त्रिदेव महर्षि अत्रि पर अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले अहं तुभ्यं मया दत्त अर्थात् हमने अपने को तेरे पुत्र के रूप में दान दे दिया। दानवाचक से दत्त शब्द और अत्रि से आत्रेय इन दोनों शब्दों के मिलने से उनके पुत्र का नाम दत्त + आत्रेय = दत्तात्रेय पड़ा।
साथ ही पुराणों में यह भी वर्णन मिलता है कि जब वेद नष्टप्राय हो गये, सत्ययुग होने पर भी कलियुग की कला छाने लगी, धर्म में शैथिल्य आया, अधर्म की अभिवृद्धि होने लगी और धर्म का ह्रास होने लगा, ब्राह्मणों में नित्य नैमित्तिक कर्म, वेद अध्ययनादि में अरूचि होने लगी, ऐसे विषम समय में वेदों के अस्तित्व को पुनः स्थापित करने के लिऐ भगवान विष्णु ने दत्तात्रेय नाम से अवतार लिया। महर्षि अत्रि एवं महासती अनसूया के यहां भगवान दत्तात्रेय ने अवतार लेकर स्वधर्म की स्थापना की, श्रुतियों का उद्धार किया, सबको अपने-अपने कर्तव्य कर्म के प्रति प्रेरित किया, सामाजिक वैमनस्य का निवारण किया और भक्तों को त्रि-ताप से मुक्ति का मार्ग बताकर सच्चा सुख दिलवाया। भगवान दत्तात्रेय के अवतार के विषय में शिव पुराण, स्कन्द पुराण, भविष्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण, वायु पुराण, विष्णु धर्मोत्तर पुराण इत्यादि में वर्णन है।
जगत् के प्राणियों के दुःख एवं ताप के निवारण हेतु भगवान दत्तात्रेय ने अपनी स्वेच्छा से इस जगत् में आविर्भूत होकर लीला की और जब तक इस जगत् में दुःख एवं ताप विद्यमान रहेंगे, तब तक भगवान दत्तात्रेय ने अपना देह विसर्जन न करने का संकल्प लिया। वे उसी देह और उसी भाव में अवस्थित रहेंगे। महाप्रलय पर्यन्त उनका दीर्घ अस्तित्व माना गया है। वे सदा विद्यमान हैं उनके विषय में तन्त्र शास्त्र में वर्णन है कि- स्मरणमात्रत आममात्मनः अर्थात् अपने भक्तों के स्मरण करने मात्र से ही दत्तात्रेय दर्शन देते हैं और उनके सभी दुःख, शोक का निवारण करते हैं।
कहा जाता है कि भगवान श्री दत्तात्रेय वाराणसी में नित्य प्रातः गंगा स्नान करते हैं, कोल्हापुर में नित्य जप करते हैं, माहुरीपुर में भिक्षा मांगकर भोजन करते हैं और सह्याद्रि की कन्दराओं में दिगम्बर वेश धारण कर शयन करते हैं। वे इस प्रकार प्रतिदिन प्रातः काल से रात्रि तक लीला रूप में विचरण करते रहते हैं।
कहा जाता है कि व्यक्ति अपने जीवन में कहीं भी कुछ भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है। कोई भी व्यक्ति, वस्तु, जीव-जन्तु से जीवन उपयोगी सीख प्राप्त कर सकता है। फिर वो चाहे एकलव्य की तरह मिट्टी की मूरत ही क्यों ना हो। ज्ञान के इसी महत्ता को प्रमाणित करते हैं भगवान दत्तात्रेय जो कि स्वयं भगवान विष्णु के अवतार थे, फिर उन्होंने अपने जीवन में कीट, पक्षी और जीव-जन्तु से भी ज्ञान प्राप्त किया। भगवान दत्तात्रेय ने जिनके माध्यम से भी ज्ञान अर्जित की उनमें से कुछ निम्न हैं-
पृथ्वी- पृथ्वी पर लोग कई प्रकार के आघात करते हैं, कई प्रकार के उत्पात होते हैं, कई प्रकार के खनन कार्य होते हैं, लेकिन पृथ्वी हर आघात को परोपकार की भावना से सहन करती है।
वेश्या- पिंगला नाम की वेश्या से दत्तात्रेय ने सबक लिया कि केवल पैसों के लिये नहीं जीना चाहिये। पिंगला धन की कामना में सो नहीं पाती थी। जब एक दिन पिंगला के मन में वैराग्य जागा तब उसे समझ आया कि पैसों में नहीं बल्कि परमात्मा के ध्यान में ही असली सुख है, तब जाकर उसे सुख की नींद आई।
कबूतर- कबूतर का जोड़ा जाल में फंसे बच्चों को देखकर खुद भी जाल में जा फंसता है। बहुत ज्यादा स्नेह दुःख की वजह बनती है।
सूर्य- जिस तरह एक ही होने पर भी सूर्य अनेक माध्यमों से अनेकों रूप में दिखाई देते हैं। इसी प्रकार आत्मा भी अनेक रूपों में दिखाई देती है।
वायु- जिस प्रकार अच्छी या बुरी जगह पर जाने के बाद वायु का मूल रूप स्वच्छता ही है। उसी तरह अच्छे या बुरे लोगों के साथ रहने पर हमें अपनी अच्छाइयों को छोड़ना नहीं चाहिये।
हिरण- हिरण उछल-कूद, संगीत, मौज-मस्ती में इतना अधिक खो जाता है कि उसे पास में शेर के होने का आभास ही नहीं होता है और वह मारा जाता है। मनुष्य को भी मौज-मस्ती में इतना अधिक नहीं खोना चाहिये कि जीवन के मूल से ही विस्मृत हो जायें।
समुद्र- जीवन के उतार-चढ़ाव में भी खुश और गतिशील रहना चाहिये।
पतंगा- जिस प्रकार पतंगा आग की ओर आकर्षित होकर जल जाता है। उसी प्रकार रूप-रंग के आकर्षण और झूठे मोह में उलझना नहीं चाहिये।
आकाश- दत्तात्रेय ने आकाश से सीखा की हर देश, काल, परिस्थिति में लगाव से दूर रहना चाहिये।
जल- जल की तरह हमें सदैव पवित्र रहना चाहिये।
आग- कैसे भी हालात हों, हमें उन हालातों में ढ़ल जाना चाहिये। जिस प्रकार आग अनेक लकडि़यों के बीच रहने के बाद भी एक जैसी नजर आती है।
चन्द्रमा- आत्मा लाभ-हानि से परे है। वैसे ही जैसे घटने-बढ़ने से भी चन्द्रमा का चमक और शीतलता बदलती ही नहीं है, हमेशा एक-जैसे रहती है। आत्मा भी किसी भी प्रकार के लाभ-हानि से बदलती नहीं है।
मकड़ी- जिस प्रकार मकड़ी स्वयं जाल बनाती है, उसमें विचरण करती है और अंत में पूरे जाल को खुद ही निगल जाती है। ठीक इसी प्रकार भगवान भी माया से सृष्टि की रचना करते हैं, संचालन करते हैं और अंत में स्वयं ही उसका संहार भी करते हैं।
भृंगी कीड़ा- इससे यह सीख मिलती है कि अच्छी हो या बुरी, जिस सोच में मन लगायेंगे मन वैसा ही होगा।
भौंरा- जहां भी सार्थक बात सीखने को मिले उसे ग्रहण कर लेना चाहिये। जिस प्रकार भौरें अलग-अलग फूलों से पराग ले लेते हैं।
भगवान दत्तात्रेय के इन विचारों से व्यक्ति अपने जीवन को परम कल्याण की ओर अग्रसर कर सकता है। मानव कल्याण के लिये पुनः वेदों के अस्तित्व को बचाने और आर्य संस्कृति, विलुप्त साधना, नवीन तंत्र का निर्माण करने वाले भगवान दत्तात्रेय को उनके अवतरण दिवस पर कोटि-कोटि नमन।
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