वर्तमान में श्राद्ध का, पितृ पक्ष का अर्थ मात्र इतना ही लगा लिया गया है कि ये वर्ष के कुछ दिन होते हैं और तब कोई मंगल कार्य सम्पन्न नहीं किया जा सकता है और मृत आत्मायें इस धरा पर उतर आती हैं, जो इसका बहुत ही सीमित अर्थ है। यह इतनी सामान्य घटना नहीं है वरन् एक गूढ़ रहस्य है।
यह सृष्टि व्यक्ति की आंखों के समक्ष दिखाई पड़ती है, लेकिन जितनी दिखाई देती है सृष्टि का अस्तित्व केवल उतना ही नहीं है। सूक्ष्म जगत में अनेकानेक भेद छुपे हैं, जिन्हें तर्क और बुद्धि से नहीं, अपितु चेतना, साधना और प्रज्ञा से ही अनुभव किया जा सकता है और पितृवर्ग का सम्पूर्ण क्रिया-कलाप इसी प्रकार की घटना है। यदि जन्म के ताने-बाने इतने सूक्ष्म न होते, व्यक्ति मृत्यु के उपरान्त भी अपने पूर्व जन्म और परिवार से न जुड़ा रह जाता तो ऐसा क्यों होता है कि कोई व्यक्ति सामान्य से घर में जन्म लेकर भी संतुष्ट रहता है तथा उन्नति का जीवन प्राप्त कर लेता है और वहीं दूसरी ओर एक सम्पन्न वर्ग में जन्म लिया व्यक्ति पूरे-पूरे जीवन भर हताश एवं निराशा से उलझा-उलझा जीवन ही जीता रहता है। इन सभी जटिल बातों के पीछे ऐसी ही अनेक बातें छिपी हैं, जहां कि कहीं पर किसी व्यक्ति की जीवात्मा का पोषण उसके वंशजों द्वारा होता है और कहीं नहीं। यदि इस बात को आज अनुभव किया जा सके, तो पुनः एक स्वस्थ परम्परा को जीवित किया जा सकता है और बहुत कुछ ऐसा घटित हो सकता है जो प्रकट अथवा भौतिक रूप से दिखाई न पड़े किन्तु उसका अस्तित्व तो होगा ही।
हाल ही में घटित दिल्ली की घटना आप सभी ने समाचारों के माध्यम से पढ़ी, सुनी, देखी होगी। क्या हमारा मस्तिष्क या विज्ञान उन तथ्यों को परिभाषित कर सकता है? अनेक रहस्य उस परिवार के साथ ही समाप्त हो गए, जो शायद वास्तविक रूप से कभी परभिाषित ना हो पाये। लेकिन कुछ तो ऐसा था, कोई ऐसी अदृश्य क्रिया थी, कहीं ना कहीं किसी आलौकिक शक्ति का प्रभाव तो रहा ही होगा, कुछ तो ऐसा होगा जो लौकिक दृष्टि से समझ नहीं आ रहा है और वास्तव में आलौकिक क्रियायें, लौकिक दृष्टि से समझ में आती भी नहीं, इसके लिए साधना का तप, ज्ञान, प्रज्ञा और वह सूक्ष्म दृष्टि होनी चाहिए जो एक चेतनावान साधक के पास ही होती है।
ऐसी अदृश्य शक्तियां अधिक कुपित होने पर छल, झूठ, प्रपंच का भी सहारा लेती हैं और जीवन के लिए काल बन जाती हैं। प्रेत योनि में गया हुआ व्यक्ति बुद्धि स्तम्भन का एक्सपर्ट होता है, यह क्रिया उसे स्वतः ही आ जाती है, किसी को सिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ती और अनेक ऐसे रहस्य होते हैं, जो तर्क, साक्ष्य, बुद्धि के तार्किक विषयों के लिए नहीं है।
पितरों को संतुष्ट करना मानव जीवन के विकास, सुरक्षा, संस्कार और वृद्धि के लिए बहुत ही आवश्यक है। इसे नजर अंदाज कर व्यक्ति स्वयं की ही हानि कर रहा है। यह उतनी सामान्य क्रिया नहीं है जितना कि आज का मानव समझता है। यह विषय अलग है कि उनके प्रभावों से आज हम पीडि़त नहीं हैं, लेकिन यदि हम श्राद्ध कर्म की क्रियाओं से भागते रहे, तो हमारे लिए या हमारे आने वाले वंश के लिए घोर संकट का विषय होगा।
हमें इसकी गंभीरता को समझना चाहिए और एक पारम्परिक विधान के रूप में नहीं बल्कि साधनात्मक ढंग से पितृ कर्म के कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिए। साधनात्मक ढंग से इसलिए करना महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारे पितर कब से अतृप्त हैं या हमारे कुल में ऐसा कौन सा मृत प्राणी है जो अभी तक प्रेत योनि में भटक रहा है, सभी को मुक्ति मिली या नहीं इस विषय पर हम कुछ जानते नहीं, इसलिए सर्वपितृ की क्रिया सम्पन्न की जाती है। पितृ ऋण ही कुल ऋण की संज्ञा है अर्थात् आप उस कुल परम्परा से जुड़े हो, यानि आपके कुल में जितने भी मृत प्राणी हुए हैं, उन सभी का योगदान रहा है, आपके जीवन में तब आपको यह मानव देह मिली है।
हमारे पितृ देव भी हो सकते है और प्रेत भी। यदि उनकी संतुष्टि का कर्म पूर्ण कर लिया जाए, तो वही शुभाशीष की वर्षा करते हैं और यदि वे असंतुष्ट हुए, तो रोग, कष्ट, बाधा, पीड़ा, समस्या आदि रूप में सामने आते हैं। यह हमारी क्रियाओं पर निर्भर है कि हम उन्हें किस रूप में अनुभव करना चाहते हैं। साथ ही अकाल मृत्यु प्राप्त व्यक्ति निश्चित रूप से प्रेत योनि में जाता है, इसमें कोई संशय नहीं, ऐसा हो सकता है कि उसके कर्म बहुत अच्छे रहें हों तो समय अवधि कम हो जाए। प्रेत योनि में गया व्यक्ति एक समय बाद यदि वह आगे के कर्मों में प्रविष्ट ना हो पाया हो तो, सर्वाधिक कष्ट देता है और यह स्थिति अधिक भयावाह तब हो जाती है, जब उसकी अनेक इच्छाएं अधूरी रहीं हों।
अकाल मृत्यु प्राप्त व्यक्ति का पूरी विधि-विधान से श्राद्धकर्म करना ही चाहिए, क्योंकि ऐसी जीवात्मायें कुछ समय पश्चात् अनैतिक क्रियाओं के द्वारा घोर कष्ट, यातनाये देना प्रारम्भ कर देती हैं, संतान में संस्कार का अभाव, धन-धान्य में न्यूनता, रोग, जड़ता, अनेक प्रकार की समस्यायें, पुत्र-पुत्रियों के विवाह में बाधा, अपयश आदि के रूप में प्राप्त होता है।
सारभूत रूप में यही बताने का प्रयास है कि प्रत्येक साधक-साधिका अपने पितरों के प्रति, अकाल मृत्यु प्राप्त अपने स्वजनों के प्रति सम्मान का भाव प्रेषित करें, उनकी संतुष्टि के लिए, वे आगे जीवन के कर्मों में प्रवेश कर सकें, इस हेतु विशिष्ट साधनात्मक क्रियाओं को सम्पन्न करें, इससे वे स्वयं के साथ ही साथ आने वाली पीढि़यों के लिए भी अनुकूल वातावरण का निर्माण कर सकेंगे।
पितृपक्ष में तर्पण, श्राद्ध करना केवल शास्त्रीय परम्परा या विधान ही नहीं व्यक्ति के जीवन का अनिवार्य कर्म है, सुख-समृद्धि, सौभाग्य, आयु वृद्धि, वंश वृद्धि आदि के लिए आवश्यक क्रिया है, सनातन संस्कृति में प्रत्येक कर्म की अपनी महत्ता है, जिसका प्रभाव हमारे जीवन में निश्चित रूप से पड़ता ही है, पितरों के श्राद्ध से केवल स्वयं का ही नहीं आने वाले वंश का भी कल्याण निहित होता है, साथ ही व्यक्ति के भावी जीवन के लिए सुस्थितियां बनती हैं।
यह सही है कि आत्मा अविनाशी होती है, पर आत्मा का निवास देह में होता है और मनुष्य जन्म में आत्मा जिस देह को धारण करती है, उस देह के साथ-साथ आस-पास के वातावरण, परिवार, सगे-सम्बन्धियों, संतान इत्यादि से लगाव होना स्वभाविक है। मनुष्य की कामनाएं, देह की कामना के साथ-साथ, मन की कामनाएं भी होती है क्योंकि मन, प्राण, आत्मा ही देह को संचालित करते हैं। मूल संचालक तो मन, प्राण, आत्मा ही है।
व्यक्ति के दिवंगत पूर्वज जो होते हैं, उनकी भी मनोदशा ऐसी ही होती है, वे अपने स्नेहीजन के प्रति आसक्त होते हैं, उनसे उनकी अनेक अपेक्षाएं, इच्छाएं जुड़ी होती हैं। जिनकी पूर्ति ना होने पर वे अतृप्त होकर भटकते रहते हैं, वैसे भी शास्त्रीय विधान में माता-पिता के ऋण का उल्लेख है, जिनके प्रति जन्म लेने वाले प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वे उनकी क्षुधा शांत करने का उपाय करें। शास्त्र अनुसार मनुष्य मृत्योपरांत अपने संतान से ही एकमात्र अपेक्षा रखता है कि उनकी संतान उनके दिव्य लोक का मार्गं प्रशस्त करे, उनके आगे के मार्गों में सहायक बने और ऐसा होने पर देवत्व रूप में शुभाशीष आशीष की वर्षा करते हैं, जिसके फलस्वरूप सुख-समृद्धि, धन-धान्य, संतान सुख और निरन्तर अभिवृद्धि का भाव बना रहता है।
साधनात्मक ढंग से तर्पण करने का तात्पर्य यही होता है कि साधनात्मक ऊर्जा द्वारा दिवंगत माता-पिता के भावी जीवन में आ रही रूकावटों व अवरोधों को समाप्त किया जा सके, सम्पूर्ण सृष्टि में शक्ति का ही नियम चलता है और प्रत्येक क्रिया के लिए एक ऊष्मा, एक ऊर्जा शक्ति की आवश्यकता होती है जो साधनाओं के माध्यम से, शक्तिपात दीक्षा के माध्यम से ही संभव हो पाता है। इस साधना को पितृपक्ष कल्प के किसी भी दिवस अथवा महालय अमावस्या पर सम्पन्न कर सकते हैं, प्रातः 7 बजे स्नानादि से निवृत्त होकर अपने पूजा स्थान में बैठ जाये, सद्गुरुदेव का पंचोपचार पूजन सम्पन्न कर सामने किसी ताम्रपात्र में मातृ-पितृ देवत्व विग्रह स्थापित कर अष्टगंध से तिलक करें, धूप, दीप प्रज्ज्वलित करें और स्वादिष्ट भोजन का श्रद्धा पूर्वक भोग लगायें, यदि माता-पिता का चित्र हो तो उसे सामने रख दक्षिणा अर्पित करें, पश्चात् निम्न मंत्र का 11 माला मंत्र जप ऋण मुक्ति माला से करें।
जप पश्चात् पक्षी, श्वान, गाय को भोजन व जल प्रदान करें, फिर सभी सामग्री किसी पवित्र नदी में प्रवाहित कर दें।
कालचक्र के आगे विवश होकर हमारे किसी आत्मीय को असमय मृत्यु प्राप्त हो जाना जितना कष्टप्रद परिवार के सदस्यों के लिए होता है, उससे कहीं अधिक कष्टप्रद, असहाय, दुखी मृत्योपरान्त हमारा वह आत्मीय होता है। मृत्यु केवल शारीरिक ढांचे की होती है, आत्मीय सम्बन्ध मृत्यु पश्चात् भी जीवित रहते हैं। इसलिए वह आत्मीय अपने स्नेहीजनों के आस-पास भटकता रहता है। चूंकि अकाल मृत्यु में तत्काल मुक्ति अथवा दिव्य लोक की प्राप्ति नहीं होती, यही कारण है कि वह जीवात्मा अनेक कष्टो, दुखों को सहते हुए प्रत्येक क्षण नारकीय समय व्यतीत करता हुआ भटकती रहती है और वह अत्यधिक क्षुब्ध, परेशान, दुखी होने पर अपने ही लोगों को कष्ट पहुंचाने लगती है।
जिससे ऐसे परिवार में जहां किसी व्यक्ति की असमय मृत्यु हुई हो, वहां का वातावरण असामान्य सी दिखता है, एक तनावपूर्ण माहौल, कलह-क्लेश, ईर्ष्या, अधोगति, बाधायें, अवरोध, कठिनाईया, रोग, धनहीनता, असफलता और अजीबो-गरीब घटनाओं का घटते रहना जैसी अनेक क्रियायें देखने, सुनने को मिलती है। इसका मूल सम्बन्ध उस जीवात्मा की मुक्ति से होता है, जिसमें झांड-फूंक आदि की क्रियाएं किसी भी रूप में पूर्णता सहायक नहीं होती हैं, क्योंकि ऐसी क्रियाओं में हो सकता है कुछ समय के लिए बंधन आदि के द्वरा अनुकूलता मिल भी जाए, लेकिन इसका प्रभाव एक लघु समय-सीमा तक ही सीमित होता है, जिसके उपरान्त भटकती आत्मायें रूष्ट होकर और अधिक उपद्रव करती हैं। इसलिए ऐसी क्रियाओं का सटीक व दीर्घकालिक समाधान करना आवश्यक है, जिसमें उस जीवात्मा के साथ-साथ स्वयं का भी कल्याण हो और जीवन सभी दृष्टि से सुखद, सम्पन्न बन सके।
30 सितम्बर अथवा महालय अमावस्या दिवस पर प्रातः 7 बजे स्नानादि से निवृत्त होकर अपने पूजा स्थान में पूर्व की ओर मुंह कर बैठ जाएं, अपने सामने सद्गुरुदेव का चित्र स्थापित करें और पास में ही मृत व्यक्ति का चित्र भी रख दें, गणपति ध्यान के बाद सद्गुरुदेव का पंचोपचार पूजन करें। फिर अपनी दाहिने हाथ में पितृदोष निवारण यंत्र व अकाल मृत्यु शांति महाकाल गुटिका रखकर जल छिड़के और बाएं हाथ से ढंककर मन ही मन उनकी शांति के लिए संकल्प लें। पश्चात् यंत्र व गुटिका सामने पात्र में रखकर चंदन, अक्षत अर्पित कर दीप प्रज्ज्वलित करें, फिर निम्न मंत्र का 11 माला मंत्र जप सर्वदोष मुक्ति माला से करें।
जप पश्चात् मृत व्यक्ति के चित्र पर जल छिड़के व सभी सामग्री किसी पवित्र नदी में प्रवाहित कर दें।
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