किन्तु सत्य को न स्वीकार करने की तो जैसे परम्परा ही बन गई है, इसीलिये तो आज तक यह विश्व किसी ‘महापुरूष’ का अथवा ‘देव पुरूष’ का सही ढंग से आकलन ही नहीं कर पाया। जो समाज वर्तमान तक कृष्ण को नहीं समझ पाया, वह समाज उनकी उपस्थिति के समय उन्हें कितना जान पाया होगा, इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है। सुदामा जीवन पर्यन्त नहीं समझ पाये कि जिन्हें वे केवल मित्र ही समझते थे, वे कृष्ण एक दिव्य विभूति हैं और उनके माता-पिता भी हमेशा उन्हें अपने पुत्र की ही दृष्टि से देखते रहे, तथा दुर्योधन ने उन्हें हमेशा अपना शत्रु ही समझा। इसमें कृष्ण का दोष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कृष्ण ने तो अपना सम्पूर्ण जीवन पूर्णता के साथ ही जीया कहीं वे ‘माखन चोर’ के रूप में प्रसिद्ध हुए तो कहीं ‘प्रेम’ शब्द को सही रूप में प्रस्तुत करते हुये दिखाई दिये।
कृष्ण के जीवन में राजनीति, संगीत जैसे विषय भी पूर्णरूप से समाहित थे और उन्होंने अपने जीवन कला पूर्ण होकर ‘पुरूषोत्तम’ कहलायें। जहाँ उन्होंने प्रेम, त्याग और श्रद्धा जैसे दुरूह विषयों को समाज के सामने रखा, वहीं जब समाज में झूठ, असत्य, व्यभिचार और पाखंड का बोलबाला बढ़ गया, तो उस समय वीरतापूर्वक कृष्ण ने युद्ध नीति, रणनीति तथा कुशलता का प्रदर्शन किया, वह अपने-आप में आश्चर्यजनक ही थे।
कुरूक्षेत्र युद्ध के मैदान में जो ज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को प्रदान किया, वह अत्यन्त ही विशिष्ट तथा समाज की कुरीतियों पर कड़ा प्रहार करने वाला है। उन्होंने अर्जुन का मोह भंग करते हुए कहा-
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाशते।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।
‘हे अर्जुन! तू कभी न शोक करने वाले व्यक्तियों के लिए शोक करता है और अपने आप को विद्वान भी कहता है, परन्तु जो विद्वान होते है, वे जो जीवित हैं, उनके लिये और जो जीवित नहीं है, उनके लिये भी, शोक नहीं करते।’ इस प्रकार जो ज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को दिया, वह अपने आप में प्रहारात्मक है और अधर्म का नाश करने वाला है।
कृष्ण ने अपने जीवन काल में शुद्धता, पवित्रता एवं सत्यता पर ही अधिक बल दिया, अधर्म, व्यभिचार, असत्य के मार्ग पर चलने वाले प्रत्येक जीव को उन्होंने वध करने योग्य ठहराया, फिर वह चाहे परिवार का सदस्य ही क्यों न हो और सम्पूर्ण महाभारत एक प्रकार से पारिवारिक युद्ध ही तो था।
कृष्ण ने स्वयं अपने मामा कंस का वध कर, अपने नाना को कारागार से मुक्त करवा कर उन्हें पुनः मथुरा का राज्य प्रदान किया और निर्लिप्त भाव से रहते हुए कृष्ण ने धर्म की स्थापना कर सदैव सुकर्म को ही बढावा दिया। कृष्ण का यह स्वरूप समाज स्वीकार नहीं कर पाया, क्योंकि इससे उनके बनाये हुए कानून, जो कि स्वार्थ को बढ़ावा देने वाले थे, उन पर सीधा आघात था। समाज की झूठी मर्यादाओं को खंडित करने का साहस कृष्ण के बाद कोई दूसरा पुरूष नहीं कर पाया, क्योंकि जिस मार्ग में कृष्ण ने चलना सिखाया, वह अत्यन्त कंटकाकीर्ण तथा पथरीला मार्ग है और उस पर चलने का साहस वर्तमान तक भी कोई नहीं कर पाया। इन्होंने अपने जीवन में सभी क्षेत्रें को स्पर्श करते हुए वीरता को, कर्मठता को, सत्यता को, विशिष्ट स्थान प्रदान किया।
कृष्ण ज्ञानार्जुन हेतु सांदीपन ऋषि के आश्रम पहुँचे, तब उन्होंने अपना समर्पण कर ज्ञानार्जित किया, गुरू सेवा की, साधानायें की और साधना की बारीकियों व अध्यात्म के नये आयाम को जन-सामान्य के समक्ष प्रस्तुत किया। यह तो समान की विडम्बना जो उनकी उपस्थिति को सही मूल्यांकन नहीं कर पाया।
श्रीमद्भागवत् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जिस प्रकार योगविद्या का उपदेश दिया और उसकी एक-एक शंकाओं का समाधान करते हुये, उसे कर्तव्ययुक्त कर्म की भावना से जाग्रत किया, कृष्ण द्वारा दी गयी योगविद्या जिसमें कर्मयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग के साथ-साथ सतोगुण, तमोगुण, रजोगुण का जो ज्ञान दिया, उसी कारण आज गीता भारतीय जनजीवन का आधारभूत ग्रंथ बन गई हैं, इसीलिये तो भगवान श्रीकृष्ण को ‘योगीराज’ कहा जाता है।
कृष्ण जन्माष्टमी भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण दिवस है, और भगवान श्रीकृष्ण को षोडषकला पूर्ण व्यक्तित्व माना जाता है। जो व्यक्तित्व सोलह कला पूर्ण हो वह केवल एक व्यक्ति ही नहीं, एक समाज ही नहीं, अपितु युग को परिवर्तित करने की सार्मथ्य प्राप्त कर लेता है और ऐसे व्यक्तित्व के चिंतन, विचार और धारणा से पूरा जन समुदाय अपने आप में प्रभावित होने लगता है।
ये सोलह कलाएं निम्न है:-
1- वाक् सिद्धि
जो भी वचन बोले जाये वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाय, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक्सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप और वरदान देने की क्षमता होती है।
2 दिव्यदृष्टि
दिव्यदृष्टि का तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिंतन किया जाय, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाय, आगे क्या कार्य करना है, कौन सी घटनाये घटित होने वाली है, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टि युक्त महापुरूष बन जाता हैं।
3 प्रज्ञा सिद्धि
प्रज्ञा का तात्पर्य यह है मेधा अर्थात् स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान। ज्ञान के सम्बन्धित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता है वह प्रज्ञावान कहलाता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बन्धित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता है।
4 दूरश्रवण
इसका तात्पर्य यह है कि भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता।
5 जलगमन
यह सिद्धि ही महत्वपूर्ण है, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर विचरण करता है मानों धरती पर गमन कर रहा हो।
6 वायुगमन
इसका तात्पर्य है अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता है, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता है।
7 अदृश्यकरण
अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना। जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता है।
8 विशोका
इसका तात्पर्य है कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना। एक स्थान पर अलग रूप है, दूसरे स्थान पर अलग रूप है।
9 देवक्रियानुदर्शन
इस कला का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता है। उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बना कर उचित सहयोग लिया जा सकता है।
10 कायाकल्प
कायाकल्प का तात्पर्य है शरीर परिवर्तन। समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती है, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव रोगमुक्त और यौवनवान ही बना रहता है।
11 सम्मोहन
सम्मोहन का तात्पर्य है कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया। इस कला से पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता है।
12 गुरूत्व
गुरूत्व का तात्पर्य है गरिमावान। जिस व्यक्ति में गरिमा होती है, ज्ञान का भंडार होता है और देने की क्षमता होती है, उसे गुरू कहा जाता है और भगवान कृष्ण को तो जगत्गुरू कहा गया है।
13 पूर्ण पुरूषत्व
इसका तात्पर्य है अद्वितीय पराक्रम और निडर एवं बलवान होना। श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था। जिसके कारण से उन्होंने ब्रजभूमि में रक्षसों का संहार किया। तदन्तर कंस का संहार करते हुए पूरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की।
14 सर्वगुण सम्पन्न
जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं जैसे- दया, दृढता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता इत्यादि। इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय माना जाता है और इसी प्रकार वह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता है।
15 इच्छा मृत्यु
इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता है, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बन्धन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता है।
16 अनूर्मि
अनूर्मि का अर्थ है- जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो।
यह समस्त संसार द्वन्द्व धर्मो से आपूरित है, जितने भी यहां प्राणी हैं, वे सभी इन द्वन्द्व धर्मो के वशीभूत है, किन्तु इस कला से पूर्ण व्यक्ति प्रकृति के इन बन्धनों से ऊपर उठा हुआ होता है। भगवान श्रीकृष्ण में यह सभी सोलह कलाये पूर्णरूप से विद्यमान थी और भौतिकता एवं आध्यात्मिकता का पूर्ण संयोग उनके पूरे जीवन में रहा। इसी कारण वे जनमानस के आदर्श बन सके और ऐसे ही महापुरूषों की गाथा का गुणगान करके ही उनके आदर्शो को जीवन में उतार कर, उनकी पूजा आराधना कर, जीवन धन्य बनाया जा सकता है।
श्रीकृष्ण को भगवान के साथ-साथ जगतगुरू भी कहा गया है और गुरू का तात्पर्य है कि देने वाला। कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर केवल भक्ति ही नहीं, पूर्ण विधि-विधान सहित साधना सम्पन्न कर, कृष्ण के जीवनरचित और गुणों को भीतर उतारा जाय, तो कोई कारण नहीं कि व्यक्ति जीवन में असफल हो आवश्यकता है केवल दृढ निश्चय की, संकल्प की, विश्वास की, श्रद्धा की उन चारों के साथ साधना करने पर साधना सफल होती ही है।
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