चन्द्रमा मन का देवता है एवं सूर्य आत्मा का, अतः अमावस्या का अर्थ ही है मन अर्थात् अहं का आत्मा अर्थात् परमात्मा में लीन होना और इस स्थिति में अमावस्या अध्यात्मिक अनुभवों के लिये महत्वपूर्ण है व यदि अमावस्या के साथ-साथ इसमें अमृत तत्त्व का भी समावेश हो जाये, तो इस दिन सम्पन्न की गयी साधना फलीभूत होती ही है और फिर इससे उत्तम स्थिति अन्य हो ही नहीं सकती—-ऐसी ही स्थिति रहती है सोमवती अमावस्या को जो इस बार 16 अप्रैल को है, साथ ही शुकदेव मुनि व पाराशर ऋषि जयन्ती भी इसी दिवस को है।
कूर्म पुराण में उल्लेख है जब कूर्मावतार विष्णु की पीठ पर मंदराचल पर्वत रखा गया और वह स्थिर नहीं हो रहा था, तो एक ओर से सूर्य ने और दूसरी ओर से चन्द्र ने सहारा देकर उसे संभाल लिया। समुद्र मंथन के बाद कूर्मावतार भगवान विष्णु ने उन दोनों को आशीर्वाद दिया और कहा- जिस प्रकार से तुम दोनों ने मिलकर लोकहित के लिये यह कार्य किया है, उसी प्रकार जब कभी तुम दोनों एक-दूसरे में समाहित होगे, तो वह दिवस अमृत तत्व से पूर्ण होगा और उसका महत्त्व एक सिद्ध दिवस के समान होगा।।
इसीलिये सोमवती अमावस्या को साधना के लिये सर्वश्रेष्ठ अवसर माना गया है, क्योंकि इस दिन की जाने वाली साधना असफल नहीं होती उसका सुप्रभाव मिलता ही है। सोमवती अमावस्या मन व आत्मा को चैतन्य, जाग्रत बनाने का अवसर है, स्वः को चेतनावान निर्मित करने का दिवस है। जिससे वे समस्त उपलब्धियां, जिन्हें प्राप्त कर हम अपने जीवन को आनन्दित और तरंगित बना सकते हैं, उन्हें प्राप्त कर सकें। इस दिव्य अवसर पर जीवन को सुदृढ़, सशक्त और आरोग्यमय बनाने की साधना प्रस्तुत की जा रही है।
जीवन की मूल सम्पत्ति तो यही है कि व्यक्ति पूर्णतः आरोग्यमय अर्थात् मन व तन से पूर्ण स्वस्थ व चैतन्य हो। क्योंकि यदि तन स्वस्थ सुन्दर हो पर मन स्वस्थ ना हो, मन में रूग्णता, मलिनता व्याप्त हों, मन में दृढ़ इच्छा शक्ति, श्रेष्ठ विचार की न्यूनता हो तो व्यक्ति जीवन को कूप मण्डूप की तरह ही व्यतीत कर देता है। जो व्यक्ति मन यानि विचारों से और तन यानि सभी कर्मेन्द्रियो व ज्ञानेन्द्रियों से शक्ति युक्त रहे। वही जीवन में श्रेष्ठ उपलब्धि प्राप्त करने में सक्षम बन पाता है, ऐसे लोग ही सफ़ल हो पाते हैं। उच्चकोटि की सफ़लता के लिये मन व तन का स्वस्थ होना अनिवार्य है, जीवन की प्रथम आवश्यकता है, मन और तन दोनो ही पूर्ण रूप से स्वस्थ हों। स्वस्थ शरीर से ही हमारे मन की वृत्तियां स्वस्थ होती हैं, स्वस्थ मन से श्रेष्ठ इच्छाओं की उत्पत्ति होती है, श्रेष्ठ इच्छाओं से कार्य शक्ति प्राप्त होती है और उसी से श्रेष्ठ फल प्राप्त होता है।
यह धुव्र सत्य है कि स्वस्थ और प्रसन्न व्यक्ति के शरीर में शक्ति स्फूर्ति और बल का प्रवाह तीव्र रहता है और उसी से मन, वचन, कर्म में एकाग्रता बनती है। जब तीनों में एकता का सामंजस्य होता है, तो जीवन रोग रहित होता है। अपने प्रयास से तो मनुष्य निरन्तर प्रयत्न करता है कि उसे स्वस्थ देह और स्वस्थ मन निरन्तर प्राप्त होता रहे, लेकिन जब मनुष्य के प्रयास थक जाते हैं, तो श्रेष्ठ व्यक्ति दैवीय साधनात्मक चेतना को आत्मसात करने की ओर अग्रसर होता है।
मानव मन
वर्तमान समय में मानव एवं मानसिक चिन्ता-द्वन्द एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं, प्रत्येक मानव किसी न किसी मानसिक यंत्रणा से त्रस्त है, बहुत कम ही लोग ऐसे होंगे, जिन्हें मानसिक चिन्ता ना हो।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार रोग उत्पन्न होने का मूल कारण है- अंतःकरण के कलुषित विचार एवं असत्य और गंदे आचार-विचार, अर्थात् हमारे स्वभाव व विचार ही रोगोत्पत्ति के प्रमुख कारण हैं। संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा, जो रोग ग्रस्त न हो, कोई न कोई व्याधि उसे होती ही है। मानसिक तनाव होते ही व्यक्ति भयभीत होने लगता है।
यदि कोई मानसिक तनाव से पीडि़त होता है, तरह-तरह के विचारों के उमड़ने से वह अपनी समस्या का निदान नहीं कर पाता है, जिसके फलस्वरूप वह मन ही मन घुटता जाता है। इस तरह मानसिक रोग के साथ-साथ शारीरिक रोग से भी ग्रसित होने लगता है, भूख-प्यास लगनी बंद हो जाती है, जिससे उसके शरीर में रक्त निर्माण पर्याप्त मात्रा में नहीं हो पाता है और रक्त परिसंचरण ठीक न होने के कारण अनेक विकार उत्पन्न होने लगते हैं।
इस तरह यह सामान्य दिखने वाली मानसिक परेशानी व्यक्ति के जीवन में अत्यधिक दुष्प्रभाव उत्पन्न कर देती है, यहां तक कि व्यक्ति अपने सामाजिक रिश्तों से भी अलग-थलग हो जाता है।
मानव तन
बड़े भाग्य मानुष तन पावा अर्थात् यह मनुष्य जन्म बहुत भाग्य से प्राप्त होता है, इसलिये हमें इस शरीर का सुव्यवस्थित एवं सुचारु रूप से पालन-पोषण करना चाहिये, जिससे कि वह स्वस्थ हो सके, क्योंकि शुभकर्मों के फलस्वरूप ही हमें यह मानव शरीर मिलता है।
आज के प्रदूषित वातावरण व दूषित खान-पान के कारण विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होने लग गये हैं, इनमें से विभिन्न रोगों को कोई स्थाई इलाज नहीं है, वरन ये रोग दवाओं के माध्यम से दबा दिये जाते हैं या रोग उत्पन्न करने वाले कीटाणुओं को दवाओं द्वारा निष्क्रिय कर दिया जाता है। आज के समय में मनुष्य को पता ही नहीं चल पाता कि उसे अनेक रोगों ने जकड़ लिया है और वह युवा अवस्था में ही प्रौढ़ व असक्त सा दिखने लगता है, उसकी कार्य क्षमता प्रभावित होने लगती है। रोगों का मायाजाल ऐसा है कि एक के बाद एक नये रोग उत्पन्न होने लगते हैं।
सारभूत तथ्य यह है कि तन और मन दोनों में एकरूपता स्थापित हो और उन्हें संयमित रखा जायें। इसके लिये एक शक्ति को अपने अन्दर निहित करना होगा, जो हमारे शरीर को शुद्ध, पवित्र, दोष रहित कर हमारे मन को भी स्वस्थता प्रदान करने में सक्षम हो, जिससे कि मन-तन दोनों को आरोग्यता प्रदान कर हम जीवन के आनन्द का रसास्वादन कर सकें और जीवन के सभी भौतिक सुखों को पूर्णता से आत्मसात कर सकें।
यह शक्ति ग्रहण कर व्यक्ति अपने आन्तरिक विकारों को समाप्त कर बल, ओज, दृढ़ता, यौवन सभी से युक्त होता है, और उसके शारीरिक व मानसिक दोनों प्रकार के दुखों का हरण होता है, जिससे सांसारिक दुखों से पीडि़त एवं संत्रस्त मन को शांति व तृप्ति मिलती है। इस साधना को प्रत्येक व्यक्ति को सम्पन्न करनी ही चाहिये क्योंकि सांसारिक जीवन में श्रेष्ठता व उच्च सफलता प्राप्त करने के लिये स्वस्थ मन-तन की अनिवार्यता सर्वोपरि है, इसी के द्वारा ही व्यक्ति अपने जीवन को श्रेष्ठ स्वरूप में निर्मित कर सकता है।
सोमवती अमावस्या 16 अप्रैल प्रातः 07 बजे स्नानादि से निवृत्त होकर पीले आसन पर पूर्व दिशा की ओर मुंह कर बैठ जायें, अपने सामने बाजोट पर सफेद रंग का वस्त्र बिछाकर उस पर चन्द्र-सूर्य ज्योर्तिंमय चैतन्य महामृत्युजंय यंत्र व यंत्र के बायीं ओर एक प्लेट पर ऊँ बनायें उस पर सर्व रोग नाशक रूद्राश्र स्थापित कर पुष्प, अक्षत, कुंकुम से पूजन कर धूप-दीप जलायें व जीवनी शक्ति माला से तीन माला मंत्र जप करें-
मंत्र जप पश्चात् किसी पात्र में स्वस्तिक बनाकर यंत्र को रखें व पंचामृत जल से 21 बार उक्त मंत्र का उच्चारण करते हुये यंत्र का अभिषेक करें। साधना पूर्ण होने पर रूद्राक्ष को गले में धारण कर लें व अन्य सामग्री को व्यक्तिगत रूप से किसी शिविर अथवा अन्य माध्यम से गुरु चरणों में समर्पित कर आरोग्यता प्राप्ति की कामना व्यक्त करें।
यह साधना मन व तन दोनों के लिये सर्वहितकारी है, साधक को इस साधना से तन-मन की व्याधियों व अकाल मृत्यु से भी निवृत्ति प्राप्त होती है। उसके भीतर प्रसन्नता, उमंग, उत्साह, स्फूर्ति, ऊर्जा का संचार क्रियाशील रहता है।
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