चैतन्य के स्वरूप के संबंध में कुछ गहरे इशारे हैं। जीवनमुक्त ही इन अनुभवों से गुजरता है। जीवनमुक्त ही जान पाता है इन सूत्रों को। क्योंकि हमें चैतन्य का सीधा कोई अनुभव नहीं है। जो भी हम चेतना के संबंध में जानते हैं, वे भी मन में पड़े हुये प्रतिबिंब ही हैं।
मन तो यंत्र है और उसका उपयोग दोतरफा हैः बाहर के जगत में जो घट रहा है उसे भी मन पकड़ता है, भीतर के जगत में जो घट रहा है उसे भी मन पकड़ता है। मन तो दोनों तरफ, उसकी परिधि में जो भी घटता है, उसे पकड़ता है। इससे कोई संबंध नहीं है कि मन जाये। वहां दूर कैमरा रखा हो, तो यहां जो घट रहा है वह कैमरा पकड़ता रहेगा। वहां दूर टेपरिकार्डर रखा हो, यहां जो मैं बोल रहा हूँ, पक्षी गीत गायेंगे, हवायें गुजरेंगी वृक्षों से, पत्ते गिरेंगे, वह टेपरिकार्डर उन्हें पकड़ता रहेगा।
मन को ठीक से समझ लें कि मन सिर्फ एक यंत्र है, मन में कोई चेतना नहीं है, मन में कोई आत्मा नहीं है, मन प्रकृति के द्वारा विकसित जीव-यंत्र है, जैविक यंत्र है, बायोलाजिकल मशीन है। मन, हमारी आत्मा और जगत के बीच में है। यंत्र जो है, शरीर में छिपा है और जगत और आत्मा के बीच में है। जगत में जो घटता है मन उसे भी पकड़ता है। इसे पकड़ने के लिये उसने पांच इंद्रियों के द्वार खोले हुये हैं।
इंद्रियां आपके मन के द्वार हैं। जैसे कि टेपरिकार्डर है, तो उसका माइक मेरे पास लगा हुआ है। टेपरिकार्डर हजारों मील दूर रख दें, यह माइक पकड़ता रहेगा और टेपरिकार्ड़र तक खबर पहुँचती रहेगी।
एक और इंद्रिय है, जिसका नाम आपने सुना होगा, लेकिन कभी इस भांति नहीं सोचा होगा, वह है अंतःकरण। वह इंद्रिय, भीतर जो भी घटित होता है, उसको पकड़ती है। वह भी इंद्रिय है। भीतर जो भी घटित होता है, जब एक आदमी समाधि में डूब जाता है, तो अंतःकरण पकड़ता रहता है-क्या घट रहा है! शांत, मौन, आनंद, परमात्मा की प्रतीत-क्या हो रहा है!
अंतः करण भीतर की तरफ खुला हुआ माइक है। वह भीतर की तरफ गई रिसेप्टिविटी है और वहां एक की ही जरूरत है, वहां पांच की जरूरत नहीं है। पांच की तो जरूरत इसलिये है कि पंच महाभूत हैं बाहर और हर महाभूत को पकड़ने के लिये एक अलग इंद्रिय चाहिये। भीतर तो एक ब्रह्म ही है, इसलिये पांच इंद्रियों की कोई जरूरत नहीं; एक ही अंतः करण भीतर के अनुभव को पकड़ लेता है।
तो छह इंद्रियां हैं आदमी की पांच बहिर्मुखी, एक अंतर्मुखी और मन यंत्र है बीच में खड़ा हुआ, एक शाखा भीतर गई है, वह पकड़ती रहती है। भीतर कुछ भी घटित हो,मन पर सब अंकन हो जाते हैं। मन के जाने की जरूरत नहीं है, इसीलिये जब समाधि से साधक लौटता है मन में, तो मन ही अपने रिकार्ड उसे दे देता है कि यह-यह भीतर हुआ। तुम जब यहां नहीं थे, तब यह-यह भीतर हुआ।
आप यहां से चले जाये अपने टेपरिकार्डर को छोड़ कर, घंटे भर बाद आप लौटें, टेपरिकार्डर आपको बता देगा यहां क्या-क्या शब्द बोले गये, क्या-क्या ध्वनि हुई। टेपरिकार्डर का जीवंत होना जरूरी नहीं है। मन भी जीवंत नहीं है; मन भी पदार्थ है और सूक्ष्म यंत्र है। यह जो पदार्थ यंत्र है, यह दोनों तरफ से संगृहीत करता चला जाता है। इसलिये समाधि से लौटा हुआ साधक मन के द्वारा ही अनुमान करता है, मन से ही जानता है।
तो जितना परिशुद्ध मन हो, उतनी मन की खबर सही होती है, और जितना अशुद्ध मन हो, उतनी गलत होती है। जैसे कि टेपरिकार्डर आपका बिगड़ा हो, तो जो कहा जाये वह रिकार्ड तो करे, लेकिन पीछे समझ में न आये कि क्या कहा गया। रूप बिगड़ जाये, आकार बिगड़ जाये, ध्वनि बिगड़ जाये-कुछ समझ में आये, कुछ समझ में न आये। यह मन दो तरफा संग्रह करता है-समाधि का भी, संसार का भी। संसार की खबर भी मन से मिलती है और ब्रह्म की खबर भी मन से मिलती है।
अब हम इस सूत्र में प्रवेश करें। जिसको यह अनुभव हो जाता है कि सारे प्रतिबिंब मन पर निर्मित होते हैं, जिसे यह अनुभव हो जाता है कि जितने भीतर मैं प्रवेश करता हूं, केंद्र पर जाकर, मेरे ऊपर कोई भी संस्कार निर्मित नहीं होते हैं, सारे संस्कार मन पर ही निर्मित होते हैं, स्वयं पर नहीं-तब यह सूत्र समझ में आयेगा।
जिस दिन कोई व्यक्ति मन के पार उठता है, जिस दिन चेतना मन के पीछे सरक जाती है, उस दिन अनुभव होता है कि इस आत्मा पर आकाश की भांति अब तक कोई भी-कोई भी-निशान निर्मित नहीं हुआ है; यह सदा से शुद्ध और सदा से बुद्ध, इस पर कोई विकृति घटित नहीं हुई है।
मन का तो सारा का सारा हिसाब अतीत पर निर्भर है। मन तो भविष्य को भी सोचता है तो अतीत के ही शब्दों में सोचता है। जो कल हुआ है वही आने वाले कल में हो सकता है; थोड़ा-बहुत हेर-फेर होगा। लेकिन जो कभी नहीं हुआ है वह कल भी कैसे होगा! इसीलिये मन कभी मृत्यु को मान नहीं पाता और जब अपनी मृत्यु घटती है, तब मन बेहोश हो गया होता है।
इसलिये जीवन के दो बड़े अनुभव, जन्म का और मृत्यु का अनुभव हमें होता ही नहीं। जन्मते भी हम हैं, मरते भी हम हैं और अगर इन दो बड़ी घटनाओं का अनुभव नहीं होता, तो इनके बीच में जो जीवन की धारा है, उसका भी हमें क्या अनुभव होगा, कैसे होगा? जो जीवन के शुरूवात को नहीं जान पाता, अंत को नहीं जान पाता, वह मध्य को भी कैसे जान पायेगा? जन्म और मृत्यु के बीच में जो धारा है, वही है जीवन। न शुरू का हमें पता है, न अंत का हमें पता है, तो बीच भी अपरिचित ही रह जायेगा। धुंधली -धुंधली खबर होगी-जैसे दूर सुनी गई कोई बात हो, कोई देखा गया स्वप्न हो। लेकिन जीवन से भी हमारा सीधा संस्पर्श नहीं हो पाता।
जीवन्मुक्त का अर्थ है कि जिसने जीवन में ही, जागते, होशपूर्वक मृत्यु को जान लिया। यह शब्द बड़ा अदभुत है। जीवन्मुक्त का अर्थ है…..बहुत तरह का। एक अर्थ हम कर सकते हैं कि जो जीवन में मुक्त हो गया, दूसरा अर्थ हम कर सकते हैं कि जो जीवन से मुक्त हो गया। दूसरा अर्थ ज्यादा गहरा है। असल में पहला अर्थ दूसरे अर्थ के बाद ही उपयोगी है। जो जीवन से मुक्त हो गया, वही जीवन में मुक्त हो सकता है।
तो जिसे हम जीवन कहते हैं, वह वस्तुतः मरने की एक लंबी प्रक्रिया है। जन्म के बाद और कोई कुछ भी करे, सब एक काम जरूर करते हैं, वह है मरने का-मरते रहने का। जन्मे नहीं कि मरना शुरू हो गया। बच्चे ने पहली सांस ली, अंतिम सांस की व्यवस्था हो गई। अब मौत से बचने का कोई उपाय नहीं। जो जन्म लीया, वह मरेगा। देर-सबेर, समय का अंतर हो सकता है, लेकिन मौत सुनिश्चित हो गई।
जीवेषणा जिसकी समाप्त हो गई हो, वह जीवन से मुक्त हो सकता है। जो जीवन से मुक्त हो जाता है, वह जीवन्मुक्त हो जाता है। फिर वह जीवन में ही मुक्त हो जाता है। फिर यहीं और अभी वह हमारे साथ होता है, लेकिन हमारे जैसा नहीं होता। वह भी उठता है, बैठता है, खाता है, पीता है, चलता है, सोता है। लेकिन उसका सोना, उठना, बैठना, सब का गुण, सब की क्वालिटी रूपांतरित हो जाती है। हमारे जैसे काम करते हुये भी वह हमारे जैसे काम नहीं करता है। यह संसार जैसा हमें दिखाई पड़ता है, ऐसा ही रहता है, लेकिन उसे किसी और भांति दिखाई पड़ने लगता है। उसकी दृष्टि बदल जाती है, देखने वाला केंद्र बदल जाता है, सारा जगत रूपांतरित हो जाता है।
जब तक शरीर है, तब तक जीवन्मुक्ति; जब शरीर भी गिर जाता है, तो मोक्ष।
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