मुनि लोग ध्यान के द्वारा उस चिंतन की सीमा में न आने वाले, अव्यक्त रूप से जो अनन्त रूपों वाला शिव (कल्याणकारी) है, अद्वैत है, अमृतमय ब्रह्म का मूल कारण है, जिसका कोई आदि अन्त तथा मध्य नहीं है, जो अद्वितीय, घट-घट व्यापी और चेतन तथा आनन्दमय है, जिसका कोई रूप नहीं है वह अरूप है और जो विलक्षण है, उस परमात्मा को प्राप्त करते है।
उपनिषद् का ऋषि कहता है- कि उस अचिन्त्य, अद्वितीय, अद्वैत, अरूप, अनन्त रूप, चैतन्य, शाश्वत आनन्द को पाने के लिये, एक मात्र उपाय ध्यान ही है। जो ध्यान में नहीं उतरेगा वह ईश्वर को नहीं पा सकेगा। यह ध्यान इस प्रकार से है कि जैसे विद्युत तारों के बीच में से होती हुई बल्ब तक पहुंचती है। तभी बल्ब प्रकाशमान होता है। हमारी चेतना भी ध्यान के तारों के बीच से अपनी मंजिल तय करती है, तभी ईश्वर तक पहुंच पाते है।
ईश्वर को अचिन्त्य कहा गया है अर्थात् उसके बारे में कोई विचार नहीं हो सकता, विचार करना भी असंभव है। तथा बुद्धि भी उसके बारे में कुछ सोच न सकें तभी ध्यान का अनुभव हो सकता है। यदि तुम हिन्दू हो तो तुम्हें राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा आदि का विचार मन में आता है। यदि तुम हिन्दू न होकर कुछ और होते तो क्या तुम्हारे विचारों में ये देवी-देवता आते? यह सब विचार तो समाज में व्याप्त है। तुम अपनी बुद्धि से सोचते हो विचार करते हो अगर उसे पाना है, तो अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं करना, वह अचिन्त्य है।
वह व्यक्त भी नहीं है, वह अव्यक्त है, जैसे यदि हम देखें आत्मा तो शरीर के अन्दर विराजमान है, लेकिन यदि देह को चीर फाड़ कर आत्मा को देखना चाहे, तो वह नहीं मिलेगी, लेकिन शरीर अवश्य समाप्त हो जायेगा। अतः वह आत्मा स्वरूप परमात्मा अव्यक्त ही है। अव्यक्त का दूसरा रूप है कि वह अरूप भी है, उसका कोई रूप भी नहीं है। अतः उसे अनन्त रूप कहा गया है। अनन्त रूप वहीं हो सकता है, जो सभी रूपों में हो। कोई भी ऐसा रूप नहीं है जिसमें वह नहीं समाया हो वह कण-कण में विद्यमान है। वह कुछ भी हो सकता है। अतः वह अनन्त रूप है।
वह शिव अर्थात् सद्गुरु कल्याणकारी भी है, मंगलदायक है। जिसके समीप जाने पर अपना शुभ होता है। यह सद्गुरु शिव का स्वभाव है, जैसे एक पुष्प के पास जाने पर उससे सुगन्ध ही आती है, दुर्गन्ध नहीं हो सकती। उसी प्रकार उसके पास जाने पर या उसे पाने पर कल्याण ही हो सकता है। उसका कोई आदि व अन्त नहीं है और जिसका कोई प्रारम्भ नहीं हुआ हो, तो उसका अन्त भी नहीं होता और जब किसी का आदि और अन्त नहीं होता तो मध्य कैसे होगा? जैसे किसी वस्तु के किनारे तो होते हैं, अर्थात् आदि व अन्त होता है, यदि वे न हो तो उनके बीच कैसे बनेगा अर्थात् मध्य भी नहीं होगा। वह अद्वितीय भी है अर्थात् उस जैसा कोई दूसरा है ही नहीं। अपने जैसा वह स्वयं है, अकेला है, वह अतुलनीय है, हम उसकी तुलना नहीं कर सकते, तुलना तो उसकी की जाती है, जिसके जैसा कोई दूसरा उपस्थित हो और उस ईश्वर के जैसा दूसरा नहीं है, इसीलिये वह अद्वितीय है।
वह सर्वव्यापक है, वह सभी जगह है, कहीं पर भी प्रकट हो सकता है, वह चैतन्य है, वह जिस पर कृपालु हो जाता है, आनन्द की वर्षा कर देता है, इसीलिये आनन्दघन है। जब निर्विचार अर्थात् किसी भी प्रकार का विचार न हो, सोचने, समझने की बुद्धि भी न हो तथा मस्तिष्क में किसी प्रश्न की, किसी उत्तर की उपस्थिति न हो, केवल और केवल अनुभव हो तो उस अनुभव के बारे में, उस ध्यान के बारे में, ऋषि कहता है कि वह ऐसा है, उस ईश्वर के बारे में जानकर हम आगे उस मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। ये अनुभव एकान्तिक है, जिसे इसका अनुभव हो जाता है, वह इसका वर्णन करने में समर्थ नहीं होता। हालांकि सांसारिक जीवन के सभी अनुभव एकान्तिक नहीं होते। यदि कोई चीज अथवा खोज किसी के द्वारा हो जाती है। जैसे एक वैज्ञानिक किसी आविष्कार को करता है या कुछ नई खोज करता है, तो उसका लाभ व जानकारी सभी को हो जाती है। अन्य दूसरों को उस खोज को नहीं करनी पड़ती है, लेकिन ईश्वर को पाने के लिये अपना ही अनुभव चाहिये।
और सद्गुरु ही एक मात्र ऐसे व्यक्तित्व हैं, जो अनुभव को उपलब्ध होते हैं और इस अनुभव को प्राप्त करने के लिये शिष्यत्व ग्रहण करना अनिवार्य है और यदि सद्गुरु शिष्य को स्वीकार कर लें तभी वह उसे भी स्वयं जैसा अर्थात् अनुभव उपलब्ध करा सकता है, लेकिन शिष्य कैसा हो यह आदि गुरु शंकराचार्य ने वर्णन किया है-
जो आत्मा से, प्राणों से, हृदय से अपने गुरुदेव से जुड़ा हो, जो गुरु से अलग होने की कल्पना करते ही भाव विह्नल हो जाता है।
जो अपनी मर्यादा जानता हो, गुरु के सामने अभद्रता, अशिष्टता का प्रदर्शन न कर पूर्ण विनीत व नम्रता पूर्ण आदर्श रूप में उपस्थित होता हो।
जिसने गुरु सेवा को ही अपने जीवन का आदर्श मान लिया हो, और प्राण प्रण से गुरु की तन-मन-धन से सेवा करना ही जीवन का उद्देश्य रखता हो।
जो ज्ञान रूपी अमृत का नित्य पान करता है और अपने गुरु से निरंतर ज्ञान प्राप्त करता ही रहता है।
जो साधनाओं को सिद्ध कर लोगों का हित करता हो और गुरु से निरंतर ज्ञान प्राप्त करता ही रहता है।
गुरु ही जिसकी गति, मति हो, गुरुदेव जो आज्ञा दे, बिना विचार किये उसका पालन करना ही अपना कर्तव्य समझता हो।
जिस शिष्य का इष्ट ही गुरु हो, जो अपना सर्वस्व गुरु को ही समझता हो।
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