नववर्ष का उल्लास ही भारतीय साधना ग्रंथों में एक पर्व के रूप में वर्णित है। जिस दिवस को सामान्य लोग क्लब और पार्टियों में बिताते हैं, उसे हमारे पूर्वज और ऋषि-मुनि अपने आसन पर बैठ, साधना सम्पन्न कर मनाते थे, और बदले में प्राप्त कर लेते थे पूरे वर्ष भर के लिये ऊर्जा का ऐसा संग्रह, जो बन जाये, आधार, उनके भौतिक और आध्यात्मिक जीवन की सफलता का। पूरे वर्ष भर का तेज, बल और आनन्द…
ईस्वी सन तो अभी केवल लगभग 2000 वर्ष ही पुराना है, जबकि भारतीय साधनायें और पद्धतियां तो इतनी अधिक प्राचीन हैं, जिनकी कोई गणना ही संभव नहीं। काल के अविच्छिन्न प्रभाव में बहती ज्ञान की गंगा… जिसके किनारे यत्र-तत्र विश्राम स्थल बने हैं- साधना रूप पर्व और अवसर के, जिनमें रूक कर, व्यक्ति प्राप्त कर ले अपने जीवन के लिये शीतलता और संतोष के जल का पान।
ईस्वी सन् के आरम्भ होने का समय भारतीय वर्ष पद्धति से पौष माह में घटित होता है… सम्पूर्ण रूप से एक अद्भुत दिव्य व चैतन्य माह, जिसका प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनि सदुपयोग करते थे कुण्डलिनी जागरण और योग की उच्चकोटि की साधनाएं करने के लिये। जीवन की ऊंचाई व ज्ञान की श्रेष्ठता तक ले जाने के लिये, अपने स्व को विकसित करने के लिये तथा देवी-देवताओं को अपने जीवन में स्थान देने के लिये। यह तो एक मिथ्या धारणा हमारे मन मस्तिष्क में बन गई है कि वे समाज से कट कर रहने वाले ऐकान्तिक व्यक्ति व सदैव तपस्या में ही लीन रहने वाले थे। सत्यता यह है कि उनका गृहस्थ जीवन, उनका सामाजिक जीवन आज की अपेक्षा हम से कहीं अधिक श्रेष्ठ, कहीं अधिक परिपूर्ण और कहीं अधिक सन्तुष्ट था, जिसकी पुष्टि होती है वेद एवं अन्य प्राचीन ग्रंथों से।
इसके मूल में रहस्य छूपा था, उनके द्वारा प्रत्येक अवसर की महत्ता को समझते हुये उस अनुरूप साधना को सम्पन्न करने में, और केवल इतना ही नहीं उन्होंने सदैव चिंतनयुक्त रहकर जीवन के एक-एक क्षण की महत्ता को समझते हुयें प्रत्येक माह का विवेचन कर, उसके अनुरूप और अनुकूल साधना पद्धति या तो ढूंढ निकाली या उसे रच दिया।
यह पौष माह भी उनके इन्हीं प्रयासों का एक अंग है। जब उन्होंने अनुभव किया कि यह माह तो सम्पूर्ण रूप से देवत्वमय है, ऋषि मय है, और यदि इस माह में अपने कुल के आदि पुरूषों, उन विशिष्ट ऋषियों की साधना की जाये जिनका नाम हम गोत्र का उच्चारण करते समय लेते है तो फिर जीवन में अनोखी चैतन्यता और तेजस्विता आती ही है। उनके मन में नव वर्ष मनाने जैसी कोई धारणा नहीं थी, लेकिन इस बात का उन्हें पर्याप्त बोध हो गया था कि शीत ऋतु के पश्चात् और भारतीय परम्परा के अुनसार वर्षारम्भ के मध्य का यह काल एक ऐसा चैतन्य और ऊर्जामय अवसर है, जबकि चैत्र नवरात्रि में की जाने वाली शक्ति साधनाओं के लिये आवश्यक ऊर्जा संग्रहित की जा सकती है। वास्तव में वे नवरात्रि के पर्व, इस काल का उपयोग अपने को पवित्र व उदात्त बनाने में करते थे। देव तर्पण, पितृ तर्पण और ऋषि तर्पण तो हमारी प्राचीन शैली का एक अभिन्न अंग रहा है। दैनिक जीवन का प्रारंभ ही इस प्रकार से होता रहा है, और इसमें कोई नूतन बात नहीं, किन्तु पौष माह में वे जिस प्रकार से विशेष रूप से ऋषि पूजन करते थे, वह अवश्य ही साधना जगत का दुर्लभ और गोपनीय रहस्य है। केवल सप्त ऋषियों- सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरी, वोढु और पंच सिख का ही आह्वान और पूजन नहीं, वरन पुलह, पुलस्त्य, वशिष्ठ, मरीचि, नारद, भृगु, अंगिरा, एवं इसी कोटि के अन्य उच्च आत्माओं का पूजन भी इसी विशेष माह में करने का विधान रखा गया है।
इस वर्ष का प्रारंभ अर्थात ईस्वी सन् 2024 का प्रारम्भ हिन्दी तिथि के अनुसार पौष कृष्ण पंचमी से हो रहा है, इस दुर्लभ अवसर पर इस सप्तऋषि साधना का महत्व सहस्त्र गुणित हो गया है। यह भी सत्य है कि इस प्रकार से आप जीवन का प्रारंभ करें, तो आपके जीवन में अनुकूलताओं के साथ-साथ तेज और बल का आगमन होगा ही। जहां ऋषियों को तेज, जहां उनके आशीर्वाद के रूप में उनकी तपः रश्मियां प्रवाहित हैं। उनकी अप्रकट उपस्थिति में वहां समस्त देवी और देवता उपस्थित होने के लिये बाध्य हैं ही, ऐसे दिव्य ऋषियों और तपः पूतों के द्वारा उनके रोम-रोम से स्वतः उच्चारित होती मंत्र ध्वनि, देवताओं को भी बाध्य कर देती है उनके पीछे आकर्षित होकर बद्ध होने के लिये, ज्यों कस्तूरी मृग की सुगन्ध। ऋषियों और तपः पूतों की सूक्ष्म उपस्थिति ही मंत्रों के मौन संगीत का गुंजरण, तंत्र का प्रकटीकरण और साक्षात यंत्र का स्थापन है, और यही सही अर्थों में नव वर्ष की भावना है, नव वर्ष का स्वागत है, जीवन को साजने व संवारने की प्रक्रिया है। एक रात्रि का उत्सव, क्लब अथवा शराब की पार्टियों में बिताया गया समय, किसी भी प्रकार से नव वर्ष का उत्सव नहीं दे सकता। विचित्र होता है यह प्रचलित नव वर्ष का स्वागत, जो अर्द्ध रात्रि की घोर कालिमा में और भी अधिक कलंकित ढंग से मनाकर किया जाता है और इसके विपरित भारतीय शैली अपने प्रत्येक दिन के आरम्भ को भगवान सूर्य की रश्मियों के स्पर्श के माध्यम से नववर्षोत्सव के समान ही मानती है। इसी से भारतीय चिंतन में नव वर्ष जैसा कोई विशेष दिन निर्धारित किया ही नहीं गया, क्योंकि हमारा तो प्रत्येक दिवस उत्सवमय है, प्रत्येक दिवस आशा से परिपूर्ण है, प्रत्येक सायं काल ‘संध्या’ के माध्यम से ईश्वर को धन्यवाद ज्ञापित करने के लिये ढली हुई है, उसमें तो नित्य आनन्द है, नित्य उत्सव है, नित्य छलछलाहट है। फिर हम किसी एक विशेष दिन का अवलम्बन क्यों लें, क्यों हम उन्माद में भरकर विचित्र ढंग से आचरण करें?
इस एक दिवस की साधना को पाठक स्वयं सम्पन्न कर अनुभव कर सकता है कि आम घिसे-पिटे ढंग से पार्टियों और क्लबों में समय व्यतीत करने की अपेक्षा यदि साधनात्मक ढंग से यह पर्व मनाया जाये तो केवल उस दिवस विशेष पर ही नहीं, वरन सम्पूर्ण वर्ष भर जीवन में इतना अधिक उल्लास और ऐसी ताजगी आ जाती है, जिसका कि पहले अनुभव ही न किया हो। भोग केवल रोग को जन्म देता है, जबकि साधना देती है शरीर और मन को पुष्टि। पौष माह की यह साधना ऐसी ही पुष्टिदायक साधना है
दिनांक 01-01-2024 को प्रातः सूर्योदय से काफी पूर्व उठकर ही तैयार हो जाये और स्नान आदि करके शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण कर, पूर्वाभिमुख होकर बैठें, यदि वस्त्र आसन सब नये हों तो अधिक उचित माना गया है। मन को विचारों से शून्य बनायें तथा आत्मिक शुद्धि के लिये तीन बार ओऽम्कार की ध्वनि करें। यदि आपके पास गुरू चरण पादुका अथवा गुरू यंत्र हो, तो उसे ताम्र पात्र में स्थापित करें, ध्यान रखें कि इस सम्पूर्ण पूजन में काफी मात्रा में घिसे हुयें श्वेत चंदन व अक्षत तथा श्वेत पुष्प का ही विशेष महत्व है, अन्य कोई पूजन सामग्री आवश्यक नहीं है। गुरू यंत्र के सामने पांच चावल की ढेरियां बनायें तथा प्रत्येक पर एक गोल सुपारी रखें। गुरू यंत्र एवं इन पांचों ढेरियों का पूजन प्रारंभ करें, प्रत्येक वस्तु अर्पित करते समय ‘गुं गुरूभ्यो नमः’ मंत्र का उच्चारण करें, इन पांचों ढेरियों के आगे सात ढेरियां और बनाकर उनके ऊपर सात गुटिकाएं तथा सप्त ऋषि यंत्र जो ताम्र पत्र पर अंकित हो, स्थापित करें, इनका पूजन भी उपरोक्त प्रकार से करें। इसके उपरांत स्फटिक माला से ऊँ गं गणपतयै नमः मंत्र का एक माला मंत्र जप करें तथा भगवान गणपति से अपने पूरे वर्ष भर विघ्नहर्ता बने रहने के लिये विनीत भाव से प्रार्थना करें, तथा पांच माला गुरू मंत्र जप अवश्य करें, क्योंकि गुरूदेव ही वह परम पुरूष हैं जो समस्त ऋषियों द्वारा अचिन्त्य रूप से वन्दनीय हैं।
इसके उपरान्त एक पात्र में पहले से तैयार किये गये अष्टांग अर्घ्य, जिसमें दूब, अक्षत, पुष्प, कुश, सरसों, दही, जौ व दूध हो, उसे अपने पूज्य गुरूदेव एवं समस्त ऋषियों व देवर्षियों को अर्पित करने की भावना करते हुये एक पात्र में तर्पण करें तथा निम्न मंत्र उच्चारित करें-
इसके उपरान्त इस साधना के उपरोक्त मूल मंत्र का 11 माला अथवा 21 माला या 51 माला जैसी आपकी रूचि हो, श्रद्धापूर्वक जप करें यदि 101 माला जप करते हैं तो अत्यधिक अनुकूल है। इस सम्पूर्ण जप काल में घी का दीपक व सुगन्धित अगरबत्ती को अवश्य ही प्रज्ज्वलित रखें। मंत्र जप के उपरान्त निम्न स्तोत्र का श्रद्धा पूर्वक पाठ करें-
ब्रह्माचकाश्यपो विप्रः सनकश्च सनन्दनः, सनत् सनातनी विप्री नारदः कपिलस्तथा।
मरिचि अत्रिः पुलह पुलस्त्यो गौतमः क्रतु, भृगुर्दक्षः प्रचेताश्च वाशिष्ठो वशिष्ठो वाल्मिकीस्तथा।
द्वैपायनी भरद्वाजः शुक्रो जेमिनीरेवच, विद्वरथः शुन शेफो जातु कर्णश्च रौरवः।।
और्तः संवर्तकः शुक्रा सुराचार्यो बृहस्पतिः चन्द्र सूर्यो बुधः श्रीमान् यज्ञ सूत्रस्य ग्रन्थिषु।
तिष्ठन्तु मम वामांशे वाम स्कन्धे त्वहर्निशम् ब्रह्माधीः देवताः सर्व यज्ञ सूत्रस्य देवता।।
इस प्रकार यह एक विशेष सात्विक और मंगलदायक साधना सम्पन्न होती है। जिसका प्रभाव साधक को पूरे वर्ष भर मिलता रहता है। आपने जीवन में अनेक देवी-देवताओं से सम्बन्धित साधना की होगी किन्तु ऋषियों की अभ्यर्थना से सम्बन्धित यह साधना तो अभी तक केवल परम्परा से शिष्यों को मिलती रही है, और उन्हीं शिष्यों को जो पहले एक निश्चित अवधि तक, अपने गुरू की सेवा कर, उनको सन्तुष्ट कर देते थे, क्योंकि जहां सप्त ऋषियों का तेज है, वहां तो जीवन की प्रसन्नता तो स्वयमेव उपस्थित होती ही है। उनकी सूक्ष्म उपस्थिति से साधक का जीवन निरन्तर इसी प्रकार आह्लादित और मंगलमय रहता है, जिस प्रकार कोई बालक अपने माता-पिता की उपस्थिति में निर्भीक और निश्चित रहता है।
साधना के उपरान्त सप्तर्षि यंत्र को गुरू यंत्र के समीप ही स्थापित रखें और समस्त गुटिकाओं को एक रेश्मी थैली में बांधकर पवित्रता पूर्वक रखें। आगे जब ऋषि पंचमी का अवसर हो तब इस साधना को पुनः सम्पन्न किया जा सकता है। इस साधना का एक फल यह भी है कि इसको सम्पन्न करने से साधक के समस्त पितृ वर्ग स्वतः ही सन्तुष्ट और तृप्त हो जाते हैं, तथा पितृ दोष आदि से स्थायी मुक्ति मिल जाती है।
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