इस वाक्य की अपनी गहनता है, जिसे समझना आवश्यक है। क्योंकि वह व्यक्ति जिसमें उसकी शक्ति उतर जाती है, वह दोहरी ऊर्जा से आप्लावित हो जाता है, युक्त हो जाता है। उसमें केवल राम ही नहीं उतरते, सीता भी उतर आती है। राम और सीता प्रतीक हैं गहनता की और ये प्रतीक बड़े गहन इसलिए हैं, क्योंकि यदि जीवन में केवल राम ही उतरे तो व्यक्ति अधूरा होगा, आधा होगा।
उसमें पुरुष की शक्ति तो आ जायेगी, लेकिन पुरुष की शक्ति अधूरी हो कर विध्वंसक हो जाती है, यदि उसमें स्त्री की महिमा न उतरे, स्त्री का सौम्य रूप न उतरे। इसलिए सीता के बिना राम अधूरे हैं। राम की मूर्ति को अकेली खड़े करके देखना, बहुत अधूरे लगेंगे। राम-सीता के साथ खड़े हों तो ही पूरे लगते हैं। क्योंकि स्त्रैण शक्ति एक दूसरा आयाम है शक्ति का, जो संतुलन देता है। पुरुष की शक्ति अकेली हो तो केवल असुरमय स्थितियां उत्पन्न होंगी, जो केवल विध्वंसमय की क्रिया से युक्त होते हैं। जो जीवन को संतुलन देती है, वह स्त्रैण शक्ति है, वह मां है, वह जन्मदात्री है। वह जीवन के मूल स्रोत से जुड़ी है, मूल भाव से जुड़ाव ही वृद्धि प्रदान करती है, साथ ही स्त्री सौम्य भी है, उसकी शक्ति करुणा है, ममता है। जहां स्त्रैण शक्ति का भाव नहीं होता, वहां ममता, करूणा, सौम्यता आ नहीं सकती।
इसलिए जहां सूरज-चांद मिल जाते हैं, जहां प्रगाढ़ता और सौम्यता मिलते हैं, जहां ऊष्मा-ऊर्जा स्वरूप प्रचण्डता व शीतलता आनन्द स्वरूप विनम्रता का मिलन हो, वहीं राम-सीता हैं। इसीलिये आर्य संस्कृति में स्त्रैण शक्ति की महिमा के वर्णन के साथ स्त्रैण शक्ति को पूर्ण रूप से अपनाया गया है। स्त्री को भी पुरुष के समान रखा है। इसीलिए स्त्री भाव को भू-वसुधा, कीर्ति, शांति, तुष्टि, पुष्टि, लक्ष्मी, आद्या आदि अनेक-अनेक स्वरूपों में पूजनीया माना गया है।
जब कोई व्यक्ति परम स्थिति प्राप्त कर लेता है, तब उसमें स्त्री ओर पुरुष दोनों का मिलन हो जाता है। वह प्रचण्ड होता है और सौम्य भी। वहां सूर्य और चांद दोनों मिल जाते हैं। वहां उत्ताप भी होता है और गहन शीतलता भी होती है और जब ये दोनों रूप संगृहीत हो जाते हैं, एक हो जाते हैं, इंटिग्रेटेड हो जाते हैं, तो परम स्थिति की प्राप्ति होती है, वह परम स्थिति जो अवस्था है, स्त्री-पुरुष के पार का और यह परम स्थिति तब आती है, जब दो शक्तियों का पूर्ण मिलन हो जाये।
इसलिए नानक का कहना है कि राम अकेले काफी नहीं हैं। राम स्वयं में पूर्ण हैं लेकिन उनमें व उनकी महिमा में सीता भी समायी हुई है। तिन महि राम रहिआ भरपूर तिथै सीतो सीता महिमा माहि। ताके रूप न कथने जाहि और फिर जहां राम और सीता दोनों हों, उसके बारे में कुछ कहना, उसका वर्णन करना असंभव है। क्योंकि स्त्री की चर्चा हो सकती है, पुरुष की चर्चा हो सकती है, जहां स्त्री-पुरुष दोनों हों, जहां राम और सीता का मिलन हो गया हो वहां चर्चा मुश्किल हो जाती है।
क्योंकि विपरीत गुण मिल गये व दोनों एक समान हो गये। और सनातन धर्म की यही विशेषता है कि वह राम और सीता की वंदना एक साथ करता है। कृष्ण और राधा की एक साथ करता है। गौरी-शंकर की वंदना करता है बल्कि जब भी वह नाम लेता है, तो पहले सीता कहता है- सीताराम, राधाकृष्ण, गौरी-शंकर। क्यों? क्योंकि स्त्री जननी है, वह प्रथम है।
पुरुष द्वितीय है, प्रचण्डता द्वितीय है, करुणा प्रथम है और जब करुणा में आविष्टित प्रचण्डता होती है तब उसका सौन्दर्य अद्वितीय होता है, जब ममता में छिपी हुई ऊर्जा होती है तब कैसे वर्णन करोगे ठण्डी आग का? ठण्डी आग का वर्णन कैसे हो सकता है, वह आग भी है और ठण्डा भी, इसलिए जहां विपरीत मिल जाते हों, वहां वर्णन असंभव हो जाता है।
सांसारिक जीवन में यही नियम सर्वाधिक सफल है, जब दो विपरीत पूर्णतया एक हो जाते हैं, एक रूप हो जाते हैं, तो सृजन की स्थितियां, वृद्धि की क्रियाओं का जन्म होता है और आपने संसार में भी देखा होगा, पुरुष अधूरा है बिना स्त्री के, किसी पुरुष को देखो जिसकी स्त्री ना हो, पत्नी ना हो, बिलकुल अस्त-व्यस्त दिखेगा आपको, उसके जीवन में कोई रौनक, चहल-पहल ना होगी, नीरसता, क्रूरता से भरा होगा वह, संवेदनाओं की भीषण कमी होगी।
यह जो कमी है, इसी स्त्रैण शक्ति की कमी है, जो पुरुष को पूर्ण बनाती है, सौम्य, कारुण्य, प्रेममय बनाती है। संसार में और संसार के बाद भी स्त्रैण शक्ति की अपनी एक विशेष महत्ता है। यह किस रूप में व्यक्त हो रही है, यह कोई विषय नहीं हैं। विषय तो यह है कि आप शक्ति से संयुक्त हो, पुरुष और स्त्री दोनों शक्तियों का पूर्णता से मिलन हो और इसके माध्यम से जीवन की परम स्थिति की प्राप्ति हो सके।
इसीलिए ईश्वरीय आराधना में पुरुष के साथ-साथ स्त्री को भी देवी स्वरूप में वंदना की जाती है, जिस तरह से देवताओं की शक्ति से अपने आपको ऊर्जावान बनाते हैं, ठीक उसी तरह से देवियों की शक्ति से उस ऊर्जा में गति का भाव आता है। मानव जीवन की यात्रा का मूल मंतव्य चरितार्थ हो सके। आप सभी शक्ति के इन नव दिवसों अर्थात् पूर्ण शक्तिमय महा नवरात्रि को पूर्णता से अपने जीवन में उतार सकें साधनाओं के द्वारा जीवन में सभी साधन प्राप्त कर जीवन को शक्तिमय, ऊर्जामय, पूर्णमय बना सकें यही शुभकामनायें देता हूं—!
शक्ति के दोनों स्वरूप पुरुष व स्त्री का मिलन होना ही परम पूर्णता की स्थिति है प्रत्येक पुरुष की या आप यह समझें कि प्रत्येक जीवात्मा की अपनी एक शक्ति होती है और जब वह शक्ति उस जीवात्मा को मिल जाती है तब ही पूर्णता का बोधा होता है और वह अनेक दिव्य क्रियाओं के माध्यम से शक्ति से एकाकार होने और अभिन्न बन जाने की चेष्टा करना प्रारम्भ करता है। मानव जीवन का मूल सारांश शक्तिमय बनने का एकमात्र उद्देश्य है।
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