जब लक्ष्मी की सम्पूर्णता को अपने जीवन में समाहित करने की बात आती है, तो वहां स्वतः ही अष्ट लक्ष्मी का नाम उभरकर सामने आ जाता है। अष्ट लक्ष्मी की आराधना अपने आप में इस प्रकार से सम्पूर्णता का पर्याय बन चुकी है कि प्रत्येक चैतन्य साधक अपने जीवन में इनकी चेतना को स्थायी रूप से प्राप्त करना चाहता है। अष्ट लक्ष्मी का रहस्य केवल यहीं तक सीमित नहीं है। अष्ट लक्ष्मी अपने-आप में आठ प्रकार के ऐश्वर्यों को तो समाहित करती ही है, साथ ही ये लक्ष्मी के आठ अत्यन्त प्रखर स्वरूपों- द्विभुजा लक्ष्मी, गज लक्ष्मी, महालक्ष्मी, श्री देवी, वीर लक्ष्मी, द्विभुजा वीर लक्ष्मी, अष्ट भुजा वीर लक्ष्मी एवं प्रसन्न लक्ष्मी के सम्मिलित स्वरूपों की साधना भी है, जिनमें से प्रत्येक स्वरूप का विशेष वरदायक प्रभाव भी है, जिस प्रकार नवदुर्गा साधना के अन्तर्गत प्रत्येक दुर्गा-स्वरूप का एक प्रधन व विशिष्ट वरदायक स्वरूप होता है।
अष्ट लक्ष्मी के भी ऐसे ही विशिष्ट स्वरूप हैं, आगे इन्हीं स्वरूपों का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है-
भगवती लक्ष्मी का यह स्वरूप अपने-आप में पूर्ण रूप से विष्णुमय स्वरूप है तथा इनका इस रूप में ध्यान करने से, इस रूप में आराधना करने से जहां साधक को एक ओर पूर्ण गृहस्थ- सुख, शांति एवं सौभाग्य प्राप्त होता है, वहीं उसे ऐसी पात्रता भी प्राप्त हो जाती है कि वह स्वयं विष्णु के समान पालनकर्ता एवं दुःखहर्ता बनने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। प्रत्येक सद्गृहस्थ अपने सीमित स्वरूप में अपने परिवार एवं कुटुम्ब का पालन करने के रूप में भगवान विष्णु का ही तो कार्य करता है, अतः उसे भगवती लक्ष्मी के इस स्वरूप की साधना द्वारा जो शक्ति एवं विष्णुत्व प्राप्त होता है, उससे उसका व्यक्तिगत जीवन संवरने के साथ-साथ वह परिवार का भी हित साधन करता है।
गज लक्ष्मी स्वरूप में भगवती लक्ष्मी लाल वस्त्र धारण कर, कमल के आसन पर विराजमान हो, एक हाथ में कमल, द्वितीय में अमृत कलश, तृतीय हस्त में बेल तथा चुतुर्थ में शंख धारण करने वाली वर्णित की गयी हैं। जिनके दोनों ओर दो गजराज उनका अभिषेक कर रहे हैं। भगवती लक्ष्मी का यह दिव्य स्वरूप वास्तव में प्रचुर धनदात्री एवं आकस्मिक धन प्रदात्री देवी का स्वरूप है। गज लक्ष्मी स्वरूप के द्वारा जीवन में सदैव आवश्यकता से अधिक धन प्राप्त होता ही रहता है।
अष्ट लक्ष्मी के अन्तर्गत तृतीय लक्ष्मी महालक्ष्मी है, जिनकी प्रत्येक साधक किसी न किसी रूप में साधना, ध्यान अथवा कामना करता ही है। महालक्ष्मी का अर्थ है पूर्णता, जो विभिन्न प्रकार के सुखों एवं ऐश्वर्य से घटित होता है। गृहस्थ- सुख, पत्नी-सुख, पुत्र-पौत्रादि-सुख, वाहन-सुख, अनुचर- सुख, स्वास्थ्य-सुख इत्यादि पक्षों की सिद्ध सफल चिंतन का ही दूसरा नाम है महालक्ष्मी आराधना। इसी कारण उन्हें अष्ट लक्ष्मी साधना के मध्य एक विशेष स्थान प्राप्त है।
जैसा कि भगवती लक्ष्मी की इस संज्ञा से ही स्पष्ट है कि ये जीवन में ‘श्री’ दिलाने में समर्थ देवी हैं। केवल भरण पोषण के लिये पर्याप्त धन अर्जित कर लेने अथवा अपने परिवार का भली-भांति पालन पोषण कर लेने से ही जीवन में श्री का आगमन संभव नहीं होता, वरन् व्यक्ति की समाज में क्या प्रतिष्ठा है, उसके पास स्थायी सम्पत्ति, स्वयं का आवास इत्यादि अचल सम्पत्ति किस अनुपात में उपस्थित है, जिसकी जीवन में प्राप्ति एवं संभावना को यही सुनिश्चित करने में समर्थ देवी हैं।
वीर लक्ष्मी का स्वरूप अपने-आप में पूर्ण रूप से अभय एवं वर को प्रदान करने वाला है तथा जब भगवती लक्ष्मी द्वारा वर एवं अभय प्राप्त होने की बात आती है, तो उसका सीधा सा तात्पर्य होता है कि जीवन में किसी भी प्रकार का अभाव अथवा दरिद्रता रह ही नहीं सकती। एक प्रकार से जीवन के समस्त अशुभ, अंधकार, मलिनता, दैन्य एवं हीनभावना को जड़ मूल से समाप्त कर देने वाली देवी वीर लक्ष्मी हैं।
भगवती महालक्ष्मी का उपरोक्त स्वरूप जहां चतुर्भुजा है वहीं यह स्वरूप द्विभुजा है एवं इस स्वरूप में ये, विशेष रूप से जीवन के गृहस्थ पक्षों के प्रति वरदायक एवं अभयदायक हैं, जिससे साधक के जीवन में जहां एक ओर गृह कलह आदि का अंत होता है, वहीं अनेक प्रकार से पारिवारिक उन्नति, श्री सम्पदा का आगमन, संतान की उन्नति तथा धन-धान्य में पूर्णता की स्थिति निर्मित होने लगती है।
वस्तुतः वीर लक्ष्मी का तात्पर्य है, जहां लक्ष्मी केवल धन प्रदात्री न होकर अन्य प्रकार से शक्तिमयता द्वारा साधक के जीवन को संवारने में तत्पर हों। वीर लक्ष्मी, द्विभुजा वीर लक्ष्मी के उपरान्त अष्ट भुजा वीर लक्ष्मी का भी यही तात्पर्य है। अपनी अष्ट भुजाओं में विभिन्न आभूषण धारण कर ये इस स्वरूप में साधक के जीवन में उन सभी परिस्थितियों का संहार करने में तत्पर रहती हैं, जिनसे दरिद्रता अथवा अभाव जैसी स्थिति बनी रहती है। मुकदमेबाजी, रोग, व्यसन, आकस्मिक घटना जैसी समस्त स्थितियों का नाश अष्ट लक्ष्मी के इसी स्वरूप द्वारा साधक के जीवन में संभव होता है।
जीवन में पूर्ण मानसिक सुख, कान्ति, ओज, तेज, बल, साहस, सौन्दर्य, हास्य, मनोविनोद, मित्र-सुख एवं चारों पुरूषार्थों की जननी प्रसन्न लक्ष्मी ही हैं, जो अष्ट लक्ष्मियों में से शेष लक्ष्मियों द्वारा प्रदत्त स्थिति को पूर्णता प्रदान करने में समर्थ हैं एवं जिससे साधक अपने जीवन में धन सम्पदा का पूर्ण सुख अनुभव करते हुये एक विशेष प्रकार की तृप्ति व चैतन्यता अनुभव करता रहता है।
इस प्रकार लक्ष्मी के इन सम्मिलित अष्ट स्वरूपों का ही दूसरा नाम है अष्ट लक्ष्मी, जिसके द्वारा गृहस्थ-जीवन का कोई भी पक्ष अछूता नहीं रह जाता।
शिष्य की सारी भागदौड़ अपने गुरु के चरणों में ही जाकर पूर्ण होती है। गुरु शिष्य को ज्ञान प्रदान करते हैं, शिष्य के अज्ञान रूपी अंधकार को समाप्त करते हैं, उसे जीवन का धैर्य एवं साहस भी प्रदान करते हैं, समय-समय पर उसका मार्गदर्शन करते हैं, परन्तु प्रत्येक शिष्य के मन में एक इच्छा अवश्य रहती है कि उसे जीवन में दुःखों का सामना नहीं करना पड़े और आर्थिक दृष्टि से श्रेष्ठता प्राप्त हो। इसी आर्थिक उन्नति के लिये वह विभिन्न साधनायें करता है और मन ही मन निरन्तर प्रार्थना करता है कि उसके जीवन में अभाव नहीं रहे। अर्थ अर्थात् धन अपने सम्पूर्ण स्वरूपों में उसके जीवन में प्रकाशित हो।
सूर्य ग्रहण के तेजस्वी चेतनामय काल में ऐसी दिव्य ओजस्वी दीक्षा ग्रहण कर निश्चय ही आप जीवन में मुख्य अष्ट लक्ष्मियों की चेतना से युक्त होंगे। इस अक्षुण्ण फ़लदायी अवसर पर ऐसी साधनात्मक क्रियायें जीवन में धन-धान्य की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जिससे साधक के जीवन में धन रूपी अभाव का आगमन चिरकाल तक संभव नहीं हो पाता। साथ ही कार्य व्यापार वृद्धि, प्रमोशन आदि कार्य में उच्च स्तर की सफ़लता प्राप्ति होती है।
सांसारिक जीवन में धन की अनिवार्यता उसी तरह हैं, जिस तरह जीवन जीने के लिये ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। बिना धन के जीवन निरीह और विवशता से भरा होता है। इस हेतु आप को अवश्य ही सूर्य ग्रहण के दिव्य अवसर पर अष्ट लक्ष्मी दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए जिससे जीवन सर्व कामना युक्त व सभी सुखों से आप्लावित बन सके।
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