अतः स्पष्ट है कि कुण्डलिनी जागरण जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि है। सहस्त्रार चक्र अपने आप में अत्यन्त उत्तम कोटि का चक्र माना गया है, यह पूर्ण चक्र माना गया है। इस सहस्त्रार चक्र को जाग्रत करना कठिन व दुर्बोध है, बिना गुरु की सहायता के इस सहस्त्रार को जाग्रत नहीं किया जा सकता। सहस्त्रार से निरन्तर अमृत झरता रहता है, अमृत का मतलब है जो मृत्यु को प्राप्त नहीं हो सके, अमृत का मतलब है – मृत्योर्माऽमृतं गमय, हम मृत्यु से अमृत्यु की तरफ उन्मुख हो जायें, हम न्यूनताओं से पूर्णताओं की ओर बह जाये, हम अभावों से श्रेष्ठता की ओर अग्रसर हो जायें, हम अपने जीवन को सही ढंग से पहचान सकें, हम देवत्व प्राप्त कर सकें, हम अपने – आप में महामानव बन सकें, हम अपने – आप में षोडश कला प्रधान बन सकें, विश्व में जहाँ युद्ध हो रहा है, उन देशों के युद्ध को रोक सकें और विश्व को अत्यन्त ही सुन्दर, पवित्र और शांतिमय बना सकें। और हम यह तब बना सकते है जब हमारा सहस्त्रार चक्र जाग्रत हो।
जिसका सहस्त्रार जाग्रत होता है, उसको योगी कहा गया है, उसको परमहंस कहा गया है, उसको श्रेष्ठ पुरूष कहा गया है, उसको अद्वितीय पुरूष कहा गया है, उसको ब्रह्म कहा गया है और जो ब्रह्म बन जाता है, वह अपने-आप में पूर्ण क्षमतावान व्यक्तित्व बन जाता है। जिसको ईशावास्योपनिषद् और अन्य उपनिषदों में कहा गया है, कि उसके आगे की कोई स्थिति नहीं है, उससे आगे की कोई क्रिया नहीं है, वह अपने-आप जीवन का एक आधारभूत सत्य है, और अत्यन्त विरले व्यक्ति ही इस सहस्त्रार चक्र को जाग्रत करने में समर्थ हो पाते है। प्रत्येक साधक के लिये कुण्डलिनी को जाग्रत करना आवश्यक है ताकि हम अपने-आप में सम्पूर्णता प्राप्त कर सकें और सम्पूर्णता प्राप्त करना ही जीवन की श्रेष्ठता है।
जो योगी या साधक सहस्त्रार चक्र भेदन कर लेता है, वह लौकिक कार्यों से ऊपर उठ जाता है। भूख, प्यास, रोग, शोक, जरा-मरण का भय उसे नहीं व्यापता। वह अष्ट सिद्धियों नवनिधियों का स्वामी होते हुये ‘ब्रह्मवत्’ हो जाता है। योग्य गुरु के सान्निध्य में कोई भी दृढ़ चित्त साधक धीरे-धीरे अभ्यास करता हुआ, सुषुम्ना को जाग्रत कर कुण्डलिनी जागरण में समर्थ हो सकता है और फिर चक्र भेदन के बाद विशिष्ट योगी या साधक बन सकता है। कुछ साधक इसे ‘ब्रह्मरन्ध्र’ भी कहते हैं। सहस्त्रार चक्र भृकुटि से लगभग तीन इंच ऊपर सिर के मध्य में ज्योतिपिण्ड के समान होता है। यह ज्योतिपिण्ड हजारों किरणों से ज्योतित दिखाई देता है और इसीलिये इसे सहस्त्रार चक्र कहा जाता है।
सहस्त्रार चक्र हमारी अनंत चेतना का प्रवेशद्वार है। यह वही चक्र है जिसके द्वारा हम अपने आप को पूर्ण ज्ञानकी आनंदमय स्थिति से जोड़ सकते है और इसे अपने जीवन में महसूस कर सकते है, योगीजन इस स्थिति को सत-चित्त- आनंद कहते है।
यह हमारी व्यक्तिगत जागरूकता के दायरे से परे है, जिसे ‘चित्त’ के रूप में जाना जाता है। सहस्त्रार ऊर्जा का वह ड्डोत है जिसके द्वारा हम सांसारिक उलझनों से स्वयं को विरक्त कर अपने आप को समझ पाते है, स्वयं को जीत लेते है। यह हमारे जीवन को एक आत्मविषयक दायरा प्रदान करता है। सहस्त्रार चक्र पर ध्यान केंद्रित करने से हमें सहज ज्ञान, गहरी समझ, मजबूत आध्यात्मिक जुड़ाव का अनुभव होता है साथ ही दिव्य रहस्यों का ज्ञान मिलता है।
अनियमित सहस्त्रार चक्र –
सहस्त्रार चक्र के संचालन में बाधा या उसके असंतुलित होने पर व्यक्ति अपने जीवन में कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं कर पाता है, उसका दिमाग एक दिशा में जाता है, मन दूसरी दिशा में व शरीर किसी ओर ही दिशा में चला जाता है।
असंतुलित सहस्त्रार चक्र की स्थिति में व्यक्ति स्व-केन्द्रित हो जाता है क्योंकि वह अपने जीवन में कोई जुड़ाव ही महसूस नहीं कर पाता है, उसके शारीरिक क्षमता पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति की शक्ति केवल निचले हिस्से के चक्रों पर ही संचारित होती है। जिससे उसका ध्यान सिर्फ विषयी व भौतिक वस्तुओं तक ही सीमित रह जाता है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति आध्यात्मिकता से दूर चला जाता है। कमजोर सहस्त्रार चक्र के सूचक हैं- व्यक्ति का हमेशा दुविधा में रहना व कोई निर्णय लेने में असमर्थ हो जाना, उदासीन व्यक्तित्व, स्वार्थ की भावना, व्यक्ति का संकोची हो जाना, रचनात्मकता की कमी, अवसाद की स्थिति, छोटी सी बात पर अत्यधिक क्रोधित हो जाना व हठी व्यवहार।
अतिक्रियाशील सहस्त्रार चक्र की स्थिति में व्यक्ति जल्दी ही कम प्रयासों में ही हताश हो जाता है, वह घमण्डी व असहनशील हो जाता है, अति भावुक, अनिद्रा, माइग्रेन आदि भी इसके लक्षण है। असंतुलित चक्र में सिर के हिस्सों में परेशानी रहती है, जैसे बालों का झड़ना, गंजापन, हमेशा सिरदर्द रहना, मानसिक स्थिति का अस्थिर हो जाना, मिरगी के दौरे, मस्तिष्क सबंधी विकार आदि।
संतुलित सहस्त्रार चक्र-
संतुलित व पूर्ण संचालित सहस्त्रार चक्र व्यक्ति को भावनात्मक रूप से मजबूत व रचनात्मक बनाता है, वह एक साथ कई कार्यों को करने में सक्षम हो जाता है, व बुद्धि-दक्ष बनता है। व्यक्ति साहसी बनता है, व हमेशा नई खोज व नये आविष्कार करने में तत्पर रहता है, उसे मौत का डर कभी नहीं सताता, वह ईश्वर से जुड़ाव महसूस करने लगता है। सुदृढ़ सहस्त्रार चक्र व्यक्ति को सूक्ष्मदर्शी बनाता है और उसे प्रकृति के नियमों का उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
सहस्त्रार चक्र को संतुलित व जाग्रत करने के उपाय
1- प्रकृति द्वारा सहस्त्रार चक्र को अनुभव करना- सहस्त्रार चक्र के तत्व है आंतरिक प्रकाश या आंतरिक विचार और यही वह सबसे महत्वपूर्ण तत्व हैं जिससे ब्रह्माण्ड की रचना हुई है, यह दिव्य है, यह रचना द्वारा प्रकाशमान है और यही सभी को जोड़े रखता है और यही प्रकृति में सर्वव्यापी भी है। इसीलिये सहस्त्रार चक्र को जाग्रत करने के लिये हम प्रकृति के बीच कुछ देर बैठ कर व ध्यान कर दिव्य शक्तियाँ जो सर्वव्यापी हैं, उनका अनुभव कर ‘ऊँ’ जो इस चक्र का मूल बीज मंत्र है ‘ऊँ’ का उच्चारण कर अपने भीतर समाई शक्ति को महसूस कर सकते हैं।
2- भोजन द्वारा उपाय- अपने भोजन में प्राकृतिक खाद्य पदार्थों को शामिल कर सहस्त्रार चक्र को संचालित किया जा सकता है। मीठे के स्थान पर खजूर, किशमिश, मुनक्का को शामिल करना चाहिये जो सूर्य की किरणों में सूखकर बनते हैं। पर्याप्त पानी पीना चाहिये व डब्बा बंद खाद्य पदार्थों का उपयोग बंद कर देना चाहिये, ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक शाक सब्जियों व फलों को नियमित दिनचर्या में शामिल करना लाभकारी है।
3- योग द्वारा संतुलन- कुछ योग क्रियाओं व आसन को अपनी नियमित दिनचर्या में शामिल कर सहस्त्रार चक्र को संतुलित किया जा सकता है। वीरभद्रासन, गरूड़ासन, अर्ध चंद्रासन, शीर्षासन, हालासन, सर्वांगासन, पद्मासन, पश्चिमोत्तासन, सुप्त बद्ध कोणासन, आदि आसन का अभ्यास लाभदायक होता है।
4- गुरु प्रदत्त दीक्षा द्वारा- गुरु द्वारा अपने साधक के मस्तक पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है और इस क्रिया के द्वारा गुरु अपनी ऊर्जा उस साधक में समाहित करता है। सहस्त्रार चक्र कुण्डलिनी जागरण दीक्षा।
5- साधना द्वारा- साधना के द्वारा भी सहस्त्रार चक्र गुरु कृपा से जाग्रत किया जा सकता है।
साधना
साधक प्रातः काल स्नान आदि से शुद्ध होकर श्वेत वस्त्र धारण करें, फिर पूजा स्थान में उत्तर दिशा की ओर मुंह कर बैठें। अपने सामने लकड़ी के बाजोट पर सफेद वस्त्र बिछाकर तांबे की प्लेट में शिव चैतन्य यंत्र स्थापित कर निम्न ध्यान मंत्र का उच्चारण करें-
ऊँ ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारूचन्द्रावतंसं
रत्नकल्पोज्ज्वालांगम् परशुमृगवराभितिहस्तं प्रसन्नम्।
पप्रासीनं समन्तात स्तिुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं
विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्।।
इसके बाद यंत्र को कुंकुम, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से संक्षिप्त पूजन कर निम्न मंत्र का 108 बार जप करें।
विनीत श्रीमाली
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