सत्, चित् और आनन्द ईश्वर के इन तीन रूपों में आनन्द रूप, जिसका दूसरा नाम साम्य अवस्था अथवा अक्षुब्ध भाव है, भगवान शिव का है। मनुष्य भी ईश्वर से ही उत्पन्न उसी का अंश है, अतः उसके अंदर भी ये तीनों रूप विद्यमान है। इनमें स्थूल शरीर उसका सदंश है तथा बाह्य चेतना चिदंश है और जब ये दोनों मिलकर परमात्मा के स्वरूप की पूर्ण उपलब्धि कराते हैं, तब जाकर उसके आनन्दांश की अभिव्यक्ति होती है। इस प्रकार मनुष्य के अंदर भी सत् और चित् के पूर्ण संवाद से आनन्द की उत्पत्ति होती है।
ईश्वर का सत् स्वरूप उनका मातृ स्वरूप है और चित् स्वरूप पितृ स्वरूप है। उनका तीसरा स्वरूप आनन्द है, जिसमें मातृ भाव और पितृ भाव दोनों का पूर्ण रूपेण सामंजस्य होता है। शिव और शक्ति दोनो मिलकर अर्धनारीश्वर रूप में हमारे सामने आते हैं, यही इस स्वरूप का भाव है, उसी में हमें सत् और चित् इन दो रूपों के साथ-साथ उनके तीसरे आनन्द रूप के भी दर्शन होते है। बाइबल के सर्ग सम्बन्धी अध्याय में लिखा है कि ईश्वर ने मनुष्य के रूप में अपनी ही प्रति कृति बनायी है, उन्होंने उसकी पुरुष और स्त्री के रूप में सृष्टि की। स्त्री उनका सद्रूप है और पुरुष चिद्रूप, परन्तु आनन्द के दर्शन तब होते हैं, जब ये दोनों पूर्णतया मिलकर एक हो जाते हैं।
भगवान शिव को योगी कहा जाता है। परन्तु वास्तव में वे गृहस्थों के ईश्वर हैं, विवाहित दम्पती के उपास्य देवता हैं। शिव जी स्त्री और पुरुष की पूर्ण एकता की अभिव्यक्ति हैं। इसी कारण गृहस्थी लोग उनकी आराधना सर्वाधिक करते हैं। किसी भी वस्तु को, उसके गुण-दोष का विचार करते हुये उसके यथार्थ स्वरूप को देखना चाहिये और उसी रूप में उसके महत्व को समझना चाहिये। परस्पर विरोधी द्वन्द्वों की विषमता को दूर करने की चेष्टा करनी चाहिये। यही वास्तविक योग है। कहा भी गया है- समत्वं योग उच्यते अर्थात् समता का नाम ही योग है। संसार की विषमताओ से घिरे रहने पर भी अपने जीवन को शान्त एवं स्थिर बनाये रखना ही योग का स्वरूप है।
भगवान् शिव अपने पारिवारिक सम्बन्धों से हमें इन्हीं योगमय स्थितियों का ज्ञान प्रदान करते हैं और उनकी आराधना, उपासना कर हमारे जीवन में भी ऐसी योगमय स्थितियां निर्मित होती हैं। बाहर की दृष्टि से भगवान शिव का परिवार विषमता का सबसे उपयुक्त उदाहरण है, सभी के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं, किसी का किसी के साथ मेल नहीं। शिव बैल पर चढ़ते हैं, तो पार्वती सिंह वाहिनी हैं, शिव भुजंग भूषण है, तो श्री स्वामी कार्तिकेय को मोर की सवारी पसन्द है और उधर लम्बोदर गणेश जी महाराज को चूहे पर चढ़ना ही सुहाता है। इस प्रकार आपकी गृहस्थी मानो झंझट की पिटारी है।
परन्तु भगवान शिव तो प्रेम और शान्ति के अथाह समुद्र एवं पूर्ण योगी ठहरे। उनके मंगलमय शासन में सभी प्राणी अपना स्वाभाविक वैर भाव भुलाकर आपस में तथा संसार के अन्य सब जीवों के साथ पूर्ण शान्तिमय आनन्द भाव में रहते हैं। स्वयं शिव का तो किसी के साथ द्वेष है ही नहीं, वे तो आनन्द रूप ही हैं। जो कोई उनके सम्पर्क में आता है, वह भी आनन्दमय हो जाता है। उनके चारों ओर आनन्द की ही चेतना फैली है। इसीलिये महादेव शिव रूप में कल्याणकारी एवं शंकर स्वरूप में आनन्द दाता कहलाते हैं।
सांसारिक मनुष्यों की यही मनसा रहती है कि वे शिव-गौरीमय चेतना से आप्लावित होकर कार्तिकेय-गणेश स्वरूप में रिद्धि-सिद्धि विजय श्री युक्त हो। शिव-गौरी परिणय महापर्व शिवरात्रि इन्हीं भावों को आत्मसात करने का दिव्यतम दिवस है जब प्रत्येक गृहस्थ साधक अपने जीवन को रस, आनन्द, ओज, तेज से आपूरित कर सांसारिक जीवन में योगमय स्थितियां प्राप्त कर सकता है। भगवान शिव के अर्धनारीश्वर स्वरूप का यही तात्पर्य है कि शिव-शक्ति स्वरूप में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे में एकात्मक भाव से एकाकार हो सके, एक आत्मिक जुड़ाव स्थापित कर गृहस्थ जीवन के आनन्द को प्राप्त कर सके। स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध में केवल काम की वासनात्मक प्रधानता ना होकर, आन्तरिक, मानसिक, वैचारिक सम्बन्ध बने और वे आपस में समन्वय का भाव स्थापित कर सके। और इन सब के माध्यम से जीवन में आनन्द की प्राप्ति हो, साथ ही कार्तिकेय-गणेश जैसी संतान से आपूरित होकर रिद्धि-सिद्धि शुभ-लाभमय जीवन की प्राप्ति हो। इसी स्वरूप में ही महाशिवरात्रि पर्व प्रत्येक गृहस्थ साधक- साधिका के लिये उपयोगी बन सकेगा।
जीवन में शिव-शक्तिमय चेतना से आपूरित होने पर शारीरिक, मानसिक न्यूनता आदि का पूर्णरूपेण शमन होता है। इस दीक्षा को धारण करने वाले साधक-साधिका में दिव्य चेतना, ओज, तेज, ऊर्जा का संचार निरन्तर बना रहता है, जिसके माध्यम से वे निरन्तर क्रियाशील हो अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं।
शिव-गौरीमय चेतना से आपूरित गृहस्थी दीर्घ काल तक सत्, चित्, आनन्द के समन्वय पूर्ण प्रेममय व्यतीत होती है, साथ ही गृहस्थ जीवन में नित्य आने वाली कड़वाहट, क्लेश आदि का शमन होता है। यह बात प्रत्येक व्यक्ति बड़ी सरलता से समझ सकता है कि कोई भी सांसारिक सम्बन्ध प्रेम की बुनियादी आवश्यकताओं पर ही आधारित होता है, चाहे वह सांसारिक वस्तुओं, संसाधनो से सम्बन्धित हो अथवा शारीरिक सुख से सम्बन्धित हो। इनकी पूर्ति होनी आवश्यक है, तब ही जीवन सरल-सहज और आनन्दमय बन सकता है।
गृहस्थ जीवन के आराध्य महादेव-गौरी हैं, जिनकी चेतना शक्ति से सम्पूर्ण सृष्टि सृजन व वर्धन की क्रिया में निरन्तर संलग्न है, उन्हीं के द्वारा ही गृहस्थ जीवन को पूर्ण अखण्ड सौभाग्य शक्ति से आपूरित किया जा सकता है और सर्व सौभाग्य शक्ति से आपूरित जीवन में ही आनन्दमय पारिवारिक स्थितियां बनती हैं और ऐश्वर्य, वैभव, धन लाभ, संतान सुख, आरोग्यता, सम्मान, प्रतिष्ठा, सुख-समृद्धि, भू-भवन आदि की प्राप्ति संभव हो पाती है।
दीक्षा धारण करने हेतु आप अपना पोस्ट कार्ड साइज फोटो डाक, ई-मेल, वाट्सअप आदि से कैलाश सिद्धाश्रम-जोधपुर भेजें, जिससे महाकाल की नगरी उज्जैन में महाशिवरात्रि पर्व पर शक्तिपात दीक्षा की श्रेष्ठतम क्रिया कालजयी मुहूर्त दिन में 02:18 से 08:40 के मध्य सम्पन्न की जा सकेगी।
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