यह ‘योग वशिष्ठ’ का एक श्लोक है और इसमें ये बताया है, कि प्रत्येक प्राणी के शरीर में रक्त होता है चीटीं हो या हाथी हो, पुरूष हो या स्त्री हो, बालक हो या वृद्ध हो। मगर वह रक्त सही अर्थों में रक्त नहीं है, साग-सब्जी खाने से बना है, हलवा-पूरी खाने से बना है। इसलिए ये रक्त ज्योंही आदमी की मृत्यु होती है, एक घण्टे के बाद में पूरा का पूरा रक्त पानी बन जाता है।
उसमें किसी भी प्रकार के लाल कण नहीं होते। बीस-पच्चीस मिनट बाद ही मरे हुए व्यक्ति के शरीर का खून पानी में बदल चुका होगा, गंदला सा पानी, खून नहीं होगा। इसलिये वह रक्त है ही नहीं, इसलिये वह पानी है, लाल रंग का पानी, हमने उसे रक्त कहा है, रूधिर कहा है जीवनदाता कहा है। परन्तु वह सार्थक नहीं है। सार्थक तो वह है, जो सनातन हो, चिरन्तन हो, अजर हो। मनुष्य भी सार्थक बन सकता है। आज आप युवा हैं, तो बीस-तीस साल के बाद लाठी लेकर चलेंगे, वो चीज नहीं रहेंगे, मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे, चिरन्तन तो नहीं रहे।
मनुष्य शरीर शाश्वत नहीं है, जीवन वह है, जो नाशवान नहीं हो और प्रत्येक चीज शाश्वत बन सकती है, परन्तु तब तक उसमें शाश्वत तत्व का स्थापन हो सके, गुरू तत्व का स्थापन हो सके। पूरे शरीर में रक्त के 84 करोड़ कण हैं। या यों कहें कि एक बूंद में ही असंख्य कण हैं। इन एक-एक रक्त कणों में हम गुरू को स्थापन करें, क्योंकि गुरू शाश्वत तत्व है। गुरू तो आज से पांच हजार वर्ष पहले भी थे, बाद में भी रहेंगे, गुरू तो शाश्वत शक्ति है।
गुरूत्व का अर्थ है जीवन, गुरूत्व का मतलब है आनन्द, गुरूत्व का मतलब है मस्ती, गुरू का अर्थ है प्रसन्नता, शाश्वतता, गुरू का मतलब है सफलता, तेजस्विता, दिव्यता, पूर्णता, श्रेष्ठता। इन सब गुणों का उस रक्त के कण में ही स्थापन हो जाये, यही तो रक्त कण-कण गुरू स्थापन दीक्षा का प्रयोजन है। लेकिन विज्ञान तो कह रहा है, वह लाल कण तो हिमोग्लोबिन है, उसमें और क्या स्थापन किया जा सकता है? पर विज्ञान के स्तर पर खड़े रहकर इस बात को नहीं समझा जा सकता।
शिष्य की भावभूमि प्राप्त करने के बाद ही इसे समझा जा सकता है और तब यदि ‘रक्त कण-कण गुरू स्थापन दीक्षा’ प्राप्त हो जाये, तो उसका जीवन धन्य हो जाता है, गुरूदेव से उसकी दूरी समाप्त हो जाती है, जिस रूप में वह गुरूदेव का स्मरण करता है, वही छवि उसके सामने तैरती नजर आती है।
वशिष्ठ ने कहा कि प्रत्येक रक्त कण में ही गुरू का स्थापन कर दें, क्योंकि गुरूत्व मर नहीं सकता, बाकी सब नाशवान है, गुरूत्व नाशवान नहीं है। कृष्ण को भी गुरू कहा, ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरूं’, राम को भी गुरू कहा, बुद्ध को भी गुरू कहा, महावीर को भी गुरू कहा, वशिष्ठ को भी गुरू कहा, शंकराचार्य को भी जगदगुरू कहा है, शंकराचार्य का शरीर तो समाप्त हो गया, उनकी चेतना, उनका गुरूत्व तो अभी भी है, गुरूत्व समाप्त नहीं हो सकता और मनुष्य भी समाप्त नहीं हो सकता, यदि प्रत्येक रक्त कण-कण में गुरूत्व का स्थापन हो जाये।
योग वशिष्ठ की अंतिम पंक्ति में कहा है, कि वे नर धन्य हैं, जो अपने रक्त के कण-कण में गुरूत्व को धारण कर लेते हैं और जो ‘रक्त कण कण गुरू स्थापन दीक्षा’ को प्राप्त कर लेते हैं, वे निश्चय ही श्रेष्ठ, दीर्घायु, स्वस्थ, पूर्ण सफलतायुक्त बन जाते हैं। मनुष्य शरीर को स्वच्छ बनाने के लिये तो नित्य स्नान कर लेता है, और बाहरी मैल धुल जाती है, परन्तु आंतरिक मैल, आंतरिक विकार-दोष तो मात्र तभी दूर हो सकता है, तब रक्त ही शुद्ध हो जायें।
गुरू तो प्राणमय कोष में होते हैं, आत्ममय कोष में होते हैं। वह केवल मानव शरीर नहीं होते, उनमें ज्ञान होता है, चेतना होती है, उनकी कुण्डलिनी पूर्ण जाग्रत होती है, सहस्त्रार पूर्ण चैतन्य होता है, उन्हें भूख, प्यास आदि नहीं सताते, जमीन से छः फुट ऊंचे शून्य में उनका आसन लगता है, वे ही सही अर्थों में मनुष्य हैं। पर जो इस प्रकार की क्रिया नहीं कर सकते, वे गन्दगी युक्त हैं, पशु हैं।
बिना पवित्रता के उच्चकोटि की साधनायें सम्पन्न नहीं हो सकती, हजारों वर्षों की आयु प्राप्त नहीं हो सकती, सिद्धाश्रम नहीं पहुंचा जा सकता और जब नहीं पहुंचा जा सकता, तो ऐसा जीवन अपने आप में व्यर्थ है, किसी काम का नहीं है, वह सिर्फ श्मशान की यात्रा ही कर सकता है। इस शरीर को पवित्र बनाने के लिये, यह आवश्यक है कि हम देह तत्त्व से प्राण तत्व में चलें जायें। जब प्राण तत्त्व में जायेंगे, तो फिर देह का भान रहेगा ही नहीं। फिर जीवन के सारे क्रिया कलाप तो होंगे, मगर अपने आप में एक चेतना उत्पन्न हो सकेगी, अन्दर एक क्रियमाण पैदा हो सकेगा, सारे उपनिषद् और वेद का ज्ञान समाहित हो सकेगा।
यह दीक्षा शिष्य के जीवन की कोई सामान्य घटना नहीं होती, यह तो उसके साधनात्मक जीवन का एक टर्निंग पाइंट होता है, एक सुनहरा मोड़ जिसके बाद फिर उसके दोष, उसके विकार उसकी सफलता में आड़े नहीं आते। परन्तु इसके लिये यह भी आवश्यक है, कि दीक्षा बहुत ही विनीत भाव से ग्रहण की जाये। यह दीक्षा तो अपने आप में ही शरीर को पूर्ण तेजस्वितायुक्त बनाने की क्रिया है, सुगन्धयुक्त बनाने की क्रिया है, फिर शरीर रोग ग्रस्त नहीं हो सकता, क्योंकि इससे तो प्रत्येक रक्त कण ही जीवन्त हो उठता है।
इस दीक्षा के तेज से साधक की वाणी में सागर के समान गंभीरता आ जाती है, उसकी नेत्रों में असीम करूणा और सम्मोहिनी शक्ति व्याप्त हो जाती है, उसके चेहरे पर अद्भुत शांति विद्यमान हो जाती है, क्योंकि उसे तो साक्षात गुरूदेव की उपस्थिति का भान होता रहता है, क्योंकि बाहर कहीं नहीं स्वयं उसके भीतर ही सद्गुरूदेव पूर्णता के साथ स्थापित हो चुके होते हैं।
ऐसी महान दीक्षा प्राप्त करने के लिये वर्ष में सर्वश्रेष्ठ सिद्ध समय गुरू पूर्णिमा ही है, इस दिन सद्गुरू अपनी पूर्ण भाव शक्ति से शिष्य को आत्मसात कर देते हैं और जब गुरू और शिष्य का प्राण एकाकार हो जाते हैं तो शिष्य के हृदय में गुरू स्थापित हो जाते हैं। गुरू और शिष्य की आत्मा एक हो जाती है जिसे गुरू आत्म ऐक्य कहा गया है। इसके लिये आवश्यक है शिष्य अपने भीतर वह भाव भूमि स्थापित करे जो श्रद्धा, विश्वास और समर्पण के खाद-बीज और जल से सिंचित हो। शिष्य की ऐसी भाव भूमि पर ही गुरूत्व स्थापित हो सकता है। इसके अलावा कोई अन्य मार्ग भी तो नहीं। यह दीक्षा प्राणमय कोष में आत्मिक गुरू को स्थापित करने का सर्वोच्च क्षण गुरू पूर्णिमा है। उसी पल में ही सब कुछ बदल जाता है।
जीवन में पूर्णता प्राप्ति हेतु आवश्यक है कि शिष्य अपने आपको पूर्ण रूप से गुरू में ही समाहित कर दें, क्योंकि सभी भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति के प्रदाता एकमात्र श्री गुरूदेव ही हैं, जिनकी चेतना को आत्मसात कर शिष्य सद्गुरूमय बनने की ओर अग्रसर होता है। और साथ ही प्रेम, आनन्द, ऐश्वर्य से युक्त होकर सुखमय जीवन व्यतीत करता है।
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