हम बार-बार कहते रहे है कि जीवन का मतलब सांसों का आना-जाना नहीं होता। जब तक जिंदगी में उद्देश्य नहीं होता, नजरिया साथ नहीं चलता, तब तक जीवन का कोई अर्थ नहीं बनता। वास्तव में जीवन क्या है, इसे जानने के लिए कृष्ण को समझना होगा। आप कहेंगे कि कृष्ण देवता हैं, उनके बारे में क्या कहा जाये! नहीं, ऐसा मान लेना किसी एक संदर्भ में तो सही हो सकता है, लेकिन गोविंद की पूर्ण व्याख्या यह नहीं है।
कृष्ण संपूर्णता का नाम हैं। कृष्ण मनुष्य हैं, देवता हैं, स्पष्ट हैं, रहस्य हैं, योगिराज हैं, गृहस्थ हैं, संत हैं, योद्धा हैं, चिंतक हैं, संन्यासी हैं, लिप्त हैं, निर्लिप्त हैं, शिशु हैं तो संकट में हैं। किशोर हैं तो युद्ध कर रहे हैं। युवा हैं तो महाभारत की दिशा तय कर रहे हैं। देव होने के बावजूद चमत्कार नहीं करते। सच तो यह है कि कृष्ण केवल कर्म करते हैं। कर्म पर ही विश्वास करते हैं और इसी की सीख देते हैं। जीवन की वास्तविक परिभाषा समझने के लिये कृष्ण भाव को समझने और उसमें अंतर्निहित संदेश को कार्य-व्यवहार में उतारने की अनिवार्यता है।
एक शिशु, जिसके जन्म से पहले उसकी हत्या की योजना बन रही हो, जन्म लेने के तुरंत बाद उसे माता-पिता से दूर कर दिया गया। पलना-बढ़ना एक ऐसे घर में, जहां कोई रक्त-संबंध नहीं है। बचपन में ही कितने ही षड़यंत्रों से जूझना पड़ा। एक तरह से कृष्ण की पूरा व्यक्तित्व सत्ताओं से युद्ध करते हुये ही सुदृढ़ होती है। कंस से लड़ाई इतनी आसान नहीं थी। पहले उसके भेजे दुष्ट आक्रमणकारियों से युद्ध, फिर इंद्र की सत्ता को चुनौती और अंततः कंस का संहार। कृष्ण के पूरे व्यक्तित्व की एक खास बात को हम बार-बार देखते हैं, वह यह है कि वे माया-मोह के बंधनों से अलग हैं। कंस उनका सम्बन्धी था और महाभारत के समय कौरव-पांडव दोनों उनके निकट के रिश्ते के थे, लेकिन कृष्ण यह जानते हैं कि धर्म की रक्षा करने के लिये सम्बन्धो के जाल में फंसने की जगह कर्तव्य की पुकार सुनना आवश्यक है।
अगर इसी तथ्य को अपने जीवन में उतारना हो तो संदेश स्पष्ट है- किसी भी गलत बात को स्वीकार न करें। भले ही वह बात, आदेश या नीति बड़ी से बड़ी सत्ता की ओर से क्यों न आई हो! दूसरा संदेश यह है कि अपने कर्तव्य के आड़े कितना ही निकट का व्यक्ति क्यों न हो, उसे राह का रोड़ा न बनने दें। यहां व्यक्ति का मतलब दूसरे का होना ही आवश्यक नहीं है। यदि अपने मन का अहंकार भी अच्छे काम में बाधा बन रहा हो तो उसका भी शमन होना चाहिये।
अक्सर लोग कृष्ण के बारे में कहते हैं कि वे बहुत-सी पत्नियों के पति और एक बड़े कुटुंब के अगुआ थे। बहुधा यह बात आलोचना की तरह कही जाती है, लेकिन एक विशिष्ट अर्थ को ग्रहण नहीं किया जाता। इसमें कृष्ण का नेतृत्व, उनके अंदर निहित संतुलन की शक्ति को ही रेखांकित किया जाना चाहिये। हम योगी, भोक्ता, नेता, सेनानी, विद्वान, चिंतक और निर्णायक होने के गुण अगर व्यक्तित्व में समाहित कर पायें तो न सिर्फ संसार को जी सकेंगे, बल्कि जीवन के होने का मतलब भी समझ सकेंगे। ऐसा होने पर ही जीवन का उद्देश्य निर्धारित होगा और इसकी अर्थवत्ता भी।
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