन, ध्यान करें और आरती, प्रसाद की विधि संपन्न करें। कार्तिक मास में तीर्थ स्नान से वर्ष भर स्वास्थ्य अनुकूल रहता है।
कार्तिक पूर्णिमा को तुलसी और शालिग्राम का विवाह रचाने की प्रथा है। पूरे कार्तिक मास का स्नान करने वाली स्त्रियां सौभग्य एवं कल्याण कामना से तुलसी-शालिग्राम विवाह अवश्य कराती हैं। विष्णु को अत्यंत प्रिय होने के कारण तुलसी को हरिप्रिया या विष्णुप्रिया भी कहा जाता है।
भगवान विष्णु की कोई भी पूजा, भोग, नैवेद्य, पंचामृत आदि तुलसी दल बिना अधूरे रहते हैं। तुलसी विवाह का आयोजन देवउठनी ग्यारस से शुरू हो जाता है। फिर कार्तिक पूर्णिमा के दिन पूरी धूम-धाम के साथ शालिग्राम व तुलसी विवाह संपन्न किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि तुलसी शालिग्राम जी का विवाह कराने से सारे पापों से मुक्ति मिल जाती है और मृत्यु के बाद वैकुण्ठ धाम मिलता है।
प्राचीन समय में जालन्धर नामक एक दैत्य था। उसकी वृन्दा नामक पत्नि अत्यन्त पतिव्रता थी। उसने हृदय में विष्णु भक्ति धारण कर रखी थी। पत्नी के पतिव्रता प्रभाव से वह दैत्य विश्व विजयी हो गया। वह हर दिन ऋषि मुनियों की तपस्या, यज्ञ, व्रत आदि खण्डित करने लगा।
कुछ दिन बाद जालंधर ने देव लोक पर आक्रमण किया और इन्द्र से उसका भयंकर युद्ध छिड़ गया। दूसरी ओर ऋषि मुनियों की विपदा सुनकर व इन्द्र से युद्ध रोकने के लिए मजबूरी वश विष्णु ने अपनी परम भक्त वृन्दा का ही सतीत्व खण्डित करने का निर्णय लिया। उन्होंने जालंधर के वेश जैसा एक मृत शरीर उसके राजमहल में फिंकवा दिया। पति को मृत जान वृन्दा उस शरीर से लिपट कर रोने लगी। पर पुरूष के स्पर्श से वृन्दा का पतिव्रत्य खण्डित हो गया और उधर उसका पति इन्द्र के द्वारा मारा गया। जब वृन्दा को सारी बात पता चली तो क्रोध में उसने श्री विष्णु को श्राप दिया, मैने आपकी अविचल भक्ति की, फिर भी आपने मेरे साथ कपट किया। आपने मुझसे पति का वियोग कराया, आप भी पत्नि का वियोग सहने के लिए मृत्युलोक में जन्म लेंगे। इतना कहकर वृन्दा सती हो गयी। विष्णु को कपट पर बहुत लज्जा आई। वृन्दा की राख में तुलसी, आंवला और मालती के पौधे उग गये। उनमें तुलसी को भगवान ने वृन्दा की भक्ति के कारण अंगीकार किया। वृन्दा के श्राप से ही विष्णु को रामावतार में सीता का वियोग सहना पड़ा। वृन्दा के पतिव्रता की स्मृति में और भगवान की प्रसन्नता पाने के लिए ही विष्णु-तुलसी का विवाह कराया जाता है।
किसी-किसी पुराण में इस कथा का थोड़ा बदला रूप मिलता है। सतीत्व भंग से क्षुब्ध वृन्दा ने विष्णु को पत्थर हो जाने का श्राप दिया था। इसलिए विष्णु शालिग्राम हुए और वृन्दा तुलसी। यही कारण है कि शालिग्राम की पूजा तुलसी दल चढ़ाए बिना अधूरी रहती है।
आपकी मां
शोभा श्रीमाली
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