ईश्वर द्वारा प्राप्त देह को सजाने-संवारने में मनुष्य जितना समय लगाता है, उतना समय तो किसी भी और कार्य में नहीं लगाता। प्राचीन समय में सौन्दर्य को केवल स्त्री से जोड़ा जाता था और इसी कारण से स्त्री सौन्दर्य की चर्चा तो कई ग्रन्थों मे मिल जाती है। परन्तु वर्तमान समय में स्त्री-पुरूष दोनों के बाहरी सौन्दर्य पर विशेष जोर दिया जाता है, कोई भी स्त्री किसी कुरूप, चेतनाहीन, निस्तेज व्यक्ति का साथ नहीं पसन्द करती है। वहीं पुरूष तो पूर्व से ही सौन्दर्यवान स्त्रियों के सामने नतमस्तक होता रहा है। परशुराम तंत्र ऐसा ही एक ग्रन्थ है जिसमें नारी के साथ-साथ पुरुष सौन्दर्य की भी चर्चा की गयी है। इसमें यह स्पष्ट रुप से बताया गया है कि नारी सौन्दर्य का जितना महत्व है, उतना ही महत्व पुरुष सौन्दर्य का भी है।
परशुराम तंत्र में पुरुष के सौन्दर्य की व्याख्या करते हुये बताया गया है कि पुरुष का सौन्दर्य उसकी वीरता, ज्ञान, आत्मविश्वास, कार्य क्षमता, विपरीत परिस्थितियों पर नियंत्रण रखने वाला आदि है। लम्बा कद, उन्नत ललाट, बड़ी-बड़ी दिव्य और तेजस्वी आंखें, उभरा हुआ वक्षस्थल, लम्बी मजबूत भुजायें और उसके साथ-साथ गठीला बदन, अपार साहस और खतरों से जूझने की क्षमता रखने वाला ही सही रूप में पौरूषमय व्यक्तित्व कहलाता है।
पौरुषता तो एक ऐसा सौन्दर्य है जो वास्तव में ही दर्शनीय और आकर्षक सम्मोहक युक्त हो, एक ऐसा सौन्दर्य जिसे देखते ही स्त्रियां पूर्ण समर्पण के लिये विवश हो जाये, एक ऐसा सौन्दर्य जो वास्तव में ही अदम्य साहस का प्रतिबिम्ब हो।
परशुराम तंत्र में नारी सौन्दर्य की भी व्याख्या की है। इसमें बताया गया है कि ईश्वर ने पुरुष और नारी को एक समन्वित स्वरुप में बनाया है। जहां जीवन में पुरुष सौन्दर्य की आवश्यकता है वहीं नारी सौन्दर्य में भी मधुरता, प्रफुल्लता और दिव्यता की आवश्यकता है। दुबला, पतला और मांसल शरीर, गोरा रंग, अण्डाकार चेहरा, उन्नत उरोज और मुट्ठी में आने लायक कमर। एक ऐसा शरीर जो अपने आप में खिले हुए गुलाब की याद दिलाता हो, एक ऐसा गौर वर्णीय शरीर जिसे देखते ही पौरुष वर्ग ठिठक कर खड़ा रह जाता है, एक ऐसा शरीर जो मधुर संगीत की याद दिलाता हो और ऐसे ही शरीर को स्त्री का सौन्दर्य कहा गया है।
सौन्दर्य शब्द तो अपने आप में जादू सा असर दिखाता है। संसार में शायद ही कोई स्त्री या पुरुष होगा जो अपने आप को सौन्दर्यमय न देखना चाहता हो। सौन्दर्य और स्त्री तो अपने आप में एक दूसरे के पर्याय ही हैं पर यह सौन्दर्य यह आकर्षण स्वतः ही प्राप्त नहीं होता है।
प्रभु सुन्दर शरीर तो दे देता है पर उसमें आकर्षण और कशिश तो व्यक्ति के प्रयत्न से ही सम्भव है। सौन्दर्य विशेषज्ञों ने तो नारी को सुन्दर, सुन्दरतम बनने की बात कही है और यह सत्य भी है कि जो मनुष्य सौन्दर्य की पराकाष्ठा पर खरा उतरता है उसमें आत्म विश्वास कूट-कूट कर भरा होता है या यह कहा जाये कि एक सौन्दर्यवान मनुष्य में आत्म विश्वास प्रभु डाल कर ही उसे भेजते हैं।
परन्तु ऐसा सौन्दर्य सामान्यतः देखने को नहीं मिलता है। आजकल जो कुछ देखने को मिलता है, वह है सौन्दर्य प्रसाधन से पुता हुआ चेहरा। चेहरे पर जो ओज, ताजगी और निखार होना चाहिए वह कहीं पर भी दिखाई नहीं देती।
आज जो कुछ भी है वह सब नकली है, ढ़का हुआ है। चाहे ऊपर से जो भी दिखाई दे पर वह सौन्दर्य की परिभाषा से कोसों दूर है। सौन्दर्य एक आनन्द का स्त्रोत और मधुरता का प्रवाह है और ऐसे सौन्दर्य को प्राप्त करना तो साधना के द्वारा ही संभव है। भारतीय शास्त्रों ने सौन्दर्य को जीवन का उत्साह माना है।
यदि जीवन में सौन्दर्य नहीं है तो वह जीवन नीरस और उदास हो जाता है। हम में से अधिकांश व्यक्ति ऐसा ही जीवन जी रहे हैं, हमारे होठों की मुस्कुराहट समाप्त हो गई है, चेहरे की मांस पेशियां सख्त और निर्जीव सी हो गयी हैं जिसके फलस्वरुप हम प्रयत्न करके भी खिलखिला नहीं सकते, उन्मुक्त रूप से हँस नहीं सकते। एक प्रकार से हमारा जीवन बंधा हुआ सा बन गया है और जिस तरह से एक जगह रूके हुये पानी से सड़ान्ध पैदा हो जाती है, इसी प्रकार रुका हुआ जीवन निराश और बेजान हो जाता है।
उसका कारण हम सौन्दर्य की परिभाषा भूल गये हैं, सौन्दर्य साधना हमारे जीवन में रही ही नहीं है, सौन्दर्य साधना का तात्पर्य जीवन के हर स्वरूप में सुन्दरता, श्रेष्ठता और पूर्णता की जीवन में प्राप्ति हो सके, हम धन के पीछे भागते हुए एक प्रकार से अर्थ लोभी बन गये हैं, जिसकी वजह से जीवन की अन्य वृत्तियां लुप्त हो गयी हैं।
इसके विपरीत यदि हम अपने शास्त्रों को टटोल कर देखें तो देवताओं ने और हमारे पूर्वजों ने प्रमुखता के साथ सौन्दर्य साधनायें सम्पन्न की हैं, सौन्दर्य को जीवन में प्रमुख स्थान दिया है। देवताओं की सभा में नित्य अप्सरायें नृत्य करती थी। वशिष्ठ के आश्रम में तो अप्सराओं का निवास था। विश्वामित्र ने भी सौन्दर्य साधना के बल पर ही जीवन को पूर्णता प्रदान की थी।
ये सभी बातें इस बात की सूचक हैं कि जीवन तो वही है जिसमें एक छल-छलाहट हो, जीवन के प्रति, उमंग, उत्साह, जोश, नित्य नवीनता हो, किसी भी प्रकार की कोई कुण्ठा न हो और ऐसा जीवन प्राप्त करना ही जीवन की श्रेष्ठता है। जहां सामान्य मानव के लिए ऐसा जीवन प्राप्त करना एक कल्पना मात्र है वहीं एक साधक के लिए यह साधना एक वरदान स्वरुप ही तो है।
आज के युग में मानसिक चिंतायें, तनाव, अत्यधिक परिश्रम, क्रोध, उन्माद अनेक तरह के नशे की क्रियायें जीवन में नीरसता का विस्तार करती हैं। हर व्यक्ति अनेक तरह की कुण्ठा से ग्रसित है, उसके जीवन में जीवन के प्रति किसी भी तरह का कोई उत्साह नहीं है, सिर्फ जीवन को ढ़ोने की क्रिया कर रहा है। इन परिस्थितियों से गुजर रहे स्त्री-पुरूष को रति अनंग साधना सम्पन्न करनी चाहिये, जिससे जीवन के प्रति उत्साह, उमंग, जोश आ सके, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की चेतना आ सके, अन्तस मन में आत्मविश्वास जाग्रत हो, तभी जीवन को सार्थक करना संभव हो पायेगा।
इस साधना को कोई भी पुरुष या स्त्री, बालक या बालिका, वृद्ध या अशक्त जो सौन्दर्यवान बनना चाहता है, वह कर सकता है। जो पहले से ही सौन्दर्यवान हैं वे इस साधना को सम्पन्न कर अपने सौन्दर्य को और भी अधिक निखार सकते हैं।
परशुराम तंत्र में यह स्पष्ट रुप से लिखा है कि जो जीवन में सफलता, सम्मान, यश और प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, जो ऊंचा उठना चाहते हैं, जो स्त्रियां स्वाभिमान के साथ जीवन जीना चाहती हैं, उनके लिये यह साधना अत्यधिक उपयुक्त है।
इस साधना को 11 दिसम्बर रविवार के दिन से प्रारम्भ करनी है। यह साधना मात्र आठ दिन की साधना है और इस साधना को सम्पन्न करने में नित्य एक घंटा ही समय लगता है। इस दृष्टि से कोई भी साधक सरलता से यह साधना सम्पन्न कर सकता है।
रात 08 बजे के बाद स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण कर पूर्व की ओर मुंह कर आसन पर बैठ जायें और साधिकायें अपने बालों को धो कर पीठ पर फैला कर आसन पर बैठें। सामने किसी पात्र में रति अनंग यंत्र स्थापित कर दें और सर्वप्रथम उसे जल से स्नान करा कर पोंछ लें फिर उस पर कुंकुम का तिलक करें।
सुगन्धित धूप या अगरबत्ती जला दें। अब ग्यारह गुलाब के अथवा कोई भी लाल पुष्प यंत्र पर निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये चढ़ायें और थोड़ा जल भी चढ़ायें।
अब सौन्दर्य शक्ति दिव्य माला से इस मंत्र की नित्य आठ दिन तक 6 माला मंत्र जप करें।
अब चढ़ाये हुये पुष्प व जल को शरीर के सभी अंगो पर स्पर्श करायें, आठ दिन तक नित्य ऐसा करें, प्रतिदिन साधना समाप्ति पर पूजा स्थल को स्वच्छ करें।
इस प्रकार यह मंत्र जाप निश्चित समय पर इसी क्रिया के साथ आठ दिन तक करें। आठवें दिन साधना समाप्ति पर कामदेव यंत्र को नदी में प्रवाहित कर दें तथा माला को गले में 1 घण्टे तक धारण रखें, पश्चात् पूजा स्थान में ही माला रख दें, तीन माह बाद माला को भी जल में विसर्जित कर दें।
ऐसा करने पर साधक स्वयं अपने व्यक्तित्व में हो रहे परिवर्तन को अनुभव कर सकेगा। आप देखेंगे कि आपके आस- पास के लोग आपकी सामीप्यता प्राप्त करने के लिये तत्पर होंगे।
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