इस विशेष दीक्षा द्वारा साधक कहीं पर हो, इस दीक्षा के फलस्वरूप पूज्यपाद सद्गुरुदेव अवश्य ही साधक के समक्ष उपस्थित होते है, और इस उपस्थिति को अनेक प्रकार से अनुभव किया जाता है, कभी दिव्य अष्टगंध के रूप में, कभी मन में आई आकस्मिक प्रफुल्लता से, कभी बिम्बात्मक रूप में दर्शन द्वारा, और कभी तो प्रत्यक्ष रूप में भी। यह दीक्षा सद्गुरुदेव के चरणानुरागियों के लिए अमृतफल है। इस दीक्षा द्वारा सद्गुरुदेव की उपस्थिति का एहसास साधक को विशेष अवसरों पर मिलता रहता है।
जीवन का वह श्रेष्ठ क्षण होता है, जब शिष्य या साधक के अन्दर चिन्तन बनता है कि अब मुझे इस मल-मूत्र से भरे जीवन में नहीं जीना है और जब उसे यह बोध होता है, तब वह गुरु चरणों में उपस्थित होकर अपने तन, मन, वाणी, आत्मा और बुद्धि की पूर्ण शुद्धि हेतु प्रार्थना करता है या दूसरे शब्दों में वह निखिलेश्वरानन्द आत्म चैतन्य दीक्षा प्राप्त करने की विनती करता है। गुरु के चरणों में दो प्रकार के लोग उपस्थित होते हैं- साधक और शिष्य। साधक के लिए कोई बन्धन नहीं है, वह जो कार्य करता है, एक प्रकार से अंधेरे में हाथ पांव मारने के समान है, वह पुस्तकों से लिखित क्रियाओं को सम्पन्न कर अर्चना, ध्यानादि करता है, भले ही वह क्रिया उसके लिए अनुकूल हो या नहीं हो। इसके विपरित शिष्य वह है, जो कार्य, मन, वाणी और धन से गुरु सेवा के लिए तत्पर हो, गुरु आज्ञा के लिए समर्पित हो, विद्या-जाति आदि के अभिमान से परे हो। जब ऐसा होने लगता है, तब वह शिष्य बनने लगता है, उसके आत्मचितंन में शाश्वत गुरु तत्व स्थापन सम्भव हो पाता है।
यह दीक्षा शिष्य के जीवन की कोई सामान्य घटना नहीं होती, यह तो उसके साधनात्मक जीवन का एक टर्निंग प्वाइंट होता है, एक सुनहरा मोड़ जिसके बाद फिर उसके दोष, उसके विकार उसकी सफलता में आड़े नहीं आते। परन्तु इसके लिए यह भी आवश्यक है, कि दीक्षा बहुत ही विनीत भाव से ग्रहण की जाये इस प्रकार की दीक्षा में साधक का गुरुदेव के प्रति विश्वास बहुत अधिक महत्व रखता है, क्योंकि अविश्वास और अश्रद्धा ऐसे दो विष है, जिनके प्रभाव से साधक द्वारा अर्जित सभी सिद्धियां या आशीर्वाद निष्क्रिय हो जाते हैं। यह दीक्षा तो अपने आप में ही शरीर को पूर्ण तेजस्विता युक्त बनाने की क्रिया है, सुगन्ध युक्त बनाने की क्रिया है, जिसके बाद जीवन में रोग-शोक व्याप्त ही ना हो सके।
इस दीक्षा के तेज से जब साधक चैतन्य शुद्ध-बुद्ध हो जाता है, तब उसकी वाणी में सागर के समान गम्भीरता आ जाती है, उसके नेत्रें में असीम करुणा और सम्मोहिनी शक्ति व्याप्त हो जाती है, उसके चेहरे पर अद्भुत शान्ति विद्यमान हो जाती है, क्योंकि उसे तो साक्षात् गुरुदेव की उपस्थिति का भान होता रहता है, क्योंकि बाहर कहीं नहीं स्वयं उसके भीतर ही सद्गुरुदेव पूर्णता के साथ स्थापित हो चुके होते हैं।
गुरु पूर्णिमा के चैतन्य अवसर पर निखिलेश्वरानन्द आत्म चैतन्य दीक्षा ग्रहण कर साधक, शिष्य सद्गुरुदेव की असीम अनुकम्पा प्राप्त कर सकेंगे, उनके दिव्य स्वरूप को आत्मसात कर जीवन में सन्मार्ग और भौतिक-आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करने में सफल होगें। वास्तव में जीवन में विजय तो केवल सद्गुरु से आत्मिक रूप से जुड़कर ही प्राप्त की जा सकती है।
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