देश में हजारों गृहस्थ योगी होंगे, विचरण करते हुए ज्ञात-अज्ञात योगी, जो परमहंस अवस्था में हो, परन्तु आपके जैसा कोई नहीं गठीला कसा हुआ, बलिष्ठ शुभ्र वर्णीय शरीर, छः फुट से भी ऊंचा कद, मस्तिष्क पर उभरी त्रिपुण्ड रेखाओं से युक्त दैदीप्यमान तेजस्वी चेहरा और हृदय को भेदने वाली आँखे, सिंह के समान निडर, निर्भीक चाल से पूरे भारत वर्ष एवं पश्चिमी देशों में भारतीय संस्कृति की ज्योति प्रज्वलित करने वाले व्यक्तित्व— निखिलेश्वरानन्द, जिनका गृहस्थ नाम डॉ नारायण् दत्त श्रीमाली की छवि आज भी मेरी आँखो के बीच घुमती हुई नेत्रें के द्वारा शून्य में विलीन होकर पथरा जाती हैं। ऐसे निखिलेश्वरानन्द जो किसी भी चुनौती का दृढ़ता से सामना करने में समर्थ, जिन्होंने पृथ्वी तल पर सशरीर डॉ- नारायणदत्त श्रीमली रूप में पराजय शब्द को अपने जीवन से निकाल दिया। अपने सशरीर रहते गृहस्थ शिष्यों को अपने परिवार से ज्यादा अपनत्व दिया, शिष्यों के लिये अपने खून का एक-एक कतरा न्यौछावर करने को तत्पर रहे, अपनी तपस्यांश एवं साधनाओं की शक्ति से शिष्यों को साधनात्मक ऊंचाई पर पहुँचाने में निरन्तर अपने जीवन में प्रयत्नशील रहे। अपने अन्दर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की अगम्य, अगोचर साधनाओं को समेटे हुये सद्गुरूदेव निखिल! आप कहाँ हो?
वादा करके बड़ी, मुश्किल में डाला आपने।
जिन्दगी मुश्किल थी, अब मरना भी मुश्किल हो गया।
साधारण से घर में जन्म लेकर जिस प्रकार से भारतवर्ष की लुप्त होती हुई प्राचीन संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान, मंत्र योग दर्शन और आध्यात्मिक सबको जिस प्रकार से अपने व्यक्तित्व के बल पर पुनजीर्वित कर दिखा दिया कि एक छोटा सा व्यक्ति भी अपनी क्षमता के बल पर साधनामयी बन सकता है कि जिससे कि वह पूरे विश्व के साधको के हृदय पर छा जाय, जिसने आयुर्वेद और दुर्लभ जड़ी बुटियों की शोध कर ‘प्रायः विज्ञान’ को जो नये आयाम दिये हैं, पदार्थ विज्ञान को नयी गति एवं मृतप्राय आयुर्वेद को जिस प्रकार से संजीवनी देकर जीवन्त किया है, वह आश्चर्यजनक व्यक्तित्व अपराजय सद्गुरूदेव निखिल! आप कहां हो? तुमने निगाह लुत्फ सें देखा था एक बार। दुनिया बदल गई मेरी, इतनी सी बात में।
आपने भारतीय जनमानस में जुझारू तीव्रता के साथ ज्योतिषी सम्मेलनो की अध्यक्षता करते हुये जनमानस के बीच जिस तरह ज्योतिष संबंधी गूढ रहस्यों से परिचित कराया, भारतीय समाज ज्योतिष से संबंधित किसी भी तथ्य को केवल आप जैसी व्यक्तित्व की मुखार बिन्दु से निकलते ही प्रमाणित मानकर ज्यों का त्यों हृदयगम कर लिया, यह आपका ही योगदान है कि आज ज्योतिष विद्या पुनः भारतीय समाज में नहीं, विश्व में गर्व के साथ गौरवान्वित हैं और वही नहीं आपने ज्योतिष संबंधी ग्रंथ रचित कर इस विद्या से जिस तरह सामान्य जन-जन को अवगत कराया हैं जिस तरह सामान्य जन भी ज्योतिष विद्या की तरह पुनः लालायित हुआ, भारतीय समाज के लिये आश्चर्य है। ऐसे भारतीय समाज ने आपको कई बार पुरस्कार देकर जिस प्रकार अपने हृदय का मौन प्रेम आपके लिये प्रकट किया। ऐसा भारतीय को ज्योतिष प्रेमी बनाने वाला मृत प्राय ज्योतिष को जिस प्रकार जीवन्त किया है, वह आश्चर्यजनक अपराजय सद्गुरूदेव निखिल! आप कहां हो?
जो दर्द दिये अपनों ने दिये, गैरों से शिकायत क्या करें।
वादा करके छोड़ गये हमको, तुमसे भी शिकायत क्या करें।
भारतीय समाज में प्राचीन साधनाओं को जब काल्पनिक समझा जाने लगा, देवताओं का मखौल उडाया जाने लगा। समाज मंत्र-तंत्र-यंत्र के नाम पर घृणा करने लगा एवं इस भारत में पूर्वकालीन ऋषियों की वाणी का उपहास उडाया जाने लगा। भारतीय समाज पश्चिमी संस्कृति के रंग में रंगने लगा। तब आपने अपने सन्यास जीवन में की गयी साधनाओं से सम्बन्धित मंत्र-तंत्र-यंत्र से जिस प्रकार भारतीय समाज को चैलेन्ज के साथ अवगत कराते हुए उनकी प्रमाणिकता सिद्ध की, जिस तरह अपने साधना एवं सिद्धियों की प्रमाणिकता से पाश्चात्य संस्कृति के गाल पर थप्पड़ मारा हैं। वह इस विश्व के लिये आश्चर्यजनक है। यह आपका ही प्रभाव है कि आज विश्व पुनः भारतीयों की ओर आशा की आँखे लगाये बैठा है। वर्तमान में पुनः भारतीय समाज सहित विश्व इन साधनाओं की ओर लालायित होकर प्रयत्नशील हो रहा है। आपने जिस तरह मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान मासिक पत्रिका एवं अपने जीवन काल में रचित ग्रंथों के माध्यम से लुप्त हुई साधनाओं, सिद्धियों व मंत्रें से जिस प्रकार भारतीय समाज को जाग्रत किया है। आपके अप्रतिम व्यक्तित्व के प्रभाव भारतीय समाज पुनः साधनाओं एवं सिद्धियों की ओर गतिशील हुआ है। ऐसा सिद्ध पुरूष अपने अन्दर साधनाओं एवं सिद्धियों के असीम भण्डार को समेटे हये प्रकाशमान, सद्गुरूदेव निखिल! आप कहां हो?
फूल मिट जाता है, डाली से अलग होने के बाद।
तुमने हमको मिटा दिया है, हमसे अलग होने के बाद।
लाखों गृहस्थों को अपनी तेजस्विता एवं शक्ति प्रदान कर उनसे गुरू-शिष्य का सर्वोच्च प्रेम संबंध जोड़ने वाला मसीहा जिसने गृहस्थ लोगों के लिये अपना पूरा जीवन न्यौछावर कर दिया, इन गृहस्थ शिष्यों को साधना एवं सिद्धियों को प्रदान करने के लिये अपने सन्यास जीवन में साथ रहे शिष्यो, योगियों से विद्रोह किया, जिसने अपने परिवार से भी विद्रोह करके इन गृहस्थ शिष्यों को अपना जीवनदान किया, जिसने अपनी साधनाओं एवं सिद्धियों के प्रभाव से गृहस्थ शिष्यों को अपना जीवनदान किया, जिसने अपनी साधानाओं एवं सिद्धियों के प्रभाव से गृहस्थ शिष्यों के अनगिनत कष्टों को अपने ऊपर झेलकर उनकी मनोकामनायें पूर्ण की।
जिसने शिविरों के माध्यम से इन गृहस्थ शिष्यों को द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण की तरह प्रेम रसपान कराया, जिसने बुद्ध की तरह ध्यान योग सिखाया। जिसने शिष्यों को अपनी तपस्यांश से तेजस्वी बनाया, जिसने साधनाओं के माध्यम से उन्हें साधकत्व प्रदान करते हुए देव तुल्य बनाया, जिसने अपने शिष्यों में पुनः जोश और जवानी भरी। जिसने अपने शिष्यों को आत्मलीन होने की क्रिया समझाकर आत्म सौन्दर्य से परिचित कराया। जिसने प्रेम करने की कला सिखाई, जिन्हें विश्व को शांति प्रदान करने के लिये अमोघ पाठ पढ़ाया। जिसने गृहस्थ शिष्यों के रूप में विश्व को नयी दिशा देने के लिए सिद्धियां प्रदान की। जिसने इस भारतवर्ष को पुनः इस विश्व का आध्यात्मिक गुरू बनाने के लिये अपनी तेजस्विता से कई दीपक आलोकित किये, ऐसे महातेजस्वी सूर्य साधनाओं के शक्ति पुंज से विश्व को आलोकित करने वाला सद्गुरूदेव निखिल! आप कहां हो?
इस बार तेरे साथ मुस्कुराने की ऐसी सजा मिली
ता उम्र मेरी आंख से आंसु रवां रहे।
आ! हां! काल की क्रूर विड़म्बना, विधाता की लेखनी, गृहस्थ शिष्यों का दुर्भाग्य! ऐसे निखिलेश्वरानन्द! जिनकी छाया तले अभी इन गृहस्थ शिष्यों में कुछ कर गुजरने की क्षमता विकसित होने लगी थी। जिनको साधना एवं सिद्धियों का रस कण्ठ को आप्लावित करने लगा था। जिनमें निखिलेश्वरानन्द ज्योति प्रज्वलित होने लगी थी। जिनमें शोर की हुंकार गुंजरित होने को थी। जिनमें प्रेम रस संचार होने लगा था। जिनमें पाश्चात्य संस्कृति से विमुख होकर भारतीय संस्कृति का गौरव बढाने का भाव पैदा हुआ था। जिनमें भक्ति नहीं, शक्ति चाहिये उद्घोषित होने लगा। ऐसे समय में प्रकृति ने क्रूर होकर निखिलेश्वरानन्दजी को भौतिक शरीर छोड़ने को मजबूर कर दिया। ऐसे निखिलेश्वरानन्द जी को मजबूर कर दिया, जिसने साधनाओं और सिद्धियों को अपने अन्दर आत्मसात करके उस ऊंचाई को स्पर्श किया था जिसके कारण वे इस अदृश्य जगत में भी सभी ऋषियों एवं देवताओं द्वारा वन्दनीय थे। सिद्धाश्रम जैसा लोक जहां वशिष्ठ, विश्वामित्र जैसे पूर्वकालीन ऋषि सूक्ष्म शरीर में रहते है।
उन्हें अपनी वन्दना द्वारा हृदय काम प्रेम प्रकट करते हुए उनसे उन साधनाओं के रहस्यों को जानने के लिए उत्सुक हैं। जो उनके लिए गुढ़तम है। ऐसे निखिलेश्वरानन्दजी को प्रकृति ने क्रूर मजाक करते हुए गृहस्थ शिष्यों से छीन कर उनका हृदय का तार छेड़कर जिस प्रकार अनाथ कर दिया हैं, उसका कारण पूछना ही पड़ रहा है। सद्गुरूदेव निखिल! आप कहां हो?
ये क्या चंद ही कदमों पे, छोड़ कर चले गये।
तुम्हें तो मेरा साथ, दूर तक निभाना था।।
निखिलेश्वरानन्दजी का सिद्धाश्रम गमन करना विधाता के लेख में सही हो सकता है। परन्तु निखिलेश्वरानन्दजी के पृथ्वी तल पर न रहने के कारण गृहस्थ शिष्यों मे प्राण तत्व नहीं है। मैं ही नहीं पूरे पृथ्वी वासी के गृहस्थ शिष्य निष्प्राय और गतिहीन हो गये थे। जिसमें हलचल नहीं है, स्पन्दन नहीं हैं। ये गृहस्थ शिष्य भी भंवर में फंस गये हैं, इन्हें दुःख है कि अब तक हमारे अन्दर कोई चेतना नहीं थी। कोई समझा नहीं था, तब तक आपने इन्हें अपने सीने से लगाया, इनके हमदर्द बने रहे। जब इनमें समझ आने लगी, जब इन्हें कुछ एहसास होने लगा, जब इन्हें आपके प्रति प्रेम होने लगा, जब इन्हें आपकी पृथ्वी तल पर उपस्थिति का महत्व समझ में आने लगा। तब आप भी निष्ठुर हो गये। यह सही हो सकता है कि गृहस्थ शिष्यों ने आपके साथ घात-प्रतिघात किये हों, यह हो सकता है, इन्होंने आपकी आलोचनाये की हो, यह हो सकता है, इन्होंने आपको जरूरत से ज्यादा विषपान कराया हो, यह भी हो सकता है कि आपको इन्होंने तिल-तिल कर जलाया हो, परन्तु क्या यह सही नहीं है कि हम जिस समाज में रहे हैं, उस समाज से हमें यही मिला है और हमारे चारों ओर जो परिवेश हैं, वातावरण हैं, उसने हमें यही सिखाया है। लेकिन क्या पुत्रें से माता-पिता इसी आधार पर निष्ठुर होकर अलग हो सकते हैं। जबकि उनमें ही समझ नहीं है और अब समझ आयी है तो फिर पूछना ही पड़ रहा है। सद्गुरूदेव निखिल! आप कहां हो?
तेरे वादे पे मुझको भरोसा तो है।
उम्र ही कम हो तो मैं क्या करूं।।
आ! हां! सिद्धाश्रम के ऋषि, मुनि वशिष्ठ, विश्वामित्र, गर्ग, अत्रि अन्य पूज्य ऋषिवर देवता अपने बीच निखिलेश्वरानन्दजी को पाकर खुश हो रहे होंगे और खुश भी क्यों न हो, आपको अब साधनाओं एवं सिद्धियों के रहस्य उनके श्रीमुख से सुनने को मिल रहे हैं, आपको पूज्य निखिलेश्वरानन्दजी को पाने की बधाई हो। परन्तु इस चिंतन का क्या होगा, जिस चिंतन के कारण निखिलेश्वरानन्दजी ने गृहस्थ शिष्यों के रूप में छोटे-छोटे दीपक प्रज्वलित किये थे।
यह भी जो ध्रुव सत्य है कि आपने हमें पूरी तरह से अनाथ नहीं किया, आपने ज्ञान दीप को निरन्तर प्रकाशित करने के लिये गुरूदेव नन्द किशोर जी, गुरूदेव कैलाश जी, गुरूदेव अरविन्द
जी जैसे महान व्यक्तित्व दिये हैं जो आपके ही अंश हैं और आपकी ज्ञान चेतना का सूर्य त्रिगुणित होकर ब्रह्माण्ड को प्रकाशमान कर रहा है, यह आपके ही महती कृपा है कि आपने
हमें जीवन के रेगिस्तान में अकेला नहीं छोड़ा, तूफानों में भी हाथ थामने के लिए भौतिक रूप से त्रिमूर्ति दिव्यात्माएं प्रदान की हैं लेकिन फिर भी आपकी याद तो आती ही है फिर भी मूढ
बुद्धि से पूछ रहा हूं। सद्गुरूदेव निखिल! आप कहां हो?
तुम मेरे लिए अब नया इलजाम न ढूंढों।
दे दिये जो इलजाम, यही काफी है।।
सभी गृहस्थ शिष्य उस सिद्धाश्रम के सभी ऋषियों, मुनियों से अति स्वर में उनके श्री चरणों में नमन करते हुए पुकार रहे हैं। यदि इन गृहस्थ शिष्यों की ज्योति इस तुफान के प्रभाव से कम्पायमान नहीं होंगी इनके आशा के दीपक नहीं बुझेंगे किंतु कुछ शिष्य कर्तव्य विमुढ हो जाय, पुनः माया चक्र में फंस जाये, दिशाहीन हो जाय, अपने आपको भुला बैठे, तो ये इनको कोई दोष मत देना। ऐसा न हो तभी तो फिर पूछ रहा हूँ। सद्गुरूदेव निखिल! आप कहाँ हो?
सर से सीने की तरफ, पेट से पांवो की तरफ
एक जगह चोट हो तो कहूं, दर्द कहां-कहां होता है।
पूज्य निखिलेश्वरानन्दजी ने जिस उदेश्य से ये दीपक गृहस्थ शिष्यों के रूप में प्रज्वलित किये है, वह उदेश्य पूरे हों। यह उदेश्य कैसे पूरा हो, इस दीपक की ज्योति में तेल कैसे प्रवाहित हो, इस दीपक को कैसे तूफान से बचाया जाय, इसलिये आप हमें बचाते रहना फिर भी आज पूछ रहा हूं। सद्गुरूदेव निखिल! आप कहां हो?
आश्चर्य! आ! हां! घनघोर आश्चर्य- समस्त ब्रह्माण्ड में विचरण करने वाला, अपने अनेको रूप अपने जैसे ही बनाकर गृहस्थ सन्यासियों के बीच विचरण करने वाला, अनेक रूपों में आपत्ति काल में गृहस्थ शिष्यों की रक्षा करने वाला, ऐसा अप्रितम महायोग अब हमारे बीच उपस्थित न होने के कारण हमारी बुद्धि संज्ञा शून्य हो गयी है। शून्य में अपने निखिलेश्वरानन्द को निहार रही हैं।
शरीर के रोम-रोम उस हवा के सुगन्ध के झोकें को स्पर्श करने के लिये बैचेन हैं, आत्मा अतृप्त हैं उस झोंके के बिना आँखे आकाश मण्डल में उन तारा गणों की ओर पथराई होकर मौन होकर निहार रही हैं कि सद्गुरूदेव निखिल! आप कहां हो?
दुनिया ने जो जख्म दिये, बयां तुमसे कर दिये।
तुमने जो जख्म दिया, बयां किसी से कर न सका।।
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