भौतिकता के चक्रव्यूह में उलझ कर मानव का मन और मस्तिष्क अंतर्द्वन्द्व में उलझ जाता है, और तब व्यक्ति निर्णय नहीं ले पाता, व उसकी विचारधारायें, परस्पर मंथन करने लग जाती हैं। अपने स्वार्थ और परमार्थ दोनों की भावनाओं से व्यक्ति यह विचार नहीं कर पाता कि जीवन में उसे क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये, क्या उचित है, क्या अनुचित हैं, और उस समय कभी-कभी ऐसा भाव आता है, कि क्या हमारा जीवन अपने-आप में एक क्षुद्रमय अस्तित्व व्यतीत करने के लिये है या जीवन को पूर्णता देने के लिये है।
आज हर तरफ विज्ञान हावी हो रहा है, और दूसरी तरफ जो हमारे खून में ज्ञान की गरिमा है, जो ज्ञान के कण हैं, वे भी बार-बार हम पर हावी हो रहे हैं, कि हमें श्रेष्ठ व्यक्तित्व के रूप में पूर्णता को प्राप्त करना है। व्यक्ति पूर्णता की ओर अग्रसर होता है, और वह इसलिये कि हमारा रक्त सदियों पुराना है, क्योंकि हम उन ऋषियों की संतान है, जिनको हमने वशिष्ठ कहा है, विश्वामित्र, अत्रि, कणाद— कहा है। हमारे इन धमनियों में वशिष्ठ का खून प्रवाहित हो रहा है, जो निश्चय ही हमारे पिता के शरीर में भी प्रवाहित है, अर्थात हमारे शरीर में पचास-सौ पीढ़ी पहले का भी रक्त है, और यह रक्त निश्चय ही ऋषियों का रक्त हैं— इसलिये ज्ञानश्चेतना से अनुप्राणित है, इसलिये बार-बार हमारा मन, हमारा ज्ञान हमें साधना के क्षेत्र में कुछ करने के लिये हमेशा प्रेरित करता है। तकि हम एक पंछी के तरह उड़ने की कला सीख सकें। एक सम्राट हुआ बड़ा विचारशील, चिंतन-मनन का प्रेमी, सत्य का खोजी उसे खबर मिली की दूर किसी गांव में कोई बड़ा दार्शनिक है, बढ़ा तार्किक है, बड़ा बुद्धिमान है। तो उसने अपना संदेशवाहक भेजा। अपने हाथों पत्र लिखा, मोहर लगायी, लिफाफा बंद किया।
संदेशवाहक पत्र लेकर दूर की यात्रा पर निकल गया। जाकर दार्शनिक के द्वार पर दस्तक दी, हाथ में पत्र दिया और कहा, सम्राट ने पत्र भेजा है। दार्शनिक ने पत्र को बिना देखे नीचे रख दिया और कहा, पहले तो यह सिद्ध होना जरूरी है, कि सम्राट ने ही पत्र भेजा है या किसी और ने? तुम्हारे पास क्या प्रमाण है कि तुम सम्राट के संदेशवाहक हो? उस आदमी ने कहा इसके प्रमाण की कोई जरूरत है? मेरे वस्त्र देखें। मैं संदेशवाहक हूं सम्राट का। दार्शनिक ने कहा, वस्त्रों से क्या होगा? वस्त्र तो कोई भी पहन सकता है, धोखा दे सकता है। क्या सम्राट ने स्वयं ही तुम्हें अपने हाथों यह पत्र दिया है? संदेशवाहक भी थोड़ा संदिग्ध हुआ। उसने कहा, यह तो संभव नहीं है, क्योंकि मुझमें और सम्राट में तो दूरी हैं। प्रधान वजीर को पत्र दिया होगा सम्राट ने वजीर से प्रधान अधिकारी के पास आया फिर मुझे मिला। सीधा तो मुझे नहीं मिला है। वह दार्शनिक ने कहा, जिसे तुमने न देखा, जिसने तुम्हें न संदेश दिया तुम उसके सम्बन्ध में कैसे अधिकार पूर्वक कह सकते हो कि वह दियें है?
इतनी चर्चा होते-होते तो संदेशवाहक भी संदिग्ध हो गया। पत्र की तो जैसे बात ही भूल गया। दोनो निकल पड़े कि जब तक यह प्रमाणित न हो जाये कि सम्राट है, तब तक पत्र को खोलने की जरूरत भी क्या है? दोनों खोजने लगे। अनेक लोगों से पूछा रास्ते पर एक सिपाही मिला पूछा तुम कौन हो? उसने कहा मैं सम्राट का सैनिक हूं। क्या मेरे वस्त्रें को देख कर तुम नहीं पहचानते? उस दार्शनिक ने कहा, वस्त्रों के धोखे में तो यह जो मेरे साथ खड़ा है? वस्त्रें से क्या होता है? तुमने सम्राट को अपनी आंखों से देखा है?
वह सैनिक भी थोड़ा डगमगाया उसने कहा नहीं मैने तो नहीं देखा, लेकिन मेरे सेनापति ने देखा है। उस दार्शनिक ने पूछाकि तुमने सेनापति को अपनी आंख से देखा है? उसने कहा यह भी खूब! मैने सेनापति को तो नहीं देखा, सुना है कि सेनापति सम्राट से मिलता है। मैं एक छोटा सैनिक हूं। उतनी पहुंच मेरी नहीं। महल के दरवाजे मेरे लिये बंद हैं। दोनों खिलखिला कर हंसे-संदेशवाहक और दार्शनिक। और कहा तुम भी हमारे साथ सम्मिलित हो जाओ। जब तक यह सिद्ध न हो जाये कि सम्राट है, तब तक यह सब झूठ का जाल फैला हुआ है।
यह कभी सिद्ध न हो सका, क्योंकि जो भी मिला, उसका प्रत्यक्ष कोई अनुभव न था और बड़े आश्चर्य की बात तो यह थी, कि यह सिद्ध हो सकता था बड़ी आसानी से क्योंकि सम्राट ने स्वयं निमंत्रण दिया था कि तुम आओं मेरे महल में अतिथि बनो और मैं तुम्हें राज्य का महागुरू बना देना चाहता हूं। लेकिन वह पन्ना तो पढ़ा ही नहीं गया। किसी से पूछने की जरूरत न थी। सीधा सम्राट का निमंत्रण था महल के द्वार खुले थे, स्वागत था।
जिनके मन में सन्देह है, बुद्ध के वचन उनके लिये संदेश्वाहक की तरह हैं। ये वचन के पत्र बंद ही पड़े रह जायेगा तुम उसे खोलोगे ही नहीं क्योंकि पहले तो यह सिद्ध होना चाहिये कि बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुये और यह सिद्ध होना करीब-करीब असंभव है। कौन सिद्ध करेंगा? कैसे यह सिद्ध होगा? शब्द बंद पड़े रह जाते है। कितना कहा जाता है। लेकिन तुमने उसे सुना नहीं। कितना शब्दों में भरा गया हैं, लेकिन वे शब्द तुमने कभी अपने मन के पन्नो को खोला ही नहीं, उनकी कुंजियां भी साथ ही लटकी थीं, लेकिन तुम्हारा सन्देह से भरा चित्त बुद्धत्व की कोई भी झलक को खोल नहीं पाया। तुम सूरज को उगता देख कर आंख बंद कर लेते हो और पूछते हो, सूरज कहां है?
मैं रोज बोलता रहा वही बार-बार प्रवचन में भी बोलता रहता हूं, आकर बैठो सुनो तुममें से कुछ लोग आये थे कुछ नहीं क्योंकि तुम अपने मन के पन्नो को खुलाना ही नहीं चाहते, तो तुम उड़ भी नहीं पाओगे। एक बार एक पक्षी वातायन पर आकर बैठ गया। उसने गीत गुनगुनाया और उड़ गया। मैं उस पक्षी को देखता रहा गया- बैठते, फड़फड़ते, गीत गाते, उड़ जाते। मैं इतना ही कहता हूं कि संसार तुम्हारा वातायन है। उस पर तुम बैठे हो उस पर तुम घर मत बना लो। वहां तुम थोड़ी देर विश्राम कर लो, लेकिन वह मंजिल नहीं है। बैठ कर कहीं पंखों का फड़फड़ाना मत भूल जाना, नहीं तो खुला आकाश सदा के लिये खो जायेगा पक्षी बैठा रह जाये तो शायद भूल ही जाये कि उसके पास पंख भी हैं। तुम यो मत भूल जाना कि तुम उन ऋषियों की संतान हो– क्योंकि क्षमताये हमें वही याद रहती हैं, जिनका हम उपयोग करते हैं।
जिनका हम उपयोग नहीं करते वे विस्मरण हो जाती हैं, जिनका हम उपयोग नहीं करते वे धीरे-धीरे निष्किय हो जाती हैं, और उनकी क्षमता खो जाती है। तुम अगर कुछ दिन नहीं चलोगे तो तुम्हारे पैर पंगु हो जायेंगे, तुम अगर अंधेरी कोठरियों में ही रहो और देखो न तो आंखों जल्द ही अंधी हो जायेंगी। तुम अगर शब्द ही न सुनों अगर तुम्हारे कान पर कोई ध्वनि तंरगित ही न हो तो जल्दी ही तुम बहरे हो जाओगे। और न जाने कितने जन्म से तुम उड़े ही नहीं!
तुमने पंख नहीं फड़फड़ाये, कितना समय बीता गया, जब से तुम खिड़की पर बैठे हो और तुमने खिड़की को ही घर समझ लिया है। तुम द्वार को ही महल समझ कर रूक गये! पड़ाव के लिये रूके थे इस वृक्ष के नीचे, लेकिन कितना समय बीता, तब से तुमने इसे ही घर मान लिया है! पंख खोले ही नहीं, आगर मेरे पास आकर भी तुमने पंख फड़फड़ाना नही सिखा तो और कुछ सीख भी नहीं पाओगे।
भगवान बुद्ध का अंत समय आ चुका था, सभी शिष्य एकत्र हुये, शिष्यों के लिये उनका अंतिम संदेश था- हे मित्रें! जब तक तुम सभी संयमी होकर मित्रभाव से रहोगे, एक साथ मिल बांटकर खाओगे और धर्म के रास्ते पर मिलकर चलोगे, तब तक बड़ी से बड़ी विपत्ति आने पर भी तुम नहीं हारोगे। लेकिन जिस दिन तुम संगठित न होकर बिखरकर रहने लगोगे पराजित हो जाओगे संगठन में अपार शक्ति है। ठीक इसी प्रकार जब हम अपने मन और शरीर, ज्ञान, चेतना को एक साथ योग, साधना, दीक्षा को माध्यम से संगठित कर कार्य करते हैं, तो हमें सफलता अवश्य ही प्राप्त होती हैं।
नेपोलियन ने युवावस्था में आठ वर्ष तक लेखक बनने की कोशिश की, हर बार उसे असफलता ही हाथ लगी, और उसने रणक्षेत्र में अपनी प्रतिभा आजमाने का निश्चय किया, एक साधारण सैनिक से जीवन आरंभ कर अपनी क्षमता प्रतिभा व साहस के बल पर वह अपने देश की ही नहीं, अन्य देशों का भी भाग्य विधाता बन गया। हमारे जीवन में साधना का मार्ग हो ये भौतिकता, असफलता मिलने पर निराश होकर नहीं बैठना चाहिये, अतः बार-बार कोशिश करनी ही चाहिये।
ईसा सुबह भ्रमण के लिये जा रहे थे, उनके साथ उनके शिष्य भी थे, हर तरफ प्राकृतिक सौंदर्य की छटा छायी हुयी थी। सुबह सूरज की किरणों का साथ पाकर घास पर पड़ी ओस की बूंदें मोतियों की तरह चमक रही थी, बगीचे में लिली के फूल खिल रहे थे, पक्षियों की कलरव ध्वनि मन में संगीत की मिठास घोल रही थी, एक शिष्य ने पूछा-भगवन्! जीवन में सुख और सौंदर्य का रहस्य क्या है? ईसा ने हंसते हुये कहा-देख रहे हो, इन लिली के फूलों को, ये सम्राट सोलोमन से भी ज्यादा सुखी और सुंदर है, क्योंकि न इन्हें अपने बीते कल की चिंता है, ये तो अपने वर्तमान में अपनी सुगंध भरी मुस्कुराहट बिखेर रहे हैं, जो इन फूलों की तरह भूत और भविष्य की चिंता किये बिना जीवन जीता है, जो वर्तमान में सत्कमों की सुगंध बिखेरता है, वह स्वयं ही अपने जीवन के सुख और सौंदर्य के दरवाजे खोलता है।
लेकिन तुम हमेशा भविष्य की चिंता में लगे रहते हो, और भूतकाल को याद कर दुःखी होते हो, जब तुम अपने वर्तमान को ठीक से जियोगे, तो तुम्हारा भविष्य अपने आप उस लिली के फूल जैसा खिला रहेगा। जिसमें से सुगंध हमेशाप्रवाहित होती रहेगी। यदि तुम ऐसा नहीं कर पाओगे, तो तुम्हारा जीवन बुझा-बुझा सा रहेगा। जीवन में जो कुछ पूर्णता होनी चाहिये, वह तुम्हें प्राप्त ही नहीं होगी, तुम्हें जीवन में जो कुछ प्राप्त करना चाहिये, वह नहीं कर पाओगे, क्योंकि बाहरी सभ्यता तुम्हारे ऊपर बहुत अधिक प्रतिकुल दबाव डाल देती है, क्योंकि तुम हमेशा जल्दी में रहते हो, कोई भी काम तुम धैर्य से करते ही नहीं, मैं जब भी तुम्हें बुलाता हूं, तुम आते तो हो, पर गुरूजी जल्दी दीक्षा दे दो, जल्दी जाना है, अरे भाई थोड़ा रूको तो कम से कम गुरू के पास तो समय निकाल कर आओं, यह याद रखना जितनी जल्दी तुम करते हो उतना ही तुम आपने आप को भूल जाते है, उतनी ही तुम्हें परेशानिया उठानी पड़ती है।
जब तक तुम अपने आपको नहीं जान पाओगे तब तक तुम्हारे अन्दर यही छटपटाहट बनी रहेगी, तुम कभी उड़ने की कला नहीं सिख पाओगे। मैं तुम्हें वहीं सिखाना चाहता हूं, मैं तुम्हें बताना चाहता हूं कि तुम्हारें अन्दर भी वशिष्ठ, विश्वमित्र, गौतम आदि ऋषि-मुनियों का ही रक्त है। जो तुम्हारी नसों में बह रहा है, तुम उसे जब तक नहीं पहचान पाओगे तबतक तुम अपने जीवन में योग, ध्यान, साधना के मार्ग पर गतिशील नहीं हो पाओगे, पर ये भी एक दुविधा है, तुम साधना भी करते हो एकदम भागदोड़ जैसे करते हो कि बस 11 माला ही तो करनी है, एक घन्टे ही तो बैठना है। याद रखना की तुम उस मंत्र को, उस साधना को, अपने गुरू के हर एक शब्द को, अपने भीतर-हृदय में उतारने की क्रिया नहीं करोगे, तो किसी क्षेत्र में सफलता प्राप्त भी नहीं कर पाओगे, उसके लिये तुम्हें धैर्य के साथ योग-ध्यान में उतरने की क्रिया करनी पड़ेगी, तभी तुम अपने आप को पहचान पाओगे।
यही तो उद्देश्य है मेरा, यही तो हमारे ऋषि-मुनियों का संदेश है, कि तुम उड़ सकते हो मुक्त आकाश में। तुम मुक्त गगनके पक्षी हो। तुम व्यर्थ ही चिंता लिये बैठो हो, डरे हुये हो, तुम भूल ही गये हो कि तुम्हारे पास पंख है। तुम पैरों से चल रहे हो। तुम आकाश में उड़ सकते थे, लेकिन तुम फड़फडाना भूल गये हो, गुरू की चेतना, शक्ति, ध्यान, योग, साधना फड़फड़ाहट पैदा करती है, उन पंखों को जो उड़ सकते है, दूर आकाश में जा सकते है। आत्मविश्वास और पूरी श्रद्धा के साथ साधना करने की आवश्यकता है। मैं तुम्हें सिखाना चाहता हूं, अपने प्रवचनों के माध्यम से, पत्रिका के माध्यम से, शक्तिपात दीक्षा कि क्रियायों से, ताकि विस्मृति मिट जाये स्मृति जग जाये। संतों ने, कबीर ने, नानक ने शब्द का उपयोग किया है, सुरति। सुरति का अर्थ है, स्मरण आ जाये। जो भूला है, उसका ख्याल आ जाये। तुमने कुछ खोया नहीं है, तुम सिर्फ भूले हो। खो तो तुम सकते भी नहीं। पक्षी भूल सकता है कि उसके पास पंख है, खो कैसे सकता है? कितने ही जन्मों तक तुम न उडे़ तो भी अगर उड़ने का स्मरण आ जाये तो पुनः उड़ सकते हो।
विवेकानंद जी की एक छोटी से कहानी कहा करते थे। वे कहते थे, ऐसा हुआ कि एक सिंहनी एक पहाड़ी से छलांग लगा रही थी, गर्भवती थी और छलांग के बीच में उसे बच्चा हो गया। वह तो छलांग कर चली गयी। बच्चा नीचे से गुजरती हुई भेड़ों की भीड़ में गिर गया, फिर भेड़ों ने उसका पालन किया, वह सिंह का बच्चा था, लेकिन याद कौन दिलाये? उसे पहचान कौन कराये? सुरति कैसे मिले? वह भेड़ों के साथ ही बड़ा हुआ और उसने समझा कि मैं भी भेड़ हूं, यही स्वाभाविक भी है।
तुम जिनके बीच बड़े होते हो, वही तुम अपने आपको समझ लेते हो। क्योंकि तुम भूल जाते हो की तुम हो कौन और वही भूल उस सिंह के बच्चे की थी। शेर का बच्चा तुमसे ज्यादा बुद्धिमान तो नहीं था! उसने समझा कि मैं भेड़ हूं। वह भेड़ों के बीच ही चलता, भेड़ों जैसा ही भयभीत होता, घास-पात खाता।
एक दिन सिंह ने देखा भेड़ों की कतार गुजर रही थी, इनके बीच में एक सिंह! बड़ा हैरान हुआ। यह असंभव घटना घट रही थी। न तो भेड़ उससे घबड़ा रही है, न वह भेड़ों को खा रहा है। ठीक भेड़ो की भीड़ में घसर-पसर-जैसे और सब भेड़ें चली जा रही हैं, ऐसे ही वह भी चल रहा है। वह सिंह इस भेड़ों की भीड़ में आया। भेड़ों में भाग चीख-पुकार मच गयी। वह सिंह का बच्चा जो बड़ा हो गया था वह भी भागा, चीख-पुकार मचाता, उसकी आवाज भी भेड़ों की हो गयी थी। क्योंकि भाषा भी तो तुम उनसे सीखते हो, जिनके तुम पास होते हो। भाषा कोई जन्म साथ लेकर तो पैदा नहीं होता। भाषा भी सीखी जाती है। वह भी संस्कार है। तुम हिन्दी बोलते हो, मराठी बोलते हो, अंग्रेजी बोलते हो, तुम वही सीख लेते हो जो तुम्हारे चारों तरफ बोला जाता है। पैदा तो तुम खाली स्लेट की तरह होते हो।
उसने भेड़ों की भाषा ही जानी थी, वही सुनी थी, वही सीखी थी। वह भी मिमि-याने लगा, रोने लगा, भागने लगा। यह नया सिंह भागा, बहुत मुश्किल से वह सिंह का बच्चा पकड़ में आया। पकड़ा तो वह गिड़गिड़ाने लगा, छूटने की आज्ञा चाहने लगा। घबड़ा गया, जैसे मौत सामने खड़ी हो गयी है। अब सिंह ने उस भेड़ सिंह से बहुत कहा कि नासमझ! तु भेड़ नहीं है! लेकिन वह कैसे माने? इसमें उसको कुछ जालसाजी दिखायी पड़ी। यह सिंह कुछ ऐसी बात समझा रहा है, जो सच हो नहीं सकती। उसके जीवन भर के अनुभव के विपरीत है।
जब तुमसे कोई कहता है, तुम शरीर नहीं हो, क्या तुम्हें विश्वास आता है? जब मैं तुमसे कहता हूं की तुम आत्मा हो तो क्या तुम्हें भरोसा होता है? अगर उस भेड़ सिंह को भी भरोसा न आया तो आश्चर्य तो नही। लेकिन यह दूसरा सिंह भी जिद्दी था। मैं भी बड़ा जिद्दी हूं, तुम जागो या न जागो मैं तुम्हें जगाते रहुंगा। तुम कितना ही भागो, गुरू तुम्हें फिर से पकड़ ही लेगा, तुम भाग नहीं सकते। क्योंकि यह तो नित्य शाश्वत सनातन संबंध है। उस सिंह ने भी उसे घसीटते हुये एक सरोवर के किनारे छोड़ा वह कितना ही रोया, चिल्लाया, आंख से आंसू झरने लगे, लेकिन वह सिंह उसे घसीटता ही ले गया उसकी इच्छा के विपरीत।
बहुत बार गुरू शिष्य को उसकी इच्छा के विपरीत दर्पण के निकट ले जाता है। शायद बहुत बार नहीं, हर बार क्योंकि शिष्य तोदर्पण के निकट जाने से डरता है, क्योंकि दर्पण के सामने जाने से उसकी अब तक की सारी मान्यताये छिन्न-भिन्न हो जायेगी। जो भी उसने समझा-बुझा है, वह व्यर्थ हो जायेगा। जो भी उसकी धारणाये है, टूटेगी, खंडित होगी। सारे जीवन की प्रतिमा बिखर जायेगी। दर्पण के सामने आने से सभी डरते है। अपना चेहरा देखने से सभी डरते है। क्योंकि तुम सब ने कुछ और चेहरे बना रखें है, जो तुम्हारे नहीं हैं। तो वह सिंह भी डर रहा था। लेकिन गुरू माना नहीं। गुरू सिंह ने उसे खींचा और सरोवर के किनारे ले जा कर खड़ा किया और कहा कि देख ना-समझ! मेरे और तेरे चेहरे पानी में देख, कोई फर्क है? जो मैं हूं, वही तु है। ‘‘तत्त्वमसि’’ यही मैं कहा रहा हूं कि जो मैं हूं , वही तुम हो। यही उपनिषद कह रहे हैं कि जो मैं हूं वही तुम हो, जरा भी भेद नहीं है। डरते-डरते उस सिंह ने देखा, लगा जैसे कोई सपना देखता हो। क्योंकि हम उसी का यथार्थ कहते हैं, जिसको हमने बहुत बार पुनरूक्त किया है। नया तो सपना ही मालूम पड़ता है। भरोसा न आया, आंख मीड़ी होगी, पुनः देखा होगा। जीवन भर का अनुभव तो यह था कि मैं भेड़ हूं, लगा होगा, यह सिंह कोई तरकीब तो नहीं करता! कोई जादूगर तो नहीं! कोई हिप्नोटिस्ट तो नहीं है!
जब तुम गुरू के पास पहली दफा जाओगे तो तुम्हें अनेक बार लगेगा कि कोई सम्मोहित तो नहीं कर रहा है? कोई तुम्हें धोखा तो नहीं दे रहा है? कोई तुम्हें ऐसी बात तो नहीं समझा रहा जो सच नही है? क्योंकि तुम्हारे अनुभव के प्रतिकूल है। लेकिन सिंह ने कहा की तु देख, फिर से देख उस सिंह ने गर्जना की उसकी गर्जना सुनते ही सरोवर के दर्पण में अपने चेहरे को ठीक से देखकर ही दूसरे सिंह का भीतर सोया हुआ सिंह भी जागा गया। भेड़ की खल तो ऊपर थी, उसे तो हटना ही था। संस्कार तुम्हारी आत्मा तो नहीं बन सकते। तुम कुछ भी उपाय करों, तुम रहोगे तो आत्मा ही। तुम कितनी ही चेष्टा करोगे जन्मों-जन्मों तक, तो भी तुम शरीर न हो सकोगो। आत्मा और शरीर तो अलग-अलग है। विचार ऊपर ही ऊपर है। मन ऊपर ही है और जिस दिन गुरू तुम्हें दिखायेगा सरोवर और जिस दिन तुम गुरू की हूंकार सुनोगे—। उस हूंकार के साथ ही भेड़ सिंह की तरह अन्दर की आत्मा जाग जायेगी। हूंकार उठी, सारा जंगल, पहाड़ पर्वत, हूंकार से गूंज उठे। एक क्षण में भेड़ खो गयी—वह सिंह था! वापिस उसने पानी में झांक कर देखा। मुस्कुराया होगा। सोचा कैसा खेल हुआ कैसी वंचना! कैसा अपने आप को धोखा दिया!
एक आदमी ऊंट पर चढ़कर अपने गांव जा रहा था। रात्रि के समय वह एक गांव में पहुंचा, वहां एक जगह ब्याह हो रहा था, ढोल-बाजे बज रहे थे, वह आदमी ब्राह्मण था, उसने वहां जाकर देख तो पता लगा कि भूर बंटनेवाली है, भूर को संस्कृत में भूयासी विशेष दक्षिणा कहते हैं। जो ब्याह के समय ब्राह्मणों को दी जाती हैं, वह ब्राह्मण ऊंट को बाहर खड़ा करके भूर लेने के लिये भीतर चला गया। चोरों ने ऊंट को बाहर देख तो वे उसको भगाकर ले गये, इधर भूर बंटी तो सब ब्राह्मणों को चार-चार आने मिले, चार आने लेकर वह ब्राह्मण बाहर आया तो देखा कि ऊंट नहीं है, इधर चार आने मिले और उधर चार-पांस सौ रूपयों का ऊंट गया।
इस तरह संसार में तो तुच्छ सुख मिला, थोड़ा धन मिल गया थोड़ा मान मिल गया, थोड़ा आदर मिल गया, थोड़ा भोजन बढि़या मिल गया पर उधर ऊंट चला गया परमात्मा की प्राप्ति चली गयी, यही दशा है, तुम तुच्छ सुख में आनन्द को खो देते हो। तुम्हारे मोह के कारण तुम उस मर्म, उस तत्व को नहीं समझ पाते जो गुरू तुम्हें समझाना चाहता है। थोड़े से आदर-सत्कार में चार आने भूर के लिये राजी हो जाते हो।
एक संत को किसी ने कहा कि हम आपका आदर करते हैं, तो वे बोले-धूल आदर करते हो तुम। हमारा आदर भगवान करते हैं तुम क्या कर सकते हो? सब मिलकर भी क्या आदर कर लोगे? क्या ताकत है तुम्हारे में जो आदर करोगे? वास्तव में संतों का सम्मान भगवान करते हैं, दूसरा बेचारा क्या जाने की सम्मान क्या होता है?
आप जो सर्वोंपरि लाभ चाहते है, यही बास्तव में परमात्मा को प्राप्त करने की इच्छा है। इस इच्छा को ज्ञान की इच्छा कहो या प्रेम की, सुख की इच्छा या ईष्ट दर्शन की, भगवत प्राप्ति की इच्छा कह दो, एक ही बात है, यही हमारा लक्ष्य है, इस लक्ष्य पर डटे रहें, अधूरें में मत रहो, पूरा मिल जायेगा। अधूरे को ले लोगे, तो वहीं अटक जाओगे, यह मनुष्य शरीर उत्तम से उत्तम है। अतः इसका लक्ष्य पूर्णता को प्राप्त करना है, आनन्द को प्राप्त करना है, परमात्मा की प्राप्ति के लिये ही मानव जीवन मिला है।
एक चरवाहा आया और ब्राह्मण से बोला, संसार का सुख छोड़ने से परमात्मा मिल ही जायेगा इसका क्या पता? इधर का तो छोड़ दें और उधर का मिले ही नहीं, तो फिर रोते रह जायेगे न? ब्राह्मण न उत्तर दिया कि अर्जुन ने भी यही प्रश्न किया था कि अगर साधक को योग की प्राप्ति न हो, तो और वह बीच में ही मर जाये, उस बेचारे की क्या गति होती है? क्या वह लक्ष्यभ्रष्ट हो जाता है? संसार को तो छोड़ दिया और परमात्मा मिले नहीं, तो क्या बीच में ही लटकता रहेगा? भगवान बोले- नहीं पार्थ! उसका न तो इस लोक में और न परलोक में ही पतन होता है क्योंकि जैसे हम कर्म करते है, वैसा ही हमें प्राप्त होता है।
दो शिष्य अपने गुरू के आश्रम में थे, दोनों को एक घंटे बगीचे में घूमने का समय मिलता था। दोनों को सिगरेट पीने की आदत थी। वही एक घंटा था जब वे पी सकते थे। लेकिन वह घंटा भी मिलता था, ध्यान के लिये कि घूम कर ध्यान करो। तो सवाल था कि ध्यान करते समय सिगरेट पीना है कि नहीं? तो दोनों ने तय किया कि गुरू से पूछ लेना उचित है। तो पहले ने जाकर पूछा। गुरू ने कहा नहीं बिलकुल नहीं। यह बात पूछने की है? शर्म नहीं आती? नालायक कहीं के! जाओ ध्यान करो! वह तो बड़ा दुःखी होकर वापिस लौट आया। एक बैंच पर आकर बैठ गया बड़ा उदास होकर, दूसरा आया वह तो सिगरेट पीता चला आ रहा था। पहले ने पूछा कि मामला क्या है, मुझ पर तो बहुत नाराज हुये गुरू जी! क्या तुम्हें सिगरेट पीने की आज्ञा दी?
उसने कहा हां मैंने पूछा तो उन्होंने कहा हां मजे से। उसने कहा यह तो हद हो रही है! यह कैसा पक्षपात! तो दूसरे ने कहा मैं तुझसे पूछता हूं तूने पूछा क्या था? उसने कहा मैंनेपूछा था कि मैं ध्यान करते समय सिगरेट पी सकता हूं? वे एकदम नाराज हो गये, आग बबूला हो गये कि नहीं बिलकुल नहीं। दूसरा हंसने लगा, उसने कहा वहीं भूल हो गयी। मैंने गुरू जी से पूछा कि क्या मैं सिगरेट पीते समय ध्यान कर सकता हूं। उन्होंने कहा हां बिलकुल कर सकते हो! अरे कम से कम ध्यान तो कर रहे हो।
तुम कहते हो मैंने बार-बार भागना चाहा और ज्यादा खिंचता चला आया तुम भाग भी कैसे सकते हो! मैंने तुम्हें बांधा नहीं है। किसी को बांधो तो वह भग सकता है। जंजीरें हों तो तोड़ सकता है। मैंने तुम्हें पूरी स्वतंत्रता दी है, तुम भागना चाहो तो तुम मालिक हो अपने। मैं तुम्हें तुम्हारी मालकियत दे रहा हूं, तुभ भागना चाहो तो तुम मलिक हो अपने मैं तुम्हें तुम्हारी मालकियत दे रहा हूं। सारा स्वर यही है मेरा कि तुम्हारी परम स्वतंत्रता है।
तुम कहते हो मुझ अपात्र को आपने स्वीकार किया! कोई भी अपात्र नहीं, आनन्द किरण हो तुम मेरी, तुम्हारे भीतर ही में बैठा हूं, परमात्मा बैठा है, अपात्र कैसा, पात्र कैसा, लाखों लोग मेरे संपर्क में आये, मैंने कोई अपात्र नहीं देख, अपात्र कोई है ही नहीं। लेकिन इस समाज ने तुम्हें यह समझा दिया है की तुम पापी हो, तुम अपराधी हो तुम्हें हीन भाव से भर दिया है। मैं तो सिर्फ तुम्हें एक ही बात का स्मरण दिलाना चाहता हूं। तत्त्वमसि कि तुम हंस हो, मेरे राज हंस हो। तुम अपने आप को भूल चुके हो क्योंकि तुम सो रहे हो, मूर्छित हो, निद्रा में हो। जाग जाओगे ध्यान में तो अपने-आप में साधु हो जाओगे। एक सम्राट को उसके ज्योतिषी ने कहा कि इस वर्ष जो फसल आयेगी उसे जो भी खायेगा, पीयेगा वह पागल हो जायेगा। तुम कुछ बचाने का उपाय कर लो। सम्राट ने कहा, तो पिछले वर्ष की फसल हम बचा लें लेकिन ज्योंतिषी ने कहा, वह इतनी प्रर्याप्त नहीं है कि तुम्हारे पूरे राज्य के लोग उसे एक साल तक चला सकें। केवल महल में रहने वाले लोग तुम, मैं, तुम्हारी रानी, तुम्हारों बच्चें, थोड़े से लोग बच सकेंगे।
सम्राट ने कहा इन थोड़े से लोगों को बचा कर क्या हो जायेगा? जब मेरा पूरा साम्राज्य ही पागल हो जायेगा तो उनके बीच रहने में भी अड़चन होगी। तो तुम एक काम करो, सिर्फ पूरानी फसल को बचा लो, पूराने अनाज को और हम सब को पागल हो जाने दो, एक बात याद रखें तुम पागल नहीं रहोगे। तो तुम एक-एक व्यक्ति को जो भी तुम्हें मिले उसे हिला कर कहना कि तू पागल नहीं है। बस इतनी कसम खा लो।
सम्राट ने ठीक कहा- अगर पागल को स्मरण दिला दिया जाये, होश दिला दिया जाय की उस अन्न का प्रभाव शरीर पर ही होगा, आत्मा तक नहीं पहुंच सकता। वह जो बेहोशी है, बाहर-बाहर है, भीतर नहीं पहुंच सकती। ऐसा हुआ सारा साम्राज्य पागल हो गया। सिर्फ ज्योतिषी बचा गया। बड़ी कठिन उसकी यात्र थी, क्योंकि पागलों को हिलाना बड़ा मुश्किल था। कितना ही उनको कहो, वे सुनते नहीं थे। कितना ही जगाओ वे जगते नहीं थे, कितना ही हिलाओ, हिलते नहीं थे। लेकिन कुछ लोग हिले, कुछ लोगों को याद आयी और जिनको याद आया, उनको वह ज्योतिषी कहता तुम भी यही करो। दूसरों को हिलाओ, क्योंकि जो अन्न है वह भीतर तक नहीं जा सकता। वह आत्मा नहीं बन सकता। ऊपर बेहोशी तन्द्रा ही तो है।
तुम सो गये हो जैसे ही तुम हिलते हो जग जाते हो तो जागरण कभी खोता नहीं, सिर्फ भीतर छिप जाता है। तुम्हेंधुयें से भर दिया है। बस तुम्हारी देह पर ही है वह धुयें का आवरण, तुम अंधेरा नहीं हो, तुम प्रकाश हो, तुम्हारे दीये की लौ चाहे कितनी ही मंदिम जलती है, उसके चारों तरफ चाहे कितना ही अंधेरा हो वह स्वयं अंधेरा नहीं है। कोई तुम्हें हिलाये, जगाये, बस तत्क्षण में क्रांति घट सकती है। उसी क्षण में तुम हंस बना जाओगे, तुम स्वयं बुद्ध हो जाओगे। क्योंकि तुम्हारें भीतर एक दिया है, जो सदा से जल रहा है, सदा जलता रहेगा, कितना ही ढंक जाये, जैसे बादलों में सूरज फिर से प्रकट हो जाता है। थोड़ी सी हवायें चाहिये तुम्हारे बादल छितर-बितर हो जायेंगे और तुम्हें स्मरण हो जायेगा कि तुम कौन हो। सिर्फ भूली आत्मा की पुनःआत्मबोध, स्मृति है, सूरति है।
तो मैं जो कह रहा हूं वह तुम्हें हिलाने की है। इसलिये जब भी तुम सद्गुरू के पास पहुंच जाओगे बड़ा संघर्ष पैदा होता है। आधे रास्ते से तुम भागना चाहोगे, हटना चाहोगे, बचना चाहोगे। तुम सब उपाय खोजोगे कि कैसे निकल भागें? और आधे से तुम रूके रहोगे, भागोगे तो भी वापिस आ जाओगे, क्योंकि मन कहेगा, कहीं और जाने का कोई अर्थ नहीं, वह मंजिल है, जिसकी तलाश थी।
गुरू पुर्ण है, अद्वैत है, शिष्य अपुर्ण है, शिष्य द्वैत है। पर तुम्हारे भीतर जो व्यर्थ की चिन्तायें है, उससे ही छुटकारा दिलाना है, तुम्हारे भीतर जो चेतना है, वह प्रकट हो जाये। तुम्हें आग में डालना होगा, ताकि तुम्हारा स्वर्ण निखर आये, स्वर्ण तो जलता नहीं, सिर्फ निखरता है।
मैं तुम्हें वह मंत्र, साधना, दीक्षा दे रहा हूं जिसके माध्यम से तुम इसी जीवन में पूर्ण हो सको, जिससे तुम्हारी चिन्तायें, तुम्हारी बाधायें, तुम्हारी परेशानी सब मैं अपने ऊपर झेलूंगा, तुम्हें मुक्त होना है, मेरे प्राणों के साथ रहना है, हर क्षण और हर धड़कन के साथ रहना है, तुम्हें उड़ना सीखना ही हैं।
इस दीपावली महापर्व पर अपने मन का दीप जलायें, जो आपको आन्तरिक रूप से आलोकित करें, आपके जीवन को एक नयी ऊर्जा, नयी सोच, नये विचार के साथ, जिससे आपकी कर्म शक्ति का भाव ज्योतिर्मंय स्वरूप में दैदीप्यमान हो सकें। जिससे तुम्हारा प्रत्येक क्षण आनन्द मग्न हो सके, उत्सवमय हो सके, इस प्रकाशमान दीपावली महापर्व पर मैं तुम्हें ऐसा ही आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूं।
परम पुज्य सद्गुरूदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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