प्लेटो, अरस्तु, सुकरात तो ग्रीक फिलासफर हुये हैं- इन दार्शनिकों ने छोटी-छोटी बातें कहीं परन्तु कही अति महत्त्व की हैं। उन्होंने कहा मनुष्य अपना दायरा बढ़ाये, पशुता से ऊपर उठकर मनुष्यता का व्यवहार करे, यही उसकी ऊँचाई है कि वह देना सीखे। पहले आप कह देना ही मनुष्य के लिये मनुष्यता है और उससे बढ़कर देवत्व है।
एक बात और उन्होंने कही कि आज की उपलब्धियों पर सन्तोष करो। आज जो मैंने कमाया, जो मेरे परमात्मा ने मुझे दिया उस पर सन्तोष कर लो लेकिन भावी प्रगति की आशा मत छोड़ना। आगे पुरूषार्थ करने को सदैव तत्पर रहो, आगे बढ़ने का प्रयास करते रहो किन्तु जो आज तक परमात्मा ने दिया उसे स्वीकार कर, परमात्मा का धन्यवाद करो, सन्तोष करो। आज मनुष्य के पास सबकुछ है, सन्तोष नहीं है, सब्र नहीं है। इसलिये सारे दुःखी हैं। रात-दिन बेचैनी रहती है और जब कुछ नहीं बन पाता तब कहता है क्या करें? सब्र करना पड़ेगा और कोई उपाय नहीं है। लेकिन सब्र, सन्तोष अगर सन्तुष्टि से उत्पन्न हो तो अच्छा है। हमें सदा कहना चाहिये कि मेरे परमात्मा ने मुझे सब कुछ दिया है, बड़ी कृपा है, मेरे प्रभु की। जिस हृदय में सन्तोष रहता है तब आदमी शांत रहता है। शांति से प्रसन्नता आती है।
जो अन्दर से असन्तुष्ट है, वह कभी मुस्कुरा नहीं सकता, हर समय बेचैन रहता है। सन्तुष्ट व्यक्ति मुस्कुराता रहता है। मनुष्य के पास अगर थोड़ा भी है, फिर भी वह सन्तुष्ट है, प्रसन्न है, परमात्मा का धन्यवाद करता है, तो वह किसी राजा-महाराजा से कम नहीं है। अगर बहुत कुछ होते हुये भी सन्तुष्ट नहीं, बेचैन है तो बड़े महल में रहते हुये भी उससे कंगाल और गरीब कोई नहीं क्योंकि उसके अन्दर सन्तुष्टि नहीं है, सन्तुष्टि जरूरी है। लेकिन जो दिया कम नहीं है, उसकी खुशी मनाओ, भावी प्रगति की आशा मत छोड़ो।
आज मानव इसलिये भी दुःखी है कि आज उसके पास जो है, जितना है, जैसा प्राप्त है, जिस तरह का है, उसमें तो उसे सन्तोष है नहीं, जो नहीं है, जैसा नहीं है, जिस तरह का नहीं है और होना चाहिये-जब जो नहीं है उसकी तरफ बार-बार ध्यान जाने से मानव बेचैन रहता है। पहले तो आदमी मांगता है, हे परमात्मा! दस बीस हजार रूपये ही मिल जाये फिर मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जब परमात्मा ने दे दिये और बीस ही नहीं पच्चीस दे दिये, तब समझ में आया यह तो काफी कम हैं। फिर भगवान से कहता है यह तो काफी कम हैं। गलती हो गई, जल्दबाजी में जरा कम मांग बैठा आपसे। आप भी उतावलेपन में थोड़ा-सा ही देकर काम चला रहे हैं। कृपया पचास हजार दे दीजिये, फिर मागूंगा नहीं। परमात्मा का भी कमाल है वह पचास देकर भी देखता है कि देखूं इसे सन्तोष हुआ कि नहीं। पचास लेने के बाद भी कहता है भगवान क्या करूं, महंगाई बहुत बढ़ गई है 2 लाख दे दो। परमात्मा दो लाख देकर भी देखता है परन्तु इन्सान की थैली तो रबड़ की बनी हुई है, रोज खींचतान करके बड़ा कर लेता है उसे। देनेवाला दे-देकर थकता नहीं, लेनेवाला ले-लेकर थक जाता है, उसका धन्यवाद करना भूल जाता है।
भगवान की कृपा का धन्यवाद देना आना चाहिये किन्तु धन्यवाद वह देगा जो सन्तुष्ट है। जो स्वयं आधा-अधूरा है, बेचैन-व्याकुल है, वह तो मांग करता ही जाता है, धन्यवाद करना नहीं जानता, भगवान और दे और दे, यही कहता रहता है। जो है, जो भगवान ने तुम्हें दिया है, उसका भगवान को धन्यवाद दो और भावी प्रगति की आशा रखो।
दूसरों के दोष ढूंढने में अपनी शक्ति का अपव्यय मत करो। अपने आप को ऊँचा उठाने का हर सम्भव प्रयास जारी रखो, उसे कम न होने दो। यह मूल्यवान सूत्र है। हम यही ढूंढने में लगे रहते हैं कि किस में क्या ऐब हैं, किस की क्या कमी है। कवि ने कहा है- तू जो करता है औरों की तरफ अंगुस्त नुमाई देख, तीन तेरी झुकी हुई है।
अगर तू दूसरे की तरफ उंगली उठायेगा तो तेरी तरफ भी तीन उंगलियां इशारा करने को झुकी हैं पहले ही और वे कह रही होगी, अपनी वाणी को तू देख, अपने मन को तो टटोल और कर्म की ओर भी ध्यान दे। इसलिये अपनी यह कमजोरी न बनाये कि जब हो तब दूसरों की निन्दा करना शुरू कर दें। नीतिकार ने भी एक स्थान पर कहा-अगर तुम चाहते हो, तुम्हें मान और प्रतिष्ठा मिले-एक कार्य करना, तुम्हारी जीभ रूपी गऊ है। यह दूसरे के मान की हरी-भरी खेती को उजाड़ने के लिए तत्पर रहती है। इसे जरा खूंटे से बांधकर रखो, तुम्हारी प्रतिष्ठा और मान चरती रहेगी, कमाल करती है यह जीभ, ऐसी बिगड़ गई है कि दूसरे की मान ही हरी-भरी खेती को देखते ही इसका मन करता है कि जाऊ और उसको कैसे उजाड़कर आऊं। अगर कोई किसी आदमी के लिये कहे कि वह आदमी बड़ा दानी है, बड़ा पुण्यात्मा है, बड़ा धर्मात्मा है, सेवा में तत्पर रहता है, हर किसी की भलाई करता है, सुनने से बहुत देर बाद कहोगे- हो तो नहीं सकता है। अगर कोई कह दे- बड़ा चोर है, बड़ा लुटेरा है, बड़ा ठग है, बड़ा बेईमान है फिर तो आपको कुछ और पूछने की जरूरत ही नहीं है, आप तुरन्त कहेंगे-हां हो सकता है, हो सकता है।
किसी की भी ऊँचाई, अच्छाई मानने को हम तत्पर नहीं होते लेकिन किसी के लिये अगर कोई दोष लगा दें, तो कितनी जल्दी मान लेते हैं क्योंकि हम सोचते हैं कि जब मैं ऊँचा नहीं हो पाया तो वह कैसे ऊंचा हो जायेगा? अपने अभिमान और अहंकार पर चोट पड़ती है न। पर यह हमारी ऊँचाई नहीं है। कठिनाइयों को देखकर भयभीत नहीं होना।
कठिनाइयाँ आएंगी, परीक्षा लेगी, न कभी निराश होना, न कभी भयभीत होना, न समस्या से भागने की कोशिश करना। धैर्य से, साहस से उनके निवारण करने के जो उपाय हैं, उन निवारण करने के उपायों के बारे में पूरी शक्ति से प्रयत्न करो। जो आपदाये, जो कठिनाइयां आपके मार्ग को रोकती है उनसे साहस से, हिम्मत से डटकर मुकाबला करो। ये पंक्तियां भी ध्यान देने योग्य है-
हर किसी में अच्छाई को ढूंढ़ो, उससे कुछ सीखकर अपना ज्ञान और अनुभव बढ़ाओ। इससे तुम बहुत जल्दी ऊँचाई तक पहुँच सकते हो। पहला कार्य हम सब को करना है कि असंयम जो अपने अन्दर है, उसके पार जाने का प्रयास अर्थात संयम सीखें। आवेश में आकर हम अपना बहुत कुछ बिगाड़ लेते हैं। आजकल मेडिकल साइंस बार-बार कह रही है- आपकी सेहत को, स्वास्थ्य को खराब करने वाली चीज, आपके हृदय पर आघात डालने वाली चीज आपका क्रोध, आपका आवेश है। जो आदमी बात-बात पर खीजता रहता है, बात-बात में झगड़ता रहता है, छोटी-सी-छोटी बात में दुःखी हो जाता है ऐसे व्यक्ति को हृदय की बीमारी ज्यादा होगी। प्रयास करो हरदम खुश रह सको। खीजने की, दुःखी होने की, क्रोध करने की, उतावलापन पैदा करने की आदत से बचिये। अगर किसी के अन्दर ऐसी आदत है तो उसे पहला कार्य यह करना चाहिये- भोजन करने बैठें तो जल्दबाजी में भोजन कभी नहीं करना चाहिये, प्रसन्नता से भोजन करें। हो सके तो भोजन के समय मधुर संगीत सुनते रहें। अन्न-देवता का सम्मान करो। परमात्मा का धन्यवाद करो कि भगवान, तुमने आज का जो प्रसाद दिया, कृपा की, यह बार-बार करना। दूसरी बात किसी भी स्थिति में न घबराये, न झुंझलाये। संयम से, धैर्य से चलने की कोशिश करें कि जिससे आपके अन्दर अधिक उतावलापन न आये और क्रोध न बढ़े।
तीसरी बात ज्यादा क्रोध, उतावलापन, खीझ, परेशानी बढ़ती हो तो आदमी को पानी ज्यादा पीना चाहिये। पांच-छः गिलास पानी पीने का रोज का नियम बना लें। जल जीवन है, ज्यादा पानी पिये और सैर करें। कहावत भी है- पेट नरम, पांव गरम, सिर ठंडा, डाक्टर आये तो मारो डंडा। तुक मिलाने के लिये कहा गया है, मतलब यह कि डाक्टर की जरूरत नहीं पड़ती।
जिस आदमी का पेट नरम है, आंते गन्दगी से भरी हुई नहीं है, पांव गरम है, वह सैर करता रहता है। सिर ठंडा अर्थात दिमाग को ठंडा करके चलता है फिर उसे डाक्टर की जरूरत नहीं रहती है। पांच करोड़ रोम-छिद्र हैं शरीर में जहां से पसीना बहाना आवश्यक है। यदि जीवन का स्वाद लेना है तो परिश्रम करना चाहिये, पानी ज्यादा पिये, सैर करें और दिन में दो-चार बार खुल कर हंसें। जब किसी बात पर गुस्सा आये तो ध्यान बंटा लें। अपनी जीभ को दांतों से दबाकर, अपने गुरू का नाम जपें। उस जगह को थोड़ी देर के लिये छोड दें। ये सारे प्रयोग जल्दी-जल्दी करना चाहिये। ये सारे प्रयोग तीर छुटने से पहले कर लिये जाये तो ठीक है। क्रोध की लहर पैदा होने से पहले ही उसे रोक लिया जाये तो ठीक हैं, अगर अग्नि भड़क गई तो फिर किसी से रूकनेवाली नहीं है।
मनुष्य की कमजोरी है असंयम और आवेश, जिसमें व्यक्ति अपना सबकुछ बर्बाद कर देता है। इन उपायों को जीवन में जारी रखते-रखते एक बात जरूर करते रहना चाहिये कि प्रार्थना करना न भूलें। भगवान के चरणों में जब प्रार्थना करना चाहोगे, आपका बल बढ़ेगा, आपकी सहनशक्ति बढ़ेगी।
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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